संतुलन साधना मैंने मां अष्टभुजा से ही सीखा
देश भर में दुर्गापूजा की धूम है, देवी प्रतिमाओं की कलात्मकता और उनके मूर्तिकारों के कला-कौशल पर दर्शनार्थी लहालोट हो रहे होंगे, पर सच यही है कि कलाकार हमेशा नेपथ्य में रह जाता है। उसकी रचनाधर्मिता...

देश भर में दुर्गापूजा की धूम है, देवी प्रतिमाओं की कलात्मकता और उनके मूर्तिकारों के कला-कौशल पर दर्शनार्थी लहालोट हो रहे होंगे, पर सच यही है कि कलाकार हमेशा नेपथ्य में रह जाता है। उसकी रचनाधर्मिता और जीवन के संघर्षों को प्राय: आम लोग नहीं जान पाते। कोलकाता की दुर्गापूजा तो अपनी भव्यता-दिव्यता और ऐतिहासिकता के लिए यूनेस्को की धरोहर-सूची में शामिल हो चुकी है, मगर वहां की एक और धरोहर हैं, जिनके बारे में बहुत कम लोगों को पता है। उनका नाम है माला पाल। दावा किया जाता है कि देवी प्रतिमा बनाने वाली वह पहली महिला मूर्तिकार हैं।
कोलकाता में मूर्तिकारों का मशहूर इलाका है कुमारटुली, यहीं पर आज से करीब चार दशक पहले माला पैदा हुईं। पिता मूर्तियां बनाया करते थे और उनका अपना स्टूडियो था। मगर सामाजिक रूढ़ियों ने जिस तरह रोजगार के कई क्षेत्रों को सिर्फ मर्दों के लिए आरक्षित कर रखा था, देव प्रतिमाओं के निर्माण के काम में भी ्त्रिरयों के प्रवेश की मनाही थी। माला के पिता एक परंपरावादी शख्स थे, इसलिए छोटी बेटी को स्टूडियो में आने की इजाजत नहीं थी। नन्ही माला को अजीब सा लगता कि दादा (बडे़ भाई) स्टूडियो जा सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं? मगर रूढ़ियां अनहोनी के घटने का भय अपने साथ लिए चलती हैं। जाहिर है, माला को भी आसानी से तब बहला दिया गया।
मगर माला के अंदर नैसर्गिक प्रतिभा थी, वह देव मूर्तियां नहीं बना सकती थीं, तो मिट्टी के बर्तन और दूसरे खिलौने बनाया करतीं। बड़े भाई गोबिंदो पाल अपनी बहन की दिली हसरत को जानते थे; बदलते दौर के साथ कई सारी रूढ़ियों के टूटने से वाकिफ भी थे, मगर बाबा के सख्त आदेश के आगे वह भी विवश थे। बहरहाल, कुदरत माला के मूर्तिकार को उनके अंदर तराशती रही।
साल 1985 की बात है। माला तब चौदह साल की थीं। पिता की मृत्यु के साथ ही स्टूडियो की पूरी जिम्मेदारी बडे़ भाई के कंधों पर आ चुकी थी। कारोबार खराब स्थिति में था और गोबिंदो को किसी की मदद की दरकार थी। माला के लिए यही मौका था कि वह न सिर्फ तमाम वर्जनाओं को तोड़कर अपने भाई और पारिवारिक कारोबार की मदद करें, बल्कि बचपन की चाहत को भी जी सकें! गोबिंदो ने बहन को सहर्ष इसकी अनुमति दे दी। माला ने शुरू में मूर्तियों के आभूषण बनाने का काम किया, फिर छोटी-छोटी मूर्तियों के निर्माण के जरिये वह इस कला में महारत हासिल करती गईं।
देवी प्रसन्न तो उन पर पहले से ही थीं, माला के स्पर्श में उन्होंने जादू भर दिया। धीरे-धीरे वह इतनी कुशल हो गईं कि गोबिंदो उन पर स्टूडियो छोड़कर बाहर निकलने लगे। मगर माला को अभी सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली थी। मां दुर्गा ने एक दिन यह भी संभव कर दिया। गोबिंदो किसी काम से कोलकाता से बाहर गए थे, अचानक मौसम बिगड़ गया और वह फंस गए। इधर खरीदार स्टूडियो के आगे अपनी प्रतिमा के लिए प्रतीक्षा में खडे़ थे। वक्त बीतता जा रहा था और खरीदारों का धैर्य भी जवाब देने लगा था। तब माला ने चुनौती कबूल की और प्रतिमा का बाकी काम पूरा करने में जुट गईं। लोगों ने देखा, तो उनके सुघड़ काम को देख वे दंग रह गए। माला को सामाजिक मान्यता मिल गई थी।
माला अपने कला-कर्म से बहुत खुश थीं। मगर दस्तूर के मुताबिक कुछ सालों बाद जब भानु रुद्र पाल से उनका विवाह हुआ, तो एक बार फिर उनके सामने मुश्किल आ खड़ी हुई। दरअसल, भानु तो उनकी कला के कद्रदान थे, मगर उनके माता-पिता को बहू का काम करना पसंद न था। उन्होंने दबाव बनाना शुरू कर दिया कि माला मूर्तियां बनाना छोड़ घर की जिम्मेदारियां संभालें। ऐसे वक्त में भानु ने पत्नी का खुलकर साथ दिया और माला का काम जारी रहा। जल्द ही उनकी जिंदगी में एक बिटिया भी आ गई, पर चूंकि पति का साथ था, तो उन्हें बेटी की परवरिश और काम के बीच संतुलन साधने में खास परेशानी नहीं हुई।
आहिस्ता-आहिस्ता बात मीडिया तक पहुंची कि एक स्त्री पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर बेजोड़ देव प्रतिमाएं बना रही है, तो पत्रकार व कला-प्रेमी उनसे मिलने आने लगे। अब माला को अपनी कला-प्रतिभा का लोहा उस तबके से मनवाना था, जो मूर्ति व शिल्प कला का बौद्धिक वर्ग था। जिला व राज्य स्तर पर पुरस्कार जीतने और दिल्ली स्थित शिल्प-कला संग्रहालय से बुलावे के बाद लोग उन्हें गंभीरता से लेने लगे। कला में निखार के साथ माला के पास खरीदारों की कमी नहीं रही। उनकी लघु दुर्गा प्रतिमाओं की मांग ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और यूरोप के कई देशों से होने लगी। टेराकोटा के उनके आभूषणों की तो आज भी कोलकाता में बहुत मांग है।
मगर माला को एक मलाल हमेशा से रहा कि मूर्तिकला में उनके जैसे शिल्पकार परिवारों की नई नस्लों की अब रुचि नहीं है। एक दिन उन पर बनाए किसी यू-ट्यूबर की डॉक्यूमेंट्री को देखकर कुछ बच्चे उनसे मिलने आए और कहा कि वे इस कला को सीखना चाहते हैं। माला के मन में उसी पल यह विचार कौंधा कि अगर वह इन्हें सिखा सकीं, तो इनमें से कुछ अवश्य इस पारंपरिक कला को अगली पीढ़ियों तक ले जाएंगे। और इस तरह माला की पाठशाला की बुनियाद पड़ी। वह अब तक लगभग चालीस युवाओं-बच्चों को मूर्ति बनाना सिखा चुकी हैं। माला का सपना है कि उनके छात्र इस कला-क्षेत्र में पेशेवर रूप से कामयाब भी हों।
कोलकाता के कुमारटुली से निकलकर देश-दुनिया में अपनी पहचान बना चुकीं माला पाल ने एक मूर्तिकार, पत्नी, बहू, मां और शिक्षिका के बीच संतुलन कैसे बिठाया? इस सवाल पर वह अक्सर मुस्कराकर मां अष्टभुजा की ओर देखती हैं, और श्रद्धा से उनका सिर झुक जाता है!
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह
