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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैअनाथ बच्चियों पर स्नेह बरसाती यहूदी मां

अनाथ बच्चियों पर स्नेह बरसाती यहूदी मां

मिशेल ने कोलकाता में जिस बच्ची को गोद लिया, वह महज दो माह की थी। न्यू जर्सी में रहते हुए वह अपने दोनों बच्चों की अच्छी परवरिश कर रही थीं, मगर उनके अंदर एक सोच हमेशा बनी रही कि गोद ली गई बेटी का...

अनाथ बच्चियों पर स्नेह बरसाती यहूदी मां
Pankaj Tomarमिशेल हैरिसन, डॉक्टर, समाजसेविकाSat, 28 Oct 2023 10:32 PM
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दुनिया न जाने कितने युद्धों को देख चुकी, न मालूम और कितनी लड़ाइयां इसके इतिहास का हिस्सा बनेंगी, मगर इस वक्त जो जंग इजरायल और फलस्तीन में जारी है, वह सबसे बर्बर संघर्षों में गिनी जाएगी। हजारों मासूम अपने बडे़-बुजुर्गों की निर्दयता और अना की भेंट चढ़ गए। आखिर उनका कसूर क्या था? उन्होंने दुनिया देखी ही कितनी थी? उन्हें कहां पता होगा कि युद्ध क्या होता है? जो हजारों मासूम अनाथ हो गए, उनका क्या होगा? हमास की वहशियाना करतूत की प्रतिक्रिया में बरस रहीं इजरायली मिसाइलों ने सबसे ज्यादा कहर बच्चों पर ही ढाया है। ऐसे में, यहूदी डॉक्टर मिशेल हैरिसन जैसों की जिंदगी किसी ‘लैंपपोस्ट’ से कम नहीं!
आज से करीब आठ दशक पहले न्यूयॉर्क के एक यहूदी परिवार में मिशेल पैदा हुईं। उनका परिवार रूस से विस्थापित होकर अमेरिका के एलिस द्वीप आया था। तब वह अप्रवासियों का द्वीप हुआ करता था। बहुत थोड़ी सी आबादी थी। मिशेल की दादी तब अपनी किशोरावस्था में ही थीं, मगर उनके हृदय में इतनी करुणा, इतना अपनत्व भरा था कि उस द्वीप पर आने वाले अप्रवासियों की हरमुमकिन मदद के लिए वह तत्पर रहतीं। कुंवारी यहूदी लड़कियों का उन्होंने काफी ख्याल रखा। लड़कियां सही-सलामत अपने परिजनों के बीच पहुंच जाएं, किसी मानव-तस्कर के हाथ न लगने पाएं, इस पर उनकी नजर रहती थी। वर्षों उनका परिवार उसी द्वीप पर रहा। मिशेल की दादी को वहां के लोग ‘एलिस की परी’ कहा करते थे। 
बाद में परिवार न्यूयॉर्क आ गया था। मिशेल पर बचपन से ही दादी का गहरा असर रहा। जब वह छोटी थीं, दादी अक्सर उन्हें नदी किनारे ले जातीं और चीन में 1958 में आए अकाल की कहानियां सुनाकर कहतीं, कभी भूखे बच्चों को मत भूलना! मिशेल शुरू से ही पढ़ने में जहीन थीं, और उनकी परवरिश एक अत्यंत संवेदनशील परिवार में हुई। जाहिर है, इसका असर होना ही था। एक दिन मिशेल को स्कूल में ‘जिंदगी के मायने’ विषय पर निबंध लिखने को कहा गया। उन्हीं दिनों उनका एक दोस्त कोरिया से आया था, जो कोरियाई जंग में अनाथ हुए बच्चों की तस्वीरें अपने साथ लाया था। उन तस्वीरों से आहत मिशेल ने अनाथ बच्चों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने को उस निबंध का आधार बनाया।
प्रतिभा और परिश्रम की बदौलत मिशेल हाईस्कूल के बाद 1960 में न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के वाशिंगटन स्क्वॉयर कॉलेज पहुंचीं, जहां से उन्होंने ‘प्री-मेडिकल स्टडीज’ और फ्रेंच साहित्य में बैचलर डिग्री हासिल की। इसके बाद उनका ठिकाना बना न्यूयॉर्क मेडिकल कॉलेज। 1967 में यहां से एमडी की डिग्री लेकर वह निकलीं, तो उनके लिए अवसरों के अनगिनत दरवाजे खुले थे। मगर वह साउथ कैरोलिना के गांवों में गरीबों का इलाज करने चली गईं। वहां काम करते हुए मिशेल को पता चला कि घर-घर जाकर मरीजों का उपचार और देखभाल करने वाली महिला चिकित्साकर्मियों की तनख्वाह अपने पुरुष समकक्षों से कम है, तो उन्होंने इस पर घोर आपत्ति की और उन्हें समान वेतन दिलवाया।
इस कामयाबी ने मिशेल को एक गहरा सबक सिखाया कि जब आपका नैतिक बल मजबूत है, तो आपके मुखालिफ भी खुलकर विरोध नहीं कर पाते। करीब चार वर्षों तक ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रिय रहने के बाद वह 1975 में रटगर्स न्यू जर्सी मेडिकल कॉलेज चली आईं, जहां सहायक प्रोफेसर के रूप में उन्होंने 1978 तक पठन-पाठन का काम किया। फिर वह हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी भी गईं, मगर जल्द ही मिशेल को लगा कि उन्हें निजी ‘मेडिकल प्रैक्टिस’ करनी चाहिए और इसके लिए उन्होंने कैंब्रिज शहर को चुना। करीब छह साल की कामयाब प्रैक्टिस के बाद एक बार फिर उन्होंने अध्यापन की ओर रुख किया और दो प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के बाद वह जॉनसन ऐंड जॉनसन कंपनी में साढे़ छह वर्षों तक कार्यकारी निदेशक (चिकित्सा सेवा) रहीं।
मगर सबको सब कुछ मनचाहा मिल जाए, कहां मुमकिन होता है? मिशेल मां बनने वाली थीं, तभी पति छोड़कर चले गए। उन्होंने अकेले ही बेटी को पाला। जब वह उम्र की 40वीं दहलीज के करीब पहुंची, तो एक ख्याल उमड़ने लगा था कि मुझे एक और बच्चे का लालन-पालन करना चाहिए। इसी तलाश में वह 1984 में कोलकाता पहुंचीं। मिशेल ने जिस बच्ची को गोद लिया, वह महज दो माह की थी। न्यू जर्सी में रहते हुए वह अपने दोनों बच्चों की परवरिश कर रही थीं, मगर उनके अंदर एक सोच हमेशा बनी रही कि गोद ली गई इस बेटी का परिचय वह उसकी संस्कृति से अवश्य कराएंगी।
इसी सिलसिले में मिशेल उसे लेकर कोलकाता आया करतीं। 1999 में उन्हें स्तन कैंसर का पता चला, इसके बाद भी वह 2000 में बेटी को लेकर कोलकाता आईं। उन दिनों भी वह अनाथालय खुला था। मगर जब उन्हें वहां कुछ गड़बड़ी महसूस हुई, तो दो हफ्ते के अपने कार्यक्रम को वह अगले डेढ़ माह तक बढ़ाती गईं। इस दौरान वहां चल रहे गोद लेने के ‘उद्योग’ का सारा कच्चा-चिट्ठा उनके सामने था। वह हैरान भी थीं और दुखी भी। एनजीओ उन बच्चों को नहीं लेते थे, जो बिल्कुल अनाथ थे, क्योंकि 18 साल बाद उनके लिए सरकारी अनुदान का प्रावधान न था।
आखिरकार, भारत में अपने परिचितों की मदद से मिशेल ने साल 2006 में ‘शिशुर सेवाए’ नामक संस्था की शुरुआत की। उन्हें इस सबसे दूर रहने, वरना जान से मारने की धमकी भी दी गई, मगर वह कहां डरने वाली थीं! मिशेल कोलकाता की ही होकर रह गई हैं। अब तक उन्होंने 20 अनाथ, दिव्यांग बच्चियों की जिंदगी को रोशन किया है। ये वे बच्चियां हैं, जिन्हें उनके अपनों ने त्याग दिया था या वे खो गई थीं। बकौल मिशेल, ‘ईश्वर अब यदि पूछेगा, जो जिंदगी मिली थी, उसका अच्छा उपयोग किया? तो मैं बेहिचक कह सकूंगी- हां!’
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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