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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैएक दर्दमंद पिता दुनिया को इससे बेहतर क्या देगा

एक दर्दमंद पिता दुनिया को इससे बेहतर क्या देगा

जिंदगी है, तो खुशियों और गमों का सिलसिला है। उसके पहले और उसके बाद, सब कुछ बस कल्पना है। मगर उन कल्पनाओं में गजब की ताकत है, जो हमें ढहने नहीं देती, बल्कि इस दुनिया को जीने लायक और इंसान को...

एक दर्दमंद पिता दुनिया को इससे बेहतर क्या देगा
Amitesh Pandeyचंद्रशेखर संकुरात्री, समाजसेवीSat, 28 Jan 2023 08:30 PM
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जिंदगी है, तो खुशियों और गमों का सिलसिला है। उसके पहले और उसके बाद, सब कुछ बस कल्पना है। मगर उन कल्पनाओं में गजब की ताकत है, जो हमें ढहने नहीं देती, बल्कि इस दुनिया को जीने लायक और इंसान को देवतुल्य बना जाती है। आंध्र के चंद्रशेखर संकुरात्री की जिंदगी उस अज्ञात से शक्ति बटोरकर इस ज्ञात दुनिया को बेहतर बनाने की एक बेमिसाल नजीर है। चंद्रशेखर जैसे लोग सच्चे नायक हैं। इसीलिए जब उन्हें इस साल पद्मश्री से नवाजा गया, तो लगा कि देश ने उनका हक अदा किया।
आज से करीब 80 साल पहले आंध्र के सिंगरायकोंडा में 20 नवंबर को चंद्रशेखर पैदा हुए। आठ भाई-बहनों में सबसे छोटे चंद्रशेखर ने आरंभिक शिक्षा राजमुंद्री के नगरपालिका हाईस्कूल से प्राप्त की और फिर विशाखापटनम की आंध्र यूनिवर्सिटी में उन्हें मनपसंद विषय ‘जीव विज्ञान’ में दाखिला मिल गया। यहां से एमएससी करने के बाद उनके पास नौकरी के कई प्रस्ताव थे,मगर विशेषज्ञता का मोह उन्हें कनाडा ले गया। न्यूफाउंडलैंड की मेमोरियल यूनिवर्सिटी से ‘बायोलॉजी’ में ‘एमएस’ के बाद चंद्रशेखर की अगली मंजिल अल्बर्टा यूनिवर्सिटी बनी, जहां से उन्होंने डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। जाहिर है, चंद्रशेखर ने जो महारत हासिल की थी, उसके बाद उनके पास अवसरों की कोई कमी नहीं ही होनी थी। मगर उन्होंने ओटावा में स्वास्थ्य महकमे के प्रस्ताव को स्वीकार किया। मनचाही शिक्षा, अच्छी नौकरी के साथ 1975 में मंजरी के रूप में मनपसंद जीवनसाथी भी मिल गईं। मंजरी आंध्र के ही काकीनाड़ा की रहने वाली थीं। श्रीकिरन व शारदा की आमद से उनका परिवार मुकम्मल हो गया था। चंद्रशेखर एक बेहद खुशहाल जिंदगी जी रहे थे।
साल 1985 की बात है। जून के आखिरी दिनों में मंजरी के भाई की शादी होने जा रही थी। वतन से हजारों मील दूर रह रहा परिवार इससे जुड़े आयोजनों में शिरकत करने को लेकर बेहद उत्साहित था। किन्हीं वजहों से चंद्रशेखर का संयोग न बना, लेकिन पत्नी और दोनों बच्चों ने 23 जून को एअर इंडिया की फ्लाइट-182 में मॉ्ट्रिरयल (कनाडा) से दिल्ली के लिए उड़ान भरी। परिजनों को हवाई अड्डे पर विदा करते हुए चंद्रशेखर थोड़े उदास तो हुए थे, मगर अपने मामा की शादी में शामिल होने को लेकर चहकते बेटे-बेटी पर उन्होंने अपनी उदासी जाहिर नहीं होने दी। 
वह उनकी आखिरी मुलाकात थी। खालिस्तानी आतंकियों ने उस विमान में बम लगा दिया था। मॉ्ट्रिरयल से लंदन के बीच आयरलैंड के ऊपर एक भयानक धमाके ने विमान में सवार सभी 329 लोगों को मौत की नींद सुला दिया था। दुनिया उस वारदात को कनिष्क विमान दुर्घटना के नाम से दर्ज कर आगे बढ़ गई, मगर 42 साल के चंद्रशेखर के लिए तो सब कुछ खत्म हो गया था। कई महीनों तक वह इसी उम्मीद में अटके रहे कि किसी दिन मंजरी दोनों बच्चों को लेकर दरवाजे पर दस्तक देंगी। मगर दुनिया से जाने वाले कहां लौटकर आते हैं? चंद्रशेखर के दिमाग में कई सवाल उठते, मगर किसी का जवाब नहीं मिलता। वह बस यही सोचते रहते कि अब उनके जीवन में क्या बचा है? अगले तीन साल बदहवासी के आलम में ही कटे।
फिर एक दिन भीतर से आवाज आई कि उन्हें अपने जीवन में कुछ सार्थक करना चाहिए, और दूसरों का गम बांटने से सार्थक भला क्या हो सकता है? चंद्रशेखर 1988 में नौकरी से त्यागपत्र देकर भारत लौट आए। आंध्र लौटने के बाद उन्होंने ग्रामीण इलाकों में कई तरह के अभाव महसूस किए, मगर सुदूर देहात में स्कूलों की भारी कमी और अंधेपन की समस्या ने उन्हें इस दिशा में काम करने को प्रेरित किया।  साल 1989 में चंद्रशेखर ने अपनी पत्नी और बच्चों की याद में अपनी जमापूंजी से ‘संकुरात्री फाउंडेशन’ की नींव रखी।
इसी फाउंडेशन के तहत उन्होंने पत्नी के जन्मस्थान से सटे इलाके कुरुथु में 1992 में एक स्कूल बनवाया और अपनी चार वर्ष की बेटी शारदा की स्मृतियों को इसे समर्पित किया। इसमें पढ़ने वाले गरीब बच्चों को मुफ्त किताबें, स्कूल ड्रेस और भोजन तो मिलते ही हैं, उन्हें इलाज की सुविधा भी संकुरात्री फांउडेशन मुहैया कराता है। ऐसे में, आश्चर्य नहीं कि पिछले 30 वर्षों में इस स्कूल का कोई भी बच्चा अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर नहीं गया। इस स्कूल से जुड़ा एक सुखद तथ्य यह भी है कि इसमें पढ़ने वाले बच्चों में साठ फीसदी लड़कियां हैं। अब तक हजारों बच्चों का जीवन इस स्कूल से आलोकित हो चुका है।
सात साल तक साथ निभाने वाले बेटे की स्मृति में शुरू श्रीकिरन नेत्र चिकित्सालय ने इस इलाके के लोगों का बड़ा उपकार किया है। इस अस्पताल की लोकप्रियता इतनी है कि पूरे आंध्र से लोग यहां आंखों का इलाज कराने आते हैं। पिछले तीन दशकों में यहां से 38 लाख से अधिक मरीज अपना इलाज करा चुके हैं, जिनमें से 65 फीसदी निर्धन तबके के रोगी थे। ‘श्रीकिरन नेत्र विज्ञान संस्थान’ ने सवा तीन लाख से भी अधिक ऐसे मरीजों की आंखों की रोशनी लौटाई है, जिन्हें बिल्कुल दिखाई नहीं देता था और इनमें से 90 फीसदी गरीब हैं, जिनका नि:शुल्क इलाज किया गया।
निस्संदेह, एक मानीखेज जिंदगी जी रहे चंद्रशेखर को इस बात का संतोष है कि वह कुछ लोगों के काम आ सके, मगर उनके ख्यालों से मॉ्ट्रिरयल हवाई अड्डे का वह मंजर कभी दूर नहीं गया, जिसमें उनकी पत्नी मंजरी और दोनों बच्चे बेहद खुश, जीवन से भरपूर दिख रहे थे। आज भी जब कोई कहता है कि वह 1978-79 में पैदा हुआ था, तो वह उसे गौर से देखते हैं, उनका श्रीकिरन भी शायद वैसा ही दिखता होता। उन्होंने कई बच्चों का जीवन संवारा है। एक दर्दमंद पिता इस दुनिया को अब इससे बेहतर और क्या दे सकता है?  
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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