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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैपूर्वोत्तर में लापता बच्चियों का पता ढूंढ़ती युवती

पूर्वोत्तर में लापता बच्चियों का पता ढूंढ़ती युवती

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो बताता है कि हर साल हमारे देश में हजारों बच्चे लापता हो जाते हैं। इस संगठन के मुताबिक, अकेले 2021 में 77,315 बच्चे गायब हो गए। क्या आप जानते हैं, वे कहां गए? उन्हें कौन...

पूर्वोत्तर में लापता बच्चियों का पता ढूंढ़ती युवती
Amitesh Pandeyपल्लबी घोष, मानवाधिकार कार्यकर्ताSat, 25 Mar 2023 10:52 PM
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नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो बताता है कि हर साल हमारे देश में हजारों बच्चे लापता हो जाते हैं। इस संगठन के मुताबिक, अकेले 2021 में 77,315 बच्चे गायब हो गए। क्या आप जानते हैं, वे कहां गए? उन्हें कौन ले गया? इन सवालों से पीड़ित परिजनों के अलावा किसी को क्या मतलब? नहीं! कुछ लोग हैं, जिन्होंने देश और समाज को यह बताने-जताने का बीड़ा उठाया है कि हमें फर्क पड़ना चाहिए। एक सभ्य समाज के तौर पर भी, और  इंसाफपसंद मुल्क के रूप में भी हमें अपने बच्चों के साथ होने वाले जुल्म के प्रति संजीदा होना चाहिए। पल्लबी घोष उन्हीं संवेदनशील लोगों में से एक हैं।  
आज से करीब 32 साल पहले असम के एक छोटे-से शहर लामडिंग में पल्लबी पैदा हुईं। वहीं पर उनकी स्कूली शिक्षा हुई। उनके एक चाचा तब पश्चिम बंगाल में रहा करते थे। हर साल गरमियों की अपनी छुट्टियां पल्लबी वहीं बिताया करती थीं। पूरे साल उन्हें इन छुट्टियों का इंतजार रहा करता था। विडंबना देखिए, आज महानगरों से उकताए हुए लोग गांवों-कस्बों की ओर भाग जाना चाहते हैं, तब बडे़ शहरों का चाकचिक्य छोटे कस्बों के लोगों के लिए किसी जादू से कम न होता था। वे उनके आकर्षण का शिकार हो जाते थे।
साल 2003 की बात है। गरमी की छुट्टियां बिताने पल्लबी 24 परगना स्थित अपने चाचा के गांव पहंुची थीं। एक दिन पचास साल का बदहवास पिता अपनी बेटी को तलाशता हुआ उनसे आ टकराया था। तब पल्लबी की उम्र महज 12 साल थी, और जिस बच्ची को तलाशा जा रहा था, वह भी लगभग इसी वय की थी। पल्लबी को समझ में नहीं आ रहा था कि उनकी उम्र की लड़की आखिर एक गांव में कैसे गुम हो सकती है? तब उन्हें कहां पता था कि इंसान की खोल में भेड़िए गांव में भी घुस आते हैं! जब उन्हें पूरी बात पता चली, तो वह स्तब्ध रह गईं। मन में कई सवाल उमड़ आए थे। लोग अपने बच्चों का ख्याल क्यों नहीं रखते? इन बच्चों को कोई क्यों उठा ले जाता है? क्या वे कभी अपनों के पास फिर लौट पाते हैं? चंद रोज ही बीते होंगे, एक बच्चे ने पल्लबी को बताया कि कोई भैया यामाहा मोटरसाइकिल से आते हैं और अपने साथ लड़कियों को ले जाते हैं।
इस घटना के दो हफ्ते बाद ही पल्लबी की छुट्टियां खत्म हो गई थीं और वह लामडिंग लौट आईं। मगर वह तड़प उनके जेहन में नक्श हो चुकी थी। बिलखते पिता का चेहरा अक्सर दिमाग में कौंध जाया करता। नतीजा यह हुआ कि उसी उम्र से पल्लबी ने मानव-तस्करी को समझना शुरू कर दिया। वह अपने आस-पास से गायब हुई लड़कियों के माता-पिता और दोस्तों से मिलीं, पर किसी के पास इस सवाल का कोई माकूल जवाब न था कि उनके बच्चों या दोस्तों के साथ क्या हुआ?
पल्लबी के घर के पास ही एक पुलिस स्टेशन था। एक दिन वहां तैनात अधिकारी ने जब बताया कि ऐसे बच्चों से रेलवे स्टेशनों, चौराहों पर भीख मंगवाया जाता है, बच्चियों से वेश्यावृत्ति कराई जाती है, तो कोमल मन को गहरा आघात लगा। इस उद्घाटन के कुछ दिनों बाद ही गुवाहाटी रेलवे स्टेशन पर धारा-प्रवाह हिंदी बोल रहे बच्चों को देखकर वह चौंक गई थीं, क्योंकि अमूमन वहां बांग्ला में ही लोग संवाद करते थे। पल्लबी ने जब उनसे बात की, तो पता चला कि वे राजस्थान, बिहार में पैदा हुए थे। बहेलियों ने उन बच्चों को शहरी चकाचौंध और बेहतर जिंदगी का झांसा देकर बहलाया-फुसलाया था। मानव तस्करी की परतें खुलती जा रही थीं और इससे निपटने का इरादा भी ठोस आकार लेने लगा था।  
साल 2012 में पल्लबी दिल्ली विश्वविद्यालय पढ़ने आ गईं। यहां एनएसएस से जुड़कर उन्होंने मानव-तस्करी के बारे में और गहराई से जाना। नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी के साथ काम करते हुए वह इसके राष्ट्रीय स्वरूप से परिचित हुईं। एक दिन जब उनका संगठन दिल्ली में बचाव अभियान के लिए निकलने को तैयार था, टीम लीडर की सेहत अचानक बिगड़ गई, तब पल्लबी ने आगे बढ़कर इस मुक्ति अभियान के नेतृत्व का प्रस्ताव किया। वह मुहिम पूरी तरह कामयाब रही। उस दिन एक अजीब संतोष से भर उठी थीं पल्लबी। उन्होंने कई बच्चियों को एक नई उम्मीद जो लौटाई थी। पल्लबी को अब जैसे जिंदगी का मकसद मिल गया था।
मगर यह सब आसान नहीं था। उन पर चाकू से हमले भी हुए, और दिल्ली के तीस हजारी अदालत परिसर में जान से मारने की धमकी भी मिली, मगर पल्लबी खौफ को जीत चुकी थीं। चेन्नई से मास्टर्स की डिग्री हासिल करने के बाद वह मानव-तस्करी के विरुद्ध सक्रिय एक एनजीओ से जुड़ गईं। इसके साथ काम करते हुए उन्होंने महसूस किया कि बच्चों को इस दोजख से आजाद कराना ही काफी नहीं, उनके पुनर्वास की व्यवस्था भी उतनी ही अहम है।
शुरू-शुरू में जब वह पूर्वोत्तर के राज्यों में मानव तस्करी और तस्करों के बारे में लोगों को समझाने जातीं, तो लोग घर के दरवाजे बंद कर लेते थे। फिर पल्लबी ने अपना तरीका बदला। पूछताछ के बजाय उन्होंने संवाद का रास्ता चुना। इसी मकसद से साल 2020 में पल्लबी ने ‘डायलॉग फाउंडेशन’ की शुरुआत की। इस संस्था ने असम, पश्चिम बंगाल, भूटान व म्यांमार की कई लड़कियों को एक बेहतर जिंदगी मुहैया कराई है। थोड़े से अंतराल में ही उन्होंने इन राज्यों की 75,000 से अधिक महिलाओं के साथ संपर्क कायम किया और उन्हें मानव तस्करों से आगाह किया। 
पिछले एक दशक में10 हजार से अधिक बच्चों-बच्चियों को पल्लबी ने नारकीय कैद से छुटकारा दिलाया है, जिनमें से कई मुख्यधारा में अहम भूमिका निभाने लगी हैं। एक लड़की तो बाकायदा मेडिकल की पढ़ाई कर रही है। पल्लबी के इस सफरनामे पर टीवी धारावाहिक तक बन चुका है, मगर उनका सफर मुसलसल जारी है, उन्हें तो मीलों आगे जाना है। 
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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