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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैजिंदगी से पहले मैंने मौत को जाना

जिंदगी से पहले मैंने मौत को जाना

इन जैसे करोड़ों लोगों के आगे एक सवाल ताउम्र टंगा रहता है- तुम्हारे मुल्क का नाम क्या है? और उनके पास इसका कोई माकूल जवाब नहीं होता। आखिर किसे कहें वे अपना वतन? जहां उनके पुरखे दफ्न हैं या उसे, जहां...

जिंदगी से पहले मैंने मौत को जाना
मोहम्मद बाकिर बायानी शरणार्थी और समाजसेवीSat, 21 Nov 2020 11:23 PM
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इन जैसे करोड़ों लोगों के आगे एक सवाल ताउम्र टंगा रहता है- तुम्हारे मुल्क का नाम क्या है? और उनके पास इसका कोई माकूल जवाब नहीं होता। आखिर किसे कहें वे अपना वतन? जहां उनके पुरखे दफ्न हैं या उसे, जहां पहली बार उन्होंने इस दुनिया में अपनी आंखें खोलीं, या फिर उस भूभाग को, जिसने अपने दामन में उन्हें पनाह दी है? मोहम्मद बाकिर बायानी का कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता, जब इस सवाल से उनका साबका न पडे़। 

बाकिर के माता-पिता जवानी के दिनों में ही अफगानिस्तान से जान बचाकर पाकिस्तान के क्वेटा भाग आए थे। तब तालिबान ने काबुल से कंधार तक खौफ की सल्तनत कायम कर ली थी। बाकिर के वाल्दैन को एक ठौर चाहिए था, जहां वे सुकून से अपनी गृहस्थी बसा सकें। उन्होंने क्वेटा में ही मसालों की एक दुकान खोल ली और वह चल भी पड़ी। फिर बाकिर की पैदाइश ने उनके दर-बदर होने के जख्म पर जैसे मरहम रख दिया। जिंदगी खरामा-खरामा अपनी रफ्तार बढ़ती रही। बायानी परिवार में चार और बच्चे पैदा हुए। उनकी किलकारियों और शरारतों पर दोनों मियां-बीवी लहालोट होते रहे। 

उधर अफगानिस्तान के हालात बद से बदतर होते गए। तालिबान रह-रहकर यहां-वहां खून-खराबे को अंजाम दे देता, और उन वारदातों में जब किसी अपने को खो देने की खबर बायानी दंपति तक पहुंचती, तो वे अफगानिस्तान छोड़ने के अपने फैसले पर कुछ और मुत्मइन हो जाते। डेढ़ दशक से भी अधिक का समय बीत चुका था। बाकिर हाईस्कूल में पहुंच गए थे। मगर अब भी वे सब शरणार्थी ही थे। फिर जिस हाजरा समुदाय से वे आते थे, वह स्थानीय चरमपंथियों के निशाने पर था। जून 2015 की बात है। आतंकियों के एक गुट ने हाजरा लोगों की दुकानों पर हमला बोल दिया। करीब पांच लोग मारे गए। बाकिर के पिता को सात गोलियां लगी थीं। एक हंसता-बसता परिवार उजड़ गया था। बाकिर को समझ में ही नहीं आ रहा था कि उनके परिवार की अब कौन हिफाजत करेगा? कहने को भी अपना कोई घर न था। किशोर कंधों पर अचानक पूरे परिवार का भार आ गया। उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा।

क्वेटा में हालात बिगड़ते जा रहे थे। खासकर शिया तबके के लोगों के लिए अधिक दुश्वारियां थीं। घर के मुखिया के कत्ल से डरे-सहमे परिवार को आखिरकार पुरखों की माटी की याद आई। जो कुछ था, उसे बेचकर एक नई शुरुआत के लिए वे अफगानिस्तान लौट गए। मगर जड़ों से उखड़े लोगों का साथ पुरानी जमीन भी कहां देती है। उनके साथ तो खड़ा होने वाला भी कोई न था। दो हफ्ते भी न गुजरे होंगे कि तालिबानी गुर्गों से धमकियां मिलने लगीं। फिर एक दहशत उन सब पर तारी हो आई। अब कहां जाएं? अंतत: मन इंडोनेशिया पर कुछ ठहर गया। 
बाकिर के लिए पैसा कोई मसला नहीं था, बस वे किसी परिजन को अब खोना नहीं चाहते थे। बेवा मां और पांच छोटे भाई-बहन-बहनोई की चिंता ने 17-18 साल में ही बाकिर को जैसे बुजुर्ग बना दिया। वह सबको अफगानिस्तान से निकालना चाहते थे। एक तस्कर ने उन सबके लिए हवाई टिकट का बंदोबस्त कर दिया। बाकिर के शब्द हैं, ‘इंडोनेशिया पहुंचकर पहला एहसास यही हुआ कि हम तालिबान से आजाद हैं और हम सबकी जान अब बच गई है।’

लेकिन आगे का सफर भी आसान नहीं था। इंडोनेशिया संयुक्त राष्ट्र के 1951 के शरणार्थी सम्मेलन का सदस्य नहीं है, इसलिए बाकिर को काफी मुश्किलें पेश आईं। वह न तो किसी स्कूल-कॉलेज में दाखिला ले सकते थे और न ही उन्हें कोई नौकरी मिल पा रही थी। इंडोनेशियाई कानूनों के तहत वे न वहां एक से दूसरे शहर में घूम-फिर सकते थे और न ही वहां शादी करके किसी स्थाई संपत्ति के मालिक बन सकते थे। 
मगर बाकिर निराश नहीं हुए। वह कुछ सकारात्मक करना चाहते थे।  एक ऑस्ट्रेलियाई दोस्त की मदद से उन्होंने ‘रिफ्यूजी ऑफ इंडोनेशिया’ प्रोजेक्ट की शुरुआत की। इसके तहत वह शरणार्थियों की तस्वीरें लेते, उनका इंटरव्यू करते, उनकी दास्तान अंग्रेजी में लिखते और फिर उसे ऑनलाइन शेयर करते। यह मुहिम इतनी सफल रही कि उन्हें अस्पतालों में फंसे कुछ शरणार्थियों व फुटपाथों पर सोने वालों की सहायता के लिए भी आर्थिक मदद मिल गई। वह अल जजीरा, द जकार्ता पोस्ट  और द जकार्ता ग्लोब  के लिए फ्रिलांसिंग करने लगे।  

साल 2017 में तेबेत में उन्होंने ‘हेल्प फॉर रिफ्यूजी’ केंद्र की शुरुआत की। आज यह 200 से अधिक समर्पित लोगों का संगठन है, जो इंडोनेशिया, खासकर जकार्ता में 12 देशों के हजारों शरणार्थियों को न सिर्फ बुनियादी शिक्षा देने, बल्कि उनके कौशल विकास में भी जुटा है, ताकि वे अपना भविष्य सुरक्षित बना सकें। इंडोनेशिया सरकार ने संस्था के कार्यों को देखते हुए इसे पंजीकृत कर लिया है। जकार्ता के हजारों शरणार्थियों में उम्मीद की रोशनी लाने में जुटे बाकिर बायानी कहते हैं, ‘मैं एक सामान्य जिंदगी की अहमियत जानता हूं, क्योंकि वह मुझे नहीं मिली। मैंने जिंदगी से पहले मौत को जाना है।’
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह

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