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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैशरणार्थी जो शरणदाता बन गए

शरणार्थी जो शरणदाता बन गए

आजादी के सात दशक बाद बंटवारे की टीस अब शायद बहुत थोड़े लोगों में बची हो, क्योंकि उनको भोगने-जीने वाली पीढ़ियां या तो खत्म हो चली हैं या फिर उनकी स्मृतियों पर वक्त की मोटी परत जम चुकी है, मगर कुछ लोग...

शरणार्थी जो शरणदाता बन गए
रवीन अरोड़ा उद्यमी-समाजसेवीSat, 18 Sep 2021 09:47 PM
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आजादी के सात दशक बाद बंटवारे की टीस अब शायद बहुत थोड़े लोगों में बची हो, क्योंकि उनको भोगने-जीने वाली पीढ़ियां या तो खत्म हो चली हैं या फिर उनकी स्मृतियों पर वक्त की मोटी परत जम चुकी है, मगर कुछ लोग हैं, जो उसे भूल नहीं सके, क्योंकि उन दुर्दिनों ने उन्हें इंसानियत का कभी न भूलने वाला सबक सिखाया है। अमेरिकी प्रांत एरिजोना के टेंपी में ‘द ढाबा रेस्टोरेंट ऐंड मार्केट प्लेस’ के मालिक रवीन अरोड़ा उन्हीं में से एक हैं।
कत्लो-गारत से बचते-बचाते किसी तरह कोलकाता (तब कलकत्ता) पहुंचे रवीन के परिवार को एक शरणार्थी शिविर में पनाह मिली थी। इसी शिविर में रवीन पैदा हुए। बचपन का हाल यह रहा कि पिता परिवार का पेट पालने के लिए नौकर का काम करते थे और मां दूध में इतना पानी मिला देतीं कि बच्चों के दूध पीने का संतोष भूख लगने के उनके एहसास को दबा दे। पिता के फटे पाजामे से मां उनके लिए कपडे़ सिला करतीं। जाहिर है, होश संभालते ही गरीबी ने भूख से गहरी दोस्ती करा दी थी।  
रवीन दस साल के रहे होंगे, जब उनके स्कूल में एक दिन मदर टेरेसा आईं। उन्होंने बच्चों से पूछा, आप में से कितने बच्चे अपने से कमजोर बच्चों के लिए कुछ दे सकते हैं? कई बच्चों ने अपनी जेब से कुछ न कुछ दिया। नन्हे रवीन ने भी यह जानते हुए कि उनकी पॉकेट में देने के लिए कुछ भी नहीं है, अपना हाथ अंदर डाला और शर्मिंदगी के साथ बाहर निकाला। मदर ने उनके चेहरे की निराशा पढ़ ली थी। रवीन का हाथ थामकर उन्होंने कहा- ‘मेरे बच्चे, मैं यही तो चाहती हूं। सिर्फ पैसे नहीं, मदद का जज्बा, देने की चाहत!’ यह बात बालक रवीन के भीतर हमेशा के लिए अटक गई थी।

उन गुरबत भरे दिनों में भी, जब तीन मील दूर राशन की दुकान के आगे घंटों अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था, रवीन के माता-पिता ने बच्चों को पढ़ने के लिए खूब प्रोत्साहित किया और अब तो मदर टेरेसा उनकी ‘मेंटर’ बन गई थीं। 17 वर्षों तक शरणार्थी की जिंदगी जीने वाले रवीन ने कोलकाता के सेंट जेवियर कॉलेज से ‘अकांउटिंग ऐंड फाइनेंस’ में मास्टर्स करने के बाद सन 1971 में सीए की डिग्री हासिल की और अगले आठ वर्षों तक उन्होंने ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ के लिए काम किया। 
सन 1981 में पीएचडी करने के लिए रवीन लॉस एंजेलिस चले आए, लेकिन वहां पहुंचकर उन्हें रेस्तरां उद्योग में अपना बेहतर भविष्य दिखा। बतौर शरणार्थी वह ‘भोजन में भगवान’ के दर्शन से कोलकाता में ही गहरे वाकिफ हो चुके थे, इसलिए भी उन्होंने इसे अपनी सेवा का जरिया बनाने का फैसला किया। जिंदगी खरामा-खरामा आगे बढ़ती रही और जब साल 2002 में बेटी को एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया, तब रवीन और उनकी पत्नी क्लारा भी एरिजोना की राजधानी फीनिक्स आ गए। कुछ महीनों बाद उन्होंने यहां से करीब 20 किलोमीटर दूर टेंपी में एक इमारत खरीदी। यह इलाका रवीन अरोड़ा को उनकी झुग्गियों के दिन याद दिलाता था और इस तरह, साल 2003 में ‘ढाबा इंडिया प्लाजा’ वजूद में आया।
एरिजोना में भयानक गरमी पड़ती है। इसलिए उन्होंने सप्ताह में पांच दिन दोपहर से शाम तक लोगों को मुफ्त में ठंडे पानी की बोतलें बांटनी शुरू की, साथ ही उनके लिए ऐसी हवादार जगहें निकालीं, जहां लोग थोड़ी देर सुस्ता सकें। ये संस्कार वह भारत से अपने साथ लेकर गए थे। लोग मुनाफे के लिए कारोबार शुरू करते हैं, मगर रवीन के कारोबार का एक मकसद मानव सेवा भी था। जो कुछ उन्होंने मदर टेरेसा के साथ काम करते हुए या फिर तिब्बती और बांग्लादेशी शरणार्थियों की सेवा-सहायता करते हुए सीखा था, वह टेंपी में उनके काम आया।
इलाके के लोगों ने उनके ढाबे को हाथोंहाथ लिया। श्वेतों के दबदबे वाले इलाके में रवीन ने इंडिया प्लाजा के जरिये भारत की मिली-जुली संस्कृति को जीवंत कर दिया है। उनके ढाबे में भारतीय, पाकिस्तानी और बांग्लादेशी मूल के लोगों के अलावा स्थानीय श्वेत लोग भी खूब आते हैं। प्लाजा की ज्यादातर दुकानें प्रवासी भारतीयों की हैं। रवीन न सिर्फ अपने ढाबे में काम करने वाले छात्रों की फीस चुकाते हैं, बल्कि स्थानीय दर के मुकाबले दुकानदारों से बहुत कम किराया लेते हैं और उन्हें प्रोत्साहित करते हैं कि वे मुसीबतजदा लोगों की मदद करें। 
टेंपी नगर परिषद के सदस्य लॉरेन कुबे के मुताबिक, इस इलाके के तमाम बेघर लोग यह जानते हैं कि इंडिया प्लाजा ऐसी जगह है, जहां के लोग करुण हैं। यहां उन्हें खाने-पीने को कुछ मिल सकता है। कुछ समय के लिए उन्हें पनाह और मदद मिल सकती है। अपराधों के लिए कुख्यात इस इलाके में यह प्लाजा एक मिसाल है, जहां पिछले 18 वर्षों में एक बार भी किसी तफ्तीश के लिए पुलिस नहीं आई। ऐसे में क्या आश्चर्य कि इस साल के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित 230 लोगों में एक 72 वर्षीय रवीन अरोड़ा भी हैं।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह

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