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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैकिसी के सपनों को पीछे मत छूटने दीजिए

किसी के सपनों को पीछे मत छूटने दीजिए

इस दुनिया में कुछ लोग हर युग में अपने कबीले, समाज, इलाके और देश-दुनिया में रोशन हुए। उनकी जिंदगी की संघर्ष-गाथाओं ने न सिर्फ अपने समाज के लोगों को प्रेरित किया, बल्कि कई बार सरहदों को पार कर विशाल...

किसी के सपनों को पीछे मत छूटने दीजिए
Pankaj Tomarलिज मर्री, शिक्षिका, प्रेरक वक्ताSat, 18 Nov 2023 09:53 PM
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इस दुनिया में कुछ लोग हर युग में अपने कबीले, समाज, इलाके और देश-दुनिया में रोशन हुए। उनकी जिंदगी की संघर्ष-गाथाओं ने न सिर्फ अपने समाज के लोगों को प्रेरित किया, बल्कि कई बार सरहदों को पार कर विशाल मानव समुदाय के लिए उम्मीदों के नए-नए दरीचे खोले। वैज्ञानिक युग में यह और व्यापक हो गया है। एक ऐसी ही कहानी है लिज मर्री की! 
आज से करीब 43 साल पहले न्यूयॉर्क (अमेरिका) के उपनगर ब्रांक्स में लिज पैदा हुईं। एक तो परिवार की माली हालत बेहद खराब थी, ऊपर से उनके माता-पिता, दोनों को ड्रग्स की लत लग गई। शुरू-शुरू में वे दोनों अपनी नन्ही बेटियों से इसे छिपाने की पूरी कोशिश करते। प्राय: बंद दरवाजों के पीछे ही नशा करते। मगर हकीकत कब तक छिप पाती? लिज और उनकी बड़ी बहन लिसा को जल्द ही इसका पता चल गया। मगर तब उन्हें कहां पता था कि यह कितनी बुरी चीज है और इसका अंजाम कितना भयानक होगा? 
किसी बच्ची का इससे बेबस बचपन और क्या हो सकता है कि जिनको उसके लिए खिलौने खरीदने थे, वे घर के सामान बेच अपनी खातिर नशीली चीजें खरीदने लगे थे। लिज की मां ने तो उनके जन्मदिन के लिए जोडे़ गए पैसे भी ड्रग्स खरीदने के लिए चुरा लिए थे। नशे की एक खुराक के लिए कभी वह टीवी बेच देतीं, तो कभी किसी से मिला कोई उपहार। अक्सर हेरोइन के नशे के बाद वह बेसुध पड़ जातीं। उन्हें यह भी एहसास नहीं रहता कि बेटियां भूख से बिलख रही हैं या गंदगी में पड़ी हुई हैं।
लिज और उनकी बहन के लिए राहत के कुछ पल इलाके का डाकिया लाया करता था। दरअसल, सरकारी बाल-कल्याण योजना के तहत हर महीने उन दोनों के नाम एक तय धनराशि आती थी। दोनों बहनें डाकिया का यूं इंतजार करतीं, जैसे कोई मां किसी लाम से अपने बेटे के लौटने की बाट जोहती है। हर महीने की यह ऐसी प्रतीक्षा थी, जिससे एक उम्मीद और एक धड़का, दोनों पैबस्त थे। उम्मीद यह कि पैसे आएं, तो किसी रेस्तरां में पसंद की कोई चीज खाने को मिले और धड़का यह कि अगर सरकार ने पैसे न भेजे तो?
बहरहाल, सरकारी पैसे बिला नागा आते, और वे चारों बाजार भी जाया करते, मगर माता-पिता अक्सर उन पैसों से पहले अपने लिए ड्रग्स लेते और फिर महीने भर तक खाने-पीने की कुछ चीजें ली जातीं। अमूमन 30-32 डॉलर ही महीने की रसद पर खर्च किए जाते थे। जाहिर है, चंद रोज बाद फिर फाकाकशी का आलम होता। भूख से व्याकुल दोनों बहनें कई बार पड़ोसियों के आगे हाथ फैलातीं, मगर वे सब भी सरकारी अनुदान पर जीने वाले लोग थे। 
जिंदगी इसी माहौल में कटती-घिसटती रही। लिज के माता-पिता नशे के इतने आदी हो चुके थे कि वे दूसरे नशेड़ियों से सिरिंज साझा करने लगे थे। साल 1990 में लिज की मां को एचआईवी संक्रमित पाया गया। मगर पिता ने इसके बाद भी इस बुराई से तौबा नहीं की। लिज का सब कुछ खत्म हो गया था और वे लोग सड़क पर आ गए थे। मां की पीड़ा और 1996 में उनकी मौत ने लिज को गहरा सबक सिखाया था, क्योंकि मां के अंतिम समय में कोई उनके पास नहीं था। लिज तब 16 साल की थीं। अब उन्हें अपनी जिंदगी किसी सूरत बदलनी थी। उन्होंने हाई स्कूल में दाखिला लेने का फैसला किया, मगर यह आसान नहीं था, क्योंकि उनके पास अपना कोई स्थायी ठिकाना नहीं था। कई स्कूलों से नकारे जाने के बाद अंतत: मैनहट्टन के वैकल्पिक हाईस्कूल ‘ह्यूमैनिटीज प्रिपरेटरी एकेडमी’ के संचालकों का दिल पसीज गया।
लिज जिस उम्र में हाई स्कूल पहुंची थीं, उनकी आयु के छात्र-छात्राएं स्नातक कर रहे थे। मगर उनके पास किसी मलाल के लिए वक्त ही कहां था? इनकार भरी उस दुनिया में इस एकेडमी के शिक्षकों के पास लिज के लिए सिर्फ ‘स्वीकार’ था। इसको वह नहीं गंवा सकती थीं। एकेडमी की फीस चुकाने के लिए उन्होंने एक पेट्रोल पंप पर टायर में हवा भरने से लेकर पालतू कुत्तों को टहलाने तक का काम किया। हाई स्कूल से ए-ग्रेड के प्रमाणपत्र के साथ उनके लिए सभी विश्वविद्यालयों के दरवाजे तो खुल गए थे, मगर न उन संस्थानों की फीस चुकाने की उनकी कुव्वत थी और न स्थायी निवास का जरूरी पता था। वह बेघर थीं। आखिरकार एकेडमी के ही एक शिक्षक मि. आर्थर की सलाह और मदद से उन्हें न्यूयॉर्क टाइम्स का वजीफा मिल गया और हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी ने भी ‘बेघर’ लिज के लिए अपना दरवाजा खोल दिया।
मगर इसी दौरान उनके पिता भी एड्स की जद में आ गए थे। उनकी देखभाल के लिए हॉर्वर्ड ने लिज को कोलंबिया यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन करने की इजाजत दे दी। पिता कुछ ही दिनों में चल बसे। मरने से एक दिन पहले उन्होंने बेटी के लिए एक पैगाम लिखा था- मेरे सपने तुम्हारे पास हैं! बहरहाल, मनोविज्ञान में स्नातक की डिग्री लेने के बाद लिज ने अगस्त 2009 से हॉर्वर्ड समर स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। उनसे प्रेरित होकर उनकी बड़ी बहन ने भी ग्रेजुएशन किया और अब वह एक स्कूल में शिक्षिका हैं।
लिज ने अपने जैसों की मदद के लिए ‘मेनिफेस्ट लिविंग’ की नींव रखी। इसके तहत वह दुनिया भर में बदलाव के इच्छुक लोगों के लिए कार्यशालाएं आयोजित करती हैं। दो बच्चों की मां लिज मर्री की जिंदगी पर लोकप्रिय टेलीफिल्म बन चुकी है, उनके संस्मरण- ब्रेकिंग नाइट : ए मेमॉयर ऑफ फॉरगिवनेस, सर्वाइवल और ऐंड माई जर्नी फ्रॉम होमलेस टु हॉर्वर्ड काफी सराहे गए। होमलेस टु हॉर्वर्ड तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट सेलर्स में शामिल है। लिज अपने भाषणों में एक वाक्य हमेशा दोहराती हैं- किसी के सपनों को पीछे मत छूटने दीजिए, मनुष्य होने की यह पहली शर्त है!  
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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