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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैसिक्किम का गहना है अनाथों की यह मां

सिक्किम का गहना है अनाथों की यह मां

शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए इस साल की दावेदारी को लेकर इन दिनों खूब महिमामंडन और खंडन हो रहा है, मगर इसकी सियासत और विवादों को छोड़ दें, तो इस सम्मान के लिए नामित होने वाले लोगों का योगदान सचमुच...

सिक्किम का गहना है अनाथों की यह मां
Amitesh Pandeyकीपू शेरिंग लेप्चा, समाजसेवीSat, 18 Mar 2023 10:49 PM
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शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए इस साल की दावेदारी को लेकर इन दिनों खूब महिमामंडन और खंडन हो रहा है, मगर इसकी सियासत और विवादों को छोड़ दें, तो इस सम्मान के लिए नामित होने वाले लोगों का योगदान सचमुच सराहनीय रहा है और इंसानियत हमेशा उनकी कर्जदार रहेगी। सिक्किम की सरजमीं पर जन्मी एक बेटी को 2005 में इस सम्मान के लिए नामांकित किया गया था। मगर देश-दुनिया की सुर्खियों से दूर यह साधिका सेवा में जुटी रही। आज उसी भारतीय बेटी कीपू शेरिंग लेप्चा का सफरनामा लेकर आया हूूं।
हिन्दुस्तान जब अपनी आजादी की निर्णायक जंग लड़ रहा था और ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा गांव-गांव में गूंज उठा था, उसी साल सिक्किम राजशाही के एक गांव में कीपू पैदा हुईं। सरकारी मुलाजमत वाले परिवार में जन्म लेने का बड़ा लाभ यह रहा कि उनका बचपन आर्थिक मुसीबतें झेलने से बच गया और पढ़ाई-लिखाई के लिए भी उन्हें किसी रोक-टोक का सामना नहीं करना पड़ा। पिता चूंकि सरकारी सेवक थे, तो लाजिमी तौर पर उनका तबादला दूरदराज के इलाकों में होता रहा। उनके मुंह से लेप्चा आदिवासियों की तकलीफदेह कहानियां सुनते हुए कीपू बड़ी हुईं। पिता की यह दिली तमन्ना थी कि बेटी शिक्षक बने और लेप्चा लोगों को जमाने के साथ-साथ आगे बढ़ने लायक बनाए।
कीपू इसकी पात्रता हासिल कर सकें, इसके लिए उन्होंने गंगटोक में उनकी पढ़ाई की व्यवस्था की। गौर कीजिए, भारत जब आजाद हुआ था, तब हमारी महिला साक्षरता दर महज 12 फीसदी थी और उस वक्त भारतीय संप्रभुता को स्वीकारने को लेकर सिक्किम राजघराना कुछ दुराग्रही था। मगर सलाम उस दूरदर्शी पिता को, जिन्होंने उन अस्थिरता भरे दिनों में भी अपनी बेटी के लिए सुनहरे ख्वाब देखे। कीपू ने भी पिता को निराश नहीं किया। अच्छे अंकों के साथ वह स्कूल की सीढ़ियां चढ़ती गईं। 12वीं के बाद उन्हें कलकत्ता यूनिवर्सिटी का रुख करना पड़ा, जहां से मास्टर्स की डिग्री हासिल करने के बाद वह अपने शहर लौट आईं।
कीपू चाहतीं, तो अपनी डिग्री की बदौलत कोलकाता या किसी अन्य महानगर में एक अच्छी नौकरी और आरामदेह जिंदगी का इंतिखाब कर सकती थीं, मगर उन्हें पिता का सपना साकार करना था, इसीलिए गंगटोक लौट आईं। साल 1967 की बात है। गंगटोक स्थित ‘इंची उच्च माध्यमिक स्कूल’ में कीपू को प्रिंसिपल नियुक्त किया गया। तब उनकी उम्र महज 25 साल थी। वहां काम करते हुए अभी कुछ ही अरसा गुजरा होगा कि पता चला, शहर के दूसरे हिस्से में नए सरकारी हाईस्कूल की शुरुआत की जा रही है। यह स्कूल मुख्यत: तिब्बती शरणार्थियों के बच्चों के लिए खोला गया था। कीपू का अगला पड़ाव यही सरकारी स्कूल था। यहां उन्होंने उन बच्चियों के साथ होस्टल में ही रहने का विकल्प चुना, जिनके माता-पिता ने तिब्बत से भागते हुए दम तोड़ दिया था। 
हिमालय की इस बेटी का विशाल हृदय मासूम अनाथों पर ममता लुटाते हुए जैसे धन्य हो उठा। पिता से मिली सीख, अध्ययन से अर्जित ज्ञान और इन मासूमों से मिले अपनत्व ने कीपू को एक अनूठे संतोष से भर दिया था। मगर पढ़ने-पढ़ाने और स्कूल की अन्य जिम्मेदारियों का निबाह करते हुए उन्हें महसूस हुआ कि प्रशासनिक सेवा के जरिये इन अनाथों और लेप्चा समुदाय की कहीं अधिक प्रभावी मदद की जा सकती है। कीपू सिक्किम प्रशासनिक सेवा के लिए भी चुनी गईं। ग्रामीण विकास, शिक्षा, संस्कृति से लेकर समाज कल्याण तक कईर् विभागों में उन्हेें काम करने का मौका मिला।
साल 1988 की बात है। एक दिन कीपू गंगटोक के एमजी रोड पर शासकीय ड्यूटी निभा रही थीं कि अचानक उनकी निगाह कुछ ऐसे बच्चों पर पड़ी, जो फटे-आधे कपड़ों में भटक रहे थे। उन्होंने मातहत मुलाजिमों की मदद से उन्हेें इकट्ठा किया, तो उनकी संख्या 20 हो गई। वे सब यतीम लेप्चा बच्चे थे, जिनका पुरसाहाल पूछने वाला कोई न था। कीपू उन सबको अपने घर ले आईं। अब वह इन सबकी मां थीं। इन अनाथ बच्चों की सेवा में ऐसा मन रमा कि उन्होंने शादी न करने का फैसला कर लिया। साल 1989 में उन्होंने अपनी कुल जमा-पूंजी से इन बच्चों के लिए गंगटोक से कुछ दूर लेप्चा कॉटेज की नींव रखी। आज इनमें 11 साल तक के लगभग 100 अनाथ बच्चे रहते हैं।
कीपू खुद हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला, नेपाली, लेप्चा और भूटिया भाषाएं जानती हैं। बतौर प्रशासनिक अधिकारी उन्होंने लेप्चा भाषा-संस्कृति को बचाने अनथक प्रयास किए। शिक्षा विभाग में सहायक निदेशक के रूप उन्होंने प्राथमिक कक्षाओं की किताबें लेप्चा भाषा में तैयार कराईं और शिक्षकों को प्रोत्साहित किया कि स्थानीय संस्कृति को बचाने के लिए वे इसे बच्चों को जरूर पढ़ाएं। कीपू सुदूर गांवों तक गईं, ताकि पता लगा सकें कि कहीं कोई आदिवासी बच्चा शिक्षा से वंचित तो नहीं रह रहा? जब उन्होंने देखा कि गरीब आदिवासी माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने में असमर्थ हैं, तो अपनी बहन के साथ मिलकर उन्होंने लेप्चा कॉटेज स्कूल की शुरुआत की, जिसमें करीब 400 बच्चे आज पढ़ते हैं।  
कीपू की इस प्रतिबद्धता ने सिक्किम ही नहीं, देश-दुनिया में एक रोल मॉडल के रूप में उनकी पहचान गढ़ी। उनके स्कूल से निकले लेप्चा बचे सिक्किम के लिए मिसाल बन रहे हैं। कीपू को नोबेल तो नहीं मिला, मगर उनके समाज ने 2005 में उन्हें ‘सिक्किम भूषण’ से अलंकृत किया। इसके चार साल बाद राष्ट्रपति भवन में जब तत्कालीन सदर प्रतिभा पाटिल से वह पद्यश्री सम्मान लेने बढ़ीं, तो समूचा हॉल तालियों से गूंज उठा। उम्र के 81वें पड़ाव पर सक्रिय कीपू जब कहती हैं कि कुछ लेने से ज्यादा सुकून हमेशा कुछ देने में मिलता है, तो मानवता सचमुच मुस्करा उठती है। 
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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