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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैएक कबीले को रोशनी दिखाती कामयाबी

एक कबीले को रोशनी दिखाती कामयाबी

हसरतें, ख्वाब, जद्दोजहद और कामयाबी, ये लफ्ज तो हर इंसान में अपने लिए नए मायने तलाशते हैं, मगर कुछ ही लोग इनको सही में गहरे अर्थ दे पाते हैं। 24 साल की जुलेखा बानो बाल्टी एक ऐसी ही युवती हैं। अपने...

एक कबीले को रोशनी दिखाती कामयाबी
जुलेखा बानो बाल्टी अपने समाज की पहली वकीलSat, 16 Jan 2021 11:32 PM
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हसरतें, ख्वाब, जद्दोजहद और कामयाबी, ये लफ्ज तो हर इंसान में अपने लिए नए मायने तलाशते हैं, मगर कुछ ही लोग इनको सही में गहरे अर्थ दे पाते हैं। 24 साल की जुलेखा बानो बाल्टी एक ऐसी ही युवती हैं। अपने समुदाय की पहली महिला विधि स्नातक। और हां, हाशिये पर जीने वाली तमाम लड़कियों के लिए एक नजीर! किसी कबाइली लड़की के लिए यह वाकई बड़ी कामयाबी है। देश के बंटवारे ने सीमावर्ती लोगों की जिंदगी को सबसे ज्यादा मुश्किल बनाया और उनमें से एक बाल्टी समुदाय को तो उसके बाद भी कई दंश झेलने पड़े, क्योंकि 1971 की जंग तक लद्दाख के इस इलाके में भारत और पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा कई बार हिली और वहां के बाशिंदे इस आशंका में घिरे रहे कि वे पाकिस्तान अधिकृत गिलगित-बाल्टिस्तान में समेट लिए जाएंगे या हिन्दुस्तान उनका मुस्तकबिल बना रहेगा? न पाकिस्तानी शह पर घुसपैठों का सिलसिला थमता था और न भारतीय फौज अपनी जवाबी कार्रवाइयों से चूक सकती थी। जाहिर है, जब जान की हिफाजत ही सबसे बड़ा मसला हो, तब तरक्की की दूसरी कसौटियों की फिक्र कौन करता है?
जुलेखा का गांव बोगडांग शुरू से ही भारत में था, 1971 की जंग में हमारी फौज ने नुब्रा घाटी के कई गांवों को पाकिस्तानी कब्जे से आजाद कराकर भारत में मिला लिया था। इसके बाद ही वहां स्थिरता आई, फिर भी दशकों तक न तो वहां दूरसंचार के टावर लगाने की इजाजत थी, और न ही पर्यटकों को भ्रमण की अनुमति। 1999 की कारगिल जंग ने वहां के लोगों की दुश्वारियों से देश को अवगत कराया, और फौज ने भी महसूस किया कि स्थानीय लोगों के भरोसे को मजबूत करके ही सीमा को अधिक सुरक्षित किया जा सकता है। इसी सोच ने ‘ऑपरेशन सद्भावना’को जन्म दिया। ऑपरेशन सद्भावना के तहत बोगडांग में आर्मी गुडविल स्कूल का सूरज उदित हुआ। मगर गांव वालों में एक हिचक थी, दहशतगर्दों का खौफ था। ऐसे में, बोगडांग के नंबरदार अहमद शाह बाल्टी ने अपनी बेटियों जुलेखा व शेरिन फातमा और बेटे शब्बीर को इस स्कूल में भेजा। अहमद अपनी पारिवारिक मजबूरियों के कारण आठवीं से आगे नहीं पढ़ सके थे और यह मलाल उनके भीतर अक्सर उभर आता था। वह अपने बच्चों को नए जमाने की तालीम दिलाने को पहले से लालायित थे, और इस फौजी पहल ने जैसे उनके सपनों को नई दिशा दे दी थी। लेकिन जिस समाज-बिरादरी से जुलेखा का परिवार आता है, उसमें लड़कियों पर पाबंदियां तब इतनी सख्त थीं कि अहमद शाह के इस कदम को उनकी हिमाकत माना गया। फिर स्कूल के जलसे में जुलेखा का डांस करना और शेरिन का गाना बिरादरी पर नागवार गुजरा। गांव के कुछ प्रभावशाली लोग व मौलवी जुलेखा के परिवार पर मजहब की राह से भटकने के आरोप लगाने लगे। लेकिन अहमद शाह का अपने दीन पर पूरा ईमान था। उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया। जाहिर है, इसका अंजाम बुरा ही होना था।
जुलेखा के परिवार का गांव-बिरादरी ने बहिष्कार कर दिया। मस्जिद में उनके आने पर रोक लगा दी गई, उनसे राब्ता रखने वालों तक पर जुर्माना लगा दिया गया। मासूम जुलेखा को समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर उन्होंने क्या गलती कर दी है कि कोई उनके साथ नहीं खेलता, और न ही उनसे बात करता है। जुलेखा के दिमाग पर पड़ रहे असर को देखते हुए आखिरकार परिवार ने गांव छोड़ने का फैसला किया। जुलेखा और शब्बीर को आगे की पढ़ाई के लिए देहरादून भेज दिया गया, जबकि बाकी परिवार लेह में रुका रहा। जुलेखा तब चौथी जमात में थीं। पिता को अपनी मनपसंद गाड़ी और कुछ जमीन भी बेचनी पड़ी। यह बात उनके मन में धंस गई थी। वह न सिर्फ अपनी पढ़ाई में मन लगातीं, बल्कि शब्बीर का भी पूरा ख्याल रखतीं। उधर दोस्तों की सलाह पर बाकी परिवार भी देहरादून आ गया। एक बड़े शहर में रहना आसान न था। अंतत: जुलेखा के माता-पिता ने लद्दाखी छात्रों के लिए देहरादून में एक हॉस्टल चलाना शुरू किया। मां सकीना बानो 35 लद्दाखी बच्चों का खाना बनातीं और जुलेखा व उनकी छोटी बहन सारे बर्तन धोतीं, उनकी स्कूल ड्रेस आयरन करती रहीं। जुलेखा और उनके अन्य भाई-बहनों ने माता-पिता को निराश नहीं किया। शब्बीर बीटेक करके मुख्यधारा से जुड़ चुके हैं, तो शेरिन फातमा ने 12वीं के बाद गायन को अपना करियर बना लिया। गिलगित-बाल्टिस्तान तक उनकी लोक गायकी मशहूर हो चुकी है। लगभग एक दशक के बहिष्कार के बाद गांव ने जुलेखा और उनके परिवार को फिर से गले लगा लिया है। अब तो बोगडांग की कई लड़कियां कॉलेज के फॉर्म भरने लगी हैं। जुलेखा की इस कामयाबी पर वे लोग भी आज गदगद हैं, जिन्होंने उनके परिवार को गांव छोड़ने पर मजबूर किया था। और जुलेखा? उनके लिए उनका गांव जन्नत है। वह वकालत के साथ यहां की लड़कियों की तालीम के लिए काम करना चाहती हैं।
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह

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