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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैहजारों परिवारों का सहारा बने शिक्षक को सलाम

हजारों परिवारों का सहारा बने शिक्षक को सलाम

एक कामयाब लोकतंत्र के लिए आंकड़े किसी पवित्र ग्रंथ से कम महत्व नहीं रखते, क्योंकि इसी बुनियाद पर कल्याणकारी नीतियों की इमारत खड़ी होती है। आंकड़ों में पारदर्शिता लोकतंत्र की सफलता की पहली शर्त है...

हजारों परिवारों का सहारा बने शिक्षक को सलाम
Amitesh Pandeyपुली राजू, सामाजिक कार्यकर्ताSat, 15 Apr 2023 10:58 PM
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एक कामयाब लोकतंत्र के लिए आंकड़े किसी पवित्र ग्रंथ से कम महत्व नहीं रखते, क्योंकि इसी बुनियाद पर कल्याणकारी नीतियों की इमारत खड़ी होती है। आंकड़ों में पारदर्शिता लोकतंत्र की सफलता की पहली शर्त है। आपने गौर किया होगा, कोरोना महामारी के चरम दिनों में, जब दुनिया की तमाम सरकारों पर मौत की संख्या छिपाने या व्यवस्था संबंधी खामियों को दबाने के लिए आंकड़ों से छेड़छाड़ के आरोप लग रहे थे, तब अमेरिका अपने यहां दुनिया में सबसे अधिक मौतें दर्ज कर रहा था; भरपूर वैक्सीन उपलब्ध होने के बावजूद वहां टीके न लगवाने वालों की संख्या करोड़ों में बता रहा था। ऐसे में, तेलंगाना के पुली राजू भारतीय गणराज्य की जो सेवा कर रहे हैं, उसकी अहमियत समझी जा सकती है!
लगभग 48 साल पहले एटिगड्डा किस्टापुर (तेलंगाना) के एक किसान परिवार में पैदा हुए राजू का बचपन अपेक्षाकृत बेहतर आर्थिक परिवेश में गुजरा। परिवार के पास 17 एकड़ जमीन थी, लेकिन सदस्य भी बढ़ रहे थे और राजू के दूरदर्शी दादा ने यह भांप लिया था कि आने वाले दिनों में सिर्फ खेती-किसानी की बदौलत कुनबे को पालना मुश्किल हो जाएगा। उन्होंने अपने बेटे, यानी राजू के पिता से कहा कि वह पढ़-लिखकर अपने लिए नौकरी का बंदोबस्त कर लें, मगर तब ऐसा हो न सका। मगर एकाधिक दशक बाद ही बुजुर्ग मुखिया की आशंकाएं सही साबित होने लगीं। लगभग हर किसान जल-संकट, बदलते फसल-चक्र, जलवायु परिवर्तन और न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिल पाने की समस्या से जूझने लगा था। लिहाजा, राजू की शिक्षा को अहमियत मिलनी ही थी। 
राजू पढ़ने में होशियार थे। अच्छे अंकों से हाईस्कूल की दहलीज पार कर वह वारंगल के काकतीय विश्वविद्यालय पहुंचे, ताकि उच्च शिक्षा हासिल कर सकें। किसान परिवारों के ज्यादातर बच्चों में एक सिफत यह भी मिलती है कि वे कितने भी पढ़-लिख जाएं, चाहे जितने ऊंचे मुकाम पर पहुंच जाएं, खेतों के आकर्षण से कभी मुक्त नहीं हो पाते। यही वजह थी कि अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर कर रहे राजू जब भी गांव लौटते, खेतों में पसीना बहा रहे परिजनों के बीच फौरन जा खड़े होते। इसलिए अपने इलाके में मिट्टी की क्षीण पड़ रही क्षमता और पस्त होते किसानों की हालत से वह कभी गाफिल नहीं रहे। ऐसे में, जब भी किसी किसान की खुदकुशी की खबर मिलती, वह उन्हें बुरी तरह आहत कर जाती।
साल 1997 में एमए की डिग्री हासिल करने के कुछ महीनों बाद राजू को सरकारी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिल गई थी। उनकी पत्नी भी सरकारी शिक्षिका हैं। राजू चाहते, तो एक सुकून की जिंदगी जी सकते थे, मगर किसानों की आत्महत्या और उसके बाद परिवारों की दारूण स्थिति के किस्से उनके चैन में खलल डालते रहे। साल 2000 में उन्होंने इस समस्या से जुड़ी एक रिपोर्ट पढ़ी, जो अखबार में छपी थी। वह रिपोर्ट उनके पत्रकार मित्र की ही थी। राजू उनसे मिलने पहुंचे, तो कई मर्मांतक कहानियां सुनने को मिलीं।
उन्होंने उसी समय से इस समस्या में गहरी दिलचस्पी लेनी शुरू की। जैसे-जैसे किसानों की खुदकुशी की वजहों और उसके असर की पड़ताल बढ़ी, उनके लिए कुछ करने की प्रतिबद्धता ठोस होती गई। राजू ने पाया कि जवान विधवाओं और उनके बच्चों की एक बड़ी संख्या ऐसी भी है, तो सरकारी मुआवजों व राहत से वंचित है। कई बच्चों का स्कूल छूट चुका था। वे मां के साथ खेतों में मजदूरी कर रहे थे, ताकि स्थानीय साहुकारों के शोषण और प्रताड़ना से मुक्ति पा सकें। कई ऐसे परिवार थे, जिनके मुखिया की खुदकुशी के बाद उसे किसान नहीं माना गया, क्योंकि दस्तावेज में जमीन मृतक के नाम नहीं थी, हालांकि वह परिवार की पुश्तैनी भूमि थी।
एक तरफ, स्कूल में बच्चों को पढ़ाने और दूसरी तरफ, ऐसे किसानों की मौत के दस्तावेजी सुबूत जुटाने का सिलसिला शुरू हो गया। राजू ने 2002 से ही निजी तौर पर इनके आंकड़े इकट्ठा करना शुरू कर दिया। दरअसल, सरकारें इसलिए भी आत्महत्या के आंकड़े कम दर्ज करती हैं, ताकि उनकी बदनामी न हो, मगर इसका खामियाजा पीड़ित परिवार को भुगतना पड़ता है। राजू अपनी कुव्वत भर ऐसे बच्चों की आर्थिक मदद करते रहे, जिनके किसान पिता ने कर्ज तले दबकर खुदकुशी कर ली थी। उन्हें फिर से सरकारी स्कूलों की तरफ मोड़ा। उन्होंने इलाके के साथी शिक्षकों को भी ऐसे बच्चों की मदद के लिए प्रेरित किया।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने जब यह बताया कि 2014 में देश में 27 हजार किसानों ने खुदकुशी की थी, तब राजू ने अपने सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर पता किया कि इनमें से सिर्फ 7,000 परिवारों को सरकारी मुआवजा मिला। इस तथ्य ने उन्हें इतना उद्वेलित कर दिया कि वह इलाके के 400 परिवारों की फरियाद लेकर हाईकोर्ट पहुंच गए। सारे दस्तावेज उनके पास थे। अदालत के आदेश से इन सभी परिवारों को मुआवजे मिले। मगर मुआवजे की रकम कई परिवारों के लिए कम पड़ गई, क्योंकि उन पर कर्ज का भार ज्यादा बढ़ चुका था। तब राजू ने निजी क्षेत्र के लोगों से संपर्क किया कि वे ऐसे परिवारों को उबारने के लिए आगे आएं।
काम आसान न था, मगर दर्दमंदों से यह दुनिया खाली कब हुई है? आहिस्ता-आहिस्ता कई उद्योगपति, धनाढ्य लोग आगे आए। एक निजी कंपनी ने तो 40 बच्चों को गोद ले लिया है। वह इन बच्चों की स्कूल फीस अदा कर रही है। राजू पीड़ित परिजनों को आर्थिक मदद दिलाने के साथ-साथ किसानों को प्राकृतिक खेती की तरफ मुड़ने के लिए भी प्रेरित कर रहे हैं। सटीक दस्तावेजीकरण के जरिये वह पिछले दो दशक में करीब 2,500 परिवारों को मदद दिला चुके हैं। एक शिक्षक की इससे सार्थक भूमिका और क्या होगी? बेसहारा बच्चों के सहारा और समाज के सच्चे मार्गदर्शक! 
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह 

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