हमें शांति ही नहीं, इंसाफ भी चाहिए
उन्हें इस बात पर फख्र होना चाहिए था कि वह एक ऐसे मुल्क में पैदा हुए, जो दुनिया की सबसे पुरानी ज्ञात सभ्यताओं में से एक से वाबस्ता है, मगर वह उसके बर्बर वर्तमान से शर्मसार हैं और अपने देश से दर-बदर हो...
उन्हें इस बात पर फख्र होना चाहिए था कि वह एक ऐसे मुल्क में पैदा हुए, जो दुनिया की सबसे पुरानी ज्ञात सभ्यताओं में से एक से वाबस्ता है, मगर वह उसके बर्बर वर्तमान से शर्मसार हैं और अपने देश से दर-बदर हो इन दिनों डेनमार्क में पनाह लिए हुए हैं। फेरस फय्याद के भीतर सीरिया रोज कुछ ढहता है, और वह रोज ही उसके बारे में एक उम्मीद बांधते हैं, खासकर आने वाली नस्लों के हवाले से। यह उम्मीद उन्हें जीने का मकसद देती है।
अलेप्पो। एक दशक पहले तक यह सीरिया का बहुत हसीन शहर हुआ करता था, मगर गृह युद्ध ने इसे बुरी तरह तबाह कर दिया। इसी शहर से 60 किलोमीटर दूर बसे एक छोटे से गांव में फय्याद पैदा हुए। वह दिन 20 सितंबर, 1984 था। अलेप्पो जैसे महानगर के करीब होते हुए भी फय्याद का गांव सुविधाओं से वंचित था। उनके बचपन की ज्यादातर रातें गैस लैंप की रोशनी में ही गुजरीं, क्योंकि बिजली की नियमित आपूर्ति नहीं हो पाती थी। पर फय्याद के घर में किताबों की भरपूर रोशनी थी। उनके वालिद लेखक जो थे। अपनी संस्कृति के मिथकीय महानायकों की कहानियां चुन-चुनकर वह बच्चों को सुनाया करते। फय्याद को वे सुपरहीरो खूब लुभाते, क्योंकि वे मजलूमों की हिफाजत करते थे। लेकिन देखते-देखते ये कहानियां काल्पनिक महानायकों से हकीकी नायकों की दास्तान में बदलने लगीं। दरअसल, दशकों से सीरिया में हुकूमत कर रहे असद खानदान की तानाशाही बढ़ती ही जा रही थी। जाहिर है, ज्यादती बढ़ी, तो मुखालफत का दायरा भी फैलता गया। फय्याद के परिवार को भी शासन का कोपभाजन बनना पड़ा। उनके एक चाचा को इतना प्रताड़ित किया गया कि उन्होंने दम तोड़ दिया। पुलिस के कहर से परिजनों को बचाने के लिए फय्याद के पिता को घर की सारी किताबें फूंक देनी पड़ीं, क्योंकि उनमें दर्ज कई किरदार हुकूमत की निगाह में बगावत के लिए उकसाने वाले थे। फय्याद को आज भी याद है कि पिता की आंखें उन्हें जलाते हुए कैसे बरस पड़ी थीं! उनमें खुद उनकी वे पांडुलिपियां भी थीं, जो प्रेस में जाने वाली थीं। फय्याद पिता के सपनों को धधकते हुए देख रहे थे।
कहानियां प्रतिरोधों से पैदा होती हैं, नायक-महानायक दमन के बीच से ही उपजते हैं, मदांध सत्ताएं यह कहां देख पाती हैं? पूरे सीरिया में यहां-वहां टकराव शुरू हो गए थे, पर फय्याद का सारा फोकस ‘फिल्म मेकिंग’ की अपनी पढ़ाई और डॉक्यूमेंट्री से जुड़ी बारीक जानकारियों को समझने पर था। इसके लिए वह पेरिस गए, जहां के एक फिल्म स्कूल (ईआईसीएआर) से उन्होंने ऑडियो-विजुअल आर्ट में बीए की डिग्री हासिल की और फिर सीरिया लौट आए। फिर उन्होंने तीन साल तक टेलीविजन के लिए काम किया। उसके बाद फय्याद ने अपनी डॉक्यूमेंट्री बनानी शुरू की। साल 2011 में अरब स्प्रिंग की आंच सीरिया तक पहुंची और पहले से ही खदबदा रहा समाज जैसे भभक उठा। असद सरकार की तानाशाही से नाराज लोग जगह-जगह सड़कों पर उतर आए थे। एक डॉक्यूमेंट्री निर्माता के लिए इस गुस्से को कैद करने से बेहतर और क्या मौका होता? फय्याद इस ऐतिहासिक करवट को अपने कैमरे से दर्ज करने लगे। यह बात सरकार को नागवार गुजरनी ही थी। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। कैद में उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गईं। उनका बर्बर यौन उत्पीड़न भी हुआ। आठ महीने बाद फय्याद जब जेल से रिहा हुए, तब उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि किससे अपना दर्द बयान करें। सीरियाई समाज भी दुनिया के तमाम समाजों की तरह कई सारी वर्जनाएं ढोता है। फय्याद की जहनी कैफियत उन्हें खुदकुशी के मोड़ तक ले गई, लेकिन वहां बीवी ने उन्हें थाम लिया। फिर वह सीरिया छोड़ जॉर्डन, तुर्की के रास्ते डेनमार्क पहुंचे। करीब एक साल बाद जब सीरिया के उत्तरी हिस्से पर असद सरकार की पकड़ कमजोर पड़ी, तब परिजनों से मिलने वह अपने गांव पहुंचे।
उस दौरे में ही उनकी मुलाकात ऐसे गुमनाम नायकों से हुई, जो लोगों की खिदमत में जुटे हैं। फय्याद को लगा ये कितने ‘प्योर’ लोग हैं! बगैर किसी योजना के उन्होंने अपना कैमरा निकाला और उन्हें फिल्माने लगे। उनकी इस कोशिश ने खालिद को दुनिया भर में मशहूर कर दिया। खालिद, एक पेंटर, जिन्होंने बमबारी से ध्वस्त घरों के मलबे तले फंसे सैकड़ों लोगों को बचाया और अंतत: ऐसा करते हुए ही शहीद हो गए। फय्याद की पहली फीचर फिल्म लास्ट मैन इन अलेप्पो के नायक खालिद ही हैं। इस फिल्म के लिए उन्हें ऑस्कर अवॉर्ड के लिए नामांकित किया गया। इसी तरह,द केव में उन्होंने महिला डॉक्टर अम्मानी बल्लूर की श्रेष्ठ मानव सेवा को पेश किया। फय्याद को इसके लिए भी भरपूर सराहना मिली है। वह सीरियाई शरणार्थियों की आर्थिक मदद के प्रयासों से भी जुडे़ हैं। उनका पूरा कुनबा आज यूरोप के देशों में बिखर गया है। वह दुनिया को अपनी फिल्मों के जरिये यही पैगाम देना चाहते हैं कि सीरिया के लोगों को शांति ही नहीं, इंसाफ भी चाहिए।
प्रस्तुति : चंद्रकांत सिंह