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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैमियामी की उस एक मौत ने जीने का मकसद दे दिया

मियामी की उस एक मौत ने जीने का मकसद दे दिया

यह दुनिया विचित्र है और जीवन अद्भुत! इसमें एक तरफ बेहिसाब नफरत है, तो दूसरी ओर बेपनाह मोहब्बत। जिस क्षण अखबार और खबरिया चैनल आपको गाजा, ढाका, बगदाद और तेहरान की जुल्म व ज्यादती की कहानियां पढ़ा-दिखा...

मियामी की उस एक मौत ने जीने का मकसद दे दिया
Pankaj Tomarदुष्यंत दुबे, सामाजिक कार्यकर्ताSat, 10 Aug 2024 09:48 PM
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यह दुनिया विचित्र है और जीवन अद्भुत! इसमें एक तरफ बेहिसाब नफरत है, तो दूसरी ओर बेपनाह मोहब्बत। जिस क्षण अखबार और खबरिया चैनल आपको गाजा, ढाका, बगदाद और तेहरान की जुल्म व ज्यादती की कहानियां पढ़ा-दिखा रहे हैं, ठीक उन्हीं पलों में वे सर्वोच्च बलिदान व बेमिसाल इंसानियत के किस्से भी बता रहे हैं। शायद इसीलिए निराशा और हताशा बहुत देर तक आपके ईद-गिर्द नहीं टिक पाती। ऐसे में, हर वह शख्स हमारे सलाम का हकदार है, जो अपने कर्मों से इस संसार को सुंदर बनाने के साथ-साथ दूसरों को सद्कर्म के लिए प्रेरित कर रहा है। दुष्यंत दुबे एक ऐसा ही नाम हैं। 
करीब 33 साल पहले अहमदाबाद में पैदा हुए और पले-बढे़ दुष्यंत के पिता एक कारोबारी हैं। उनकी अपनी एक नर्सरी है, जिसमें उगाए गए पौधे वे अक्सर लोगों को दान किया करते हैं। दुष्यंत ने बचपन से ही पिता को गुजराती लोक-कलाकारों की मदद करते या फिर पर्यावरण संरक्षण के लिए सक्रिय देखा, ऐसे में स्वाभाविक ही उनके भीतर समाजसेवा का बीज अंकुरित हुआ। अलबत्ता, आयु के अनुरूप उनकी रुचि का मुख्य क्षेत्र था कंप्यूटर। साइबर संसार में गहरी दिलचस्पी ने उन्हें बगैर किसी औपचारिक शिक्षा या प्रशिक्षण के इसमें इतना माहिर बना दिया था कि वह स्कूली दिनों में ही वेबसाइट बनाने और डिजिटल मार्केटिंग के जरिये पैसे कमाने लग गए थे।
साल 2007 की बात है। दुष्यंत तब 16 साल के रहे होंगे। वह एक फिटनेस वेबसाइट पर सक्रिय थे, तभी उनकी नजर एक पोस्ट पर गई, जिसमें अमेरिकी शहर मियामी के 19 वर्षीय नौजवान अब्राहम बिग्स (छद्म नाम) ने लिखा था कि वह ‘लाइव स्ट्रीम’ में मरने जा रहा है। दुष्यंत ने जब उसमें दर्ज लिंक को खोला, तो देखा कि वह युवक बिस्तर पर लेटा हुआ है, उसने गोलियां निगल ली हैं। हजारों लोग उसे देख रहे थे। सैकड़ों कमेंट के जरिये उसे और उकसा रहे थे। दुष्यंत कांप गए कि एक युवा इस दुनिया से हमेशा के लिए जाने वाला है और लोग इसका आनंद ले रहे हैं? उन्होंने अब्राहम का मूल नाम और नंबर खंगाला और वहां ऑनलाइन उपस्थित अमेरिकियों से स्थानीय पुलिस को बुलाने की गुहार लगाई, मगर सबकी यही प्रतिक्रिया थी कि यह महज एक स्टंट है। 
दुष्यंत से रहा नहीं गया, उन्होंने मियामी पुलिस को ई-मेल किया, मगर वह बाउंस हो गया। बिना हताश हुए उन्होंने मियामी पुलिस की वेबसाइट ढूंढ़ी और उस पर दिए गए नंबर पर मां के नंबर से फौरन फोन किया। मां के फोन में अंतरराष्ट्रीय कॉल की सुविधा थी। पुलिस वाले ने टालने के अंदाज में इलाके के शेरिफ से बात करने को कह दिया। बेचैन दुष्यंत ने उस शहर के शेरिफ को फोन किया, तो सूचना मिली कि पुलिस रास्ते में है। वह वापस स्ट्रीम पर पहुंचे, तो देखा कि अब्राहम के कमरे में पुलिस दाखिल हो चुकी है और उसके बाद कैमरा ऑफ हो गया। चंद घंटों के बाद उसी वेबसाइट पर अब्राहम की बहन ने उसकी मौत की सूचना पोस्ट की थी। अगली सुबह दुष्यंत के इनबॉक्स में हजारों पैगाम थे, जिनका लब्बोलुआब यही था कि इस बेरहम दुनिया को आप जैसों की बहुत जरूरत है।
इस वाकये ने दुष्यंत को झकझोर दिया था। वह सोचने लगे कि संवेदनहीन हुजूम, उदासीन सिस्टम और चंद मिनटों की देरी ने कैसे एक उलझे हुए नौजवान को लाश में बदल दिया? किशोरवय दुष्यंत ने उसी समय उद्यमी बनने और खूब पैसे कमाने के लक्ष्य को हाशिये पर डाल दिया। स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ वह अहमदाबाद की स्वयंसेवी संस्थाओं से बतौर स्वयंसेवक जुड़ गए। गरीब बच्चों को पढ़ाकर या जख्मी जानवरों की सेवा-उपचार करके उन्हें काफी सुकून मिलता। 
इग्नू से बी कॉम की डिग्री आ गई, तो अहमदाबाद में संगीत के क्षेत्र में एक नई पहल ‘मेटलाबाद’ से दुष्यंत जुड़े। फिर किसी ने सुझाव दिया कि स्टार्टअप के इको सिस्टम को समझने के लिए बेंगलुरु से बेहतर कोई शहर नहीं। फिर क्या था, साल 2016 में दुष्यंत बेंगलुरु आ गए। इस महानगर में उन्हें जानने वाला कोई न था। न ही उनके पास कोई नौकरी थी। इंदिरा नगर में रहने की जगह तो मिल गई थी, मगर सवाल था कि क्या और कैसे शुरुआत की जाए? पुराना तजुर्बा काम आया। वह बेंगलुरु की कुछस्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़ गए। रक्तदान और स्वास्थ्य शिविरों के जरिये लोगों से उनकी अच्छी जान-पहचान बनने लगी। इसी बीच उन्हें ‘स्पोर्ट्सकीड़ा’ प्लेटफॉर्म में कंटेंट एडीटर का काम मिला। सात महीने काम करने के बाद वह ‘क्योर स्किन’ में ग्रोथ मैनेजर के पद पर काम करने लगे।
दुष्यंत के हिस्से में फिर ईशा फाउंडेशन और महिंद्रा समूह के सम्मानित पद भी आए, मगर जब उनकी जिम्मेदारियां समाजसेवा की चाहत के आड़े आने लगीं, तो उन्होंने उनसे मुक्ति पा ली। दुष्यंत अब तक इस महानगर के मिजाज से पूरी तरह वाकिफ हो चुके थे। उन्होंने शहर में हमख्याल दोस्तों का एक नेटवर्क भी बना लिया था। कोरोना महामारी के समय अहमदाबाद लौटने के बजाय दुष्यंत ने बेंगलुरु में रुककर अपने पैसे से बेबस लोगों के भोजन की व्यवस्था करने को कहीं ज्यादा जरूरी माना। जब कोरोना के नियंत्रित होने के बाद लोग बेंगलुरु लौटने लगे, तब उन्हें कई तरह की परेशानियां सामने आने लगीं। दुष्यंत ने एक पोस्ट डाली कि यदि किसी को कोई भी परेशानी हो, तो वह उसकी मदद के लिए हाजिर हैं। 
दुष्यंत को लगा कि लोग बहुत नोटिस नहीं लेंगे। मगर अब तक उनकी संस्था सेंट ब्रोसेफ फाउंडेशन से 7,500 से अधिक बेंगलुरु वासियों द्वारा मदद मांगी जा चुकी है। ज्यादातर साइबर अपराध, यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, छेड़छाड़ और नागरिक समस्याओं से जुड़े मामलों में मदद की गुहार लगाई जाती है। दुष्यंत के संगठन से जुड़े 5,300 से अधिक स्वयंसेवियों ने अब तक हजारों लोगों की मदद की है। बकौल दुष्यंत बेंगलुरु के कम से कम 50 हजार लोगों के पास उनके नंबर हैं। उन्हें यूं ही ‘बैटमैन ऑफ बेंगलुरु’ नहीं कहा जाता!
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह