फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैमैं मां जैसी जिंदगी नहीं चाहती थी

मैं मां जैसी जिंदगी नहीं चाहती थी

तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले में एक गांव है मुक्कुडल। इसी गांव के एक काफी गरीब परिवार में अश्वीथा का जन्म हुआ। गांव के ज्यादातर गरीब परिवारों के चूल्हे एक ही उद्योग से जलते थे- बीड़ी उद्योग। अश्वीथा...

मैं मां जैसी जिंदगी नहीं चाहती थी
अश्वीथा शेट्टी सामाजिक कार्यकर्ताSat, 01 May 2021 10:01 PM
ऐप पर पढ़ें

तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले में एक गांव है मुक्कुडल। इसी गांव के एक काफी गरीब परिवार में अश्वीथा का जन्म हुआ। गांव के ज्यादातर गरीब परिवारों के चूल्हे एक ही उद्योग से जलते थे- बीड़ी उद्योग। अश्वीथा की मां भी बीड़ी बनाया करती थीं। दस से बारह घंटे काम करतीं, ताकि उनका घर चल सके। अश्वीथा जब कुछ बड़ी हुईं, तब उन्होंने भी इस काम में अपनी मां का हाथ बंटाना शुरू कर दिया। लेकिन पढ़ाई और किताबों का साथ कभी नहीं छोड़ा। उम्र बढ़ने के साथ-साथ अश्वीथा को एक बात काफी कचोटती कि गांव में औरतें अक्सर घरेलू हिंसा का शिकार बनती हैं। वे इसके विरोध में आवाज भी नहीं उठाती हैं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इसकी क्या वजह है? उस समय अश्वीथा की उम्र आठ साल रही होगी। एक दिन मां आईं और बेटी की तरफ कॉपी बढ़ाकर पूछा कि वह गिनती करके बताए कि इस हफ्ते उन्होंने कितने पैसे कमाए हैं? अश्वीथा ने कॉपी के पन्ने पलटे, तो देखा कि हरेक पन्ने पर अंगूठे का निशान लगा है। अश्वीथा की मां को अक्षर ज्ञान नहीं था। वह कभी स्कूल गई ही नहीं, तो भला दस्तखत कैसे करतीं?
अश्वीथा को मां का अंगूठा लगाना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने मां से कहा कि वह उन्हें दस्तखत करना सिखाएंगी। पहले तो मां ने मना कर दिया, लेकिन बेटी के इसरार ने उनके भीतर छिपी चाहत को हवा दे दी और देखते-देखते उन्होंने यह कर दिखाया। मां के चेहरे पर गर्व के वे भाव अश्वीथा के लिए अमूल्य थे। उन्हें ऐसा लगा, जैसे एक बड़ा किला फतह कर लिया हो। वैसे भी, वह जिस ग्रामीण पृष्ठभूमि से आती थीं, उसमें लड़कियों को एक ‘भार’ की तरह समझा जाता था। उनके हिस्से था सिर्फ खाना पकाना, घर की साफ-सफाई और बच्चों की परवरिश। अश्वीथा को बचपन से ही लगता था, किसी को उनसे कोई अपेक्षा नहीं है। और उनकी पहचान के सिर्फ तीन बिंदु हैं- गरीब, ग्रामीण और लड़की। कभी-कभी तो लगता कि उन्हें पैदा ही नहीं होना चाहिए था। बीड़ी बनाते हुए वह प्राय: अपनी मां से पूछतीं- अम्मा, क्या मेरी जिंदगी तुम्हारे जीवन से अलग होगी? क्या मुझे कॉलेज में पढ़ने का मौका मिलेगा? मां कैसे बेटी को हतोत्साहित करतीं, हालांकि, वह जानती थीं कि जिस गांव में वे रहती हैं, उसकी किसी लड़की के लिए ऐसे सपने देखना हिमाकत की बात ही है। बहरहाल, वह यही जवाब देतीं कि पहले हाईस्कूल की पढ़ाई तो पूरी कर लो। 
हालांकि, एक आशंका अश्वीथा को हमेशा घेरे रहती कि हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करते ही पिता और रिश्तेदारों का विवाह के लिए दबाव बढ़ जाएगा। आखिर उनकी बड़ी बहन की शादी कम उम्र में कर ही दी गई थी। अश्वीथा जब 13 साल की थीं, उन्हें हेलेन केलर की आत्मकथा पढ़ने का मौका मिला। इस किताब ने उनके भीतर गजब का आत्मविश्वास भर दिया- अपनी जिदंगी आप खुद बदल सकते हैं, कोई दूसरा नहीं बदलेगा। अश्वीथा ने मन ही मन तय कर लिया कि वह अपनी जिंदगी बदलकर रहेंगी। हाईस्कूल की पढ़ाई के बाद आगे पढ़ने के लिए उन्हें अपने पिता और रिश्तेदारों से लड़ना पड़ा। लेकिन आखिरकार वे सब मान गए और अश्वीथा को कॉलेज में दाखिला भी मिल गया। मगर ग्रेजुएशन के आखिरी साल में फिर शादी के लिए दबाव बढ़ने लगा। अश्वीथा किसी तरह इन सबसे दूर भाग जाना चाहती थीं। आखिरकार उन्होंने घर से लगभग 1,600 किलोमीटर दूर दिल्ली में ‘यंग इंडिया फेलोशिप’ के लिए आवेदन किया। कई राउंड के इंटरव्यू के बाद आखिरकार उन्हें फुल स्कॉलरशिप के साथ वह फेलोशिप मिल गई। पिता ऊहापोह में थे, मां चिंतित थीं, मगर अश्वीथा को तो जैसे मनमाफिक पंख मिल गए थे। दिल्ली पहुंचीं, तो पाया कि 97 चयनित छात्र-छात्राओं में वह अकेली ग्रामीण कॉलेज ग्रेजुएट हैं। वह सबसे अलग-थलग महसूस करने लगीं। भाषा भी दीवार थी, लेकिन सहपाठियों के मुकाबले दस गुना मेहनत करके उन्होंने खुद को साबित किया। फेलोशिप कार्यक्रम की समाप्ति तक अश्वीथा की जिंदगी पूरी तरह बदल चुकी थी। दिल्ली से लौटकर साल 2014 में उन्होंने गांव में ‘बोधी ट्री फाउंडेशन’ नाम से एक एनजीओ की बुनियाद रखी। इस गैर-लाभकारी संस्था के जरिए अश्वीथा ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की ज्योति जला रही हैं। इसके तहत छात्र-छात्राओं को अंग्रेजी भाषा में शिक्षा, कौशल निर्माण व करियर संबंधी अन्य प्रशिक्षण मुहैया कराए जाते हैं। इस कार्यक्रम के तहत तिरुनेलवेली के 2,400 से अधिक ग्रामीण छात्र अब तक लाभ उठा चुके हैं। चंद वर्ष पहले अश्वीथा को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने सम्मानित किया था। जब उन्हें सम्मान दिया जा रहा था, तब पूरा गांव टीवी पर देख रहा था। बीड़ी मजदूर माता-पिता के लिए तो वे बेहद गौरव के पल थे ही, खुद अश्वीथा को इत्मीनान हुआ कि अब उनकी एक मजबूत पहचान है। उनके पास आवाज और आजादी है। और इस सबके मूल में है शिक्षा।
प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें