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Hindi News ओपिनियन जीना इसी का नाम हैदुनिया यूनिवर्सिटी है और लोग मेरी किताबें 

दुनिया यूनिवर्सिटी है और लोग मेरी किताबें 

बेंगलुरु के करीब गोपासंद्र गांव में एक गरीब पुजारी के घर वह पैदा हुए। पिता ने उनका नाम रेणुका आराध्य रखा। तीन भाई-बहनों में सबसे छोटे रेणुका को पिता की तंगहाली ने छुटपन से ही संजीदा बना दिया। दरअसल,...

दुनिया यूनिवर्सिटी है और लोग मेरी किताबें 
रेणुका आराध्य, व्यवसायी Sun, 15 Sep 2019 01:04 AM
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बेंगलुरु के करीब गोपासंद्र गांव में एक गरीब पुजारी के घर वह पैदा हुए। पिता ने उनका नाम रेणुका आराध्य रखा। तीन भाई-बहनों में सबसे छोटे रेणुका को पिता की तंगहाली ने छुटपन से ही संजीदा बना दिया। दरअसल, पिता की कोई नियमित आमदनी नहीं थी और वह दानवीरों के आसरे ही थे। आसपास के गांवों से भिक्षाटन कर परिवार का पालन-पोषण करने को मजबूर। कई बार बालक रेणुका को भी पिता के साथ भिक्षा के लिए भटकना पड़ता। 

दान में मिले अनाज को बेचकर किसी तरह दिन गुजर रहे थे। मगर इस मुश्किल हालात में भी माता-पिता को यह चिंता थी कि बच्चों को शिक्षा मिल जाए, ताकि वे इस जिल्लत भरी जिंदगी से छुटकारा पा सकें। उन्होंने दोनों बडेे़ बच्चों को पढ़ने के लिए बेंगलुरु भेज रेणुका का दाखिला स्थानीय स्कूल में करा दिया। रेणुका पढ़ाई के साथ-साथ खेतों में पिता का हाथ भी  बंटाते, मगर राहतों और उम्मीदों ने जैसे उनसे अदावत पाल ली थी। परिवार की हालत और खराब होती गई।

फिर वह मोड़ आया, जब बेबस पिता को गांव के ही एक घर में बतौर नौकर काम करने के लिए रेणुका को भेजना पड़ा। तब उनकी उम्र महज 12 साल थी। मवेशियों का चारा-पानी करने के बाद किशोर रेणुका के ऊपर परिवार के एक चर्मरोगी सदस्य की तिमारदारी की भी जिम्मेदारी थी। वह उसे नहलाते-धुलाते, घाव साफ करते और उन पर मलहम लगाते, फिर स्कूल जा पाते। स्कूल से लौटने के बाद फिर मालिक के घर के कामकाज में जुट जाते। 

करीब एक साल तक रेणुका उस घर में काम करते रहे। इसके बाद पिता ने उन्हें चिकपेट के एक गुरुकुल में डाल दिया, ताकि वहां से वह दसवीं की अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें। आश्रम में दो ही वक्त भोजन मिलता था- सुबह आठ बजे और शाम आठ बजे। इस दौरान वह भूख से व्याकुल हो उठते। रेणुका ने देखा कि आश्रम के वरिष्ठ साथियों को नामकरण, विवाह आदि कार्यक्रमों का न्योता मिलता है। पर इसके लिए संस्कृत आना जरूरी था। वह अपने वरिष्ठ साथियों की चिरौरी करते, उनके कपड़े धो देते, ताकि वे उन्हें अपने साथ इन कार्यक्रमों में ले जा सकें और उन्हें पेट भरने को मिल जाए। 

आश्रम में आए करीब एक साल हुआ होगा कि उनके पिता की मौत हो गई। अब मां और बहन की जिम्मेदारी रेणुका के कंधे पर थी, क्योंकि बड़े भाई ने यह दायित्व लेने से साफ इनकार कर दिया। जाहिर है, पढ़ाई छोड़ उन्हें काम करना पड़ा। सबसे पहले उन्होंने एक लीड फैक्टरी में नौकरी की, फिर वह प्लास्टिक के सामान बनाने वाली कंपनी में लगे। कुछ दिनों तक आइस क्यूब बनाने वाली फैक्टरी में भी उन्होंने काम किया। यही नहीं, घर की जरूरतें पूरी करने के लिए वह रात में सिक्युरिटी गार्ड का भी काम करते रहे। 

जिंदगी आंख-मिचौली खेलती रही और रेणुका उससे कुछ नया सीखते गए। इसी क्रम में उन्हें सूटकेस, वैनिटी बैग और एयर बैग बनाने वाली एक बड़ी कंपनी ‘श्याम सुंदर’ में हेल्पर की नौकरी मिली। वहां उन्होंने काफी गंभीरता से काम किया और एक साल के भीतर ही उनकी तरक्की सेल्समैन के पद पर हो गई। बतौर सेल्समैन रेणुका कारोबार के नफे-नुकसान के अंतर, ग्राहकों की मांग, खुदरा विक्रेताओं, वेंडरों व खरीदारों के बारे में गहराई से सीखते गए। फिर कुछ दिनों बाद उन्होंने खुद का काम शुरू कर दिया। वह सूटकेस, एयर बैग साइकिल पर लाद कर बेचने लगे। मगर यह काम नहीं चला और उनकी पूंजी भी डूब गई। नियति एक बार फिर उन्हें सिक्युरिटी गार्ड की नौकरी में ले आई। 

रेणुका 20 साल के रहे होंगे, जब उनकी शादी पुष्पा से हुई। पुष्पा ने एक गारमेंट फैक्टरी में काम करना शुरू किया, ताकि वह पति का बोझ बांट सकें। गार्ड की नौकरी करते हुए अक्सर ड्राइवरों से रेणुका की बातें होती रहती थीं। उन्हें लगा कि ड्राइवरी का कौशल कभी बेकार नहीं जाएगा। उन्होंने गाड़ी चलानी सीखी। बाद में एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी कर ली। मगर कंपनी में एक दिन उनके साथ कुछ ऐसा अपमानजनक घटा, जिससे उन्होंने फैसला किया कि वह अपनी ट्रांसपोर्ट कंपनी खोलेंगे, जहां ड्राइवरों का सम्मान पार्टनर जैसा हो।

साल 2000 में उन्होंने कर्ज लेकर अपनी पहली कार खरीदी। मेहनत व सूझ-बूझ की बदौलत अगले कुछ वर्षों में उनके पास छह और कारें आ गईं, 12 घंटे की शिफ्ट पर उन्होंने 12 ड्राइवरों को नौकरी पर रखा और वह तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते गए। 2006 में उन्होंने ‘इंडियन सिटी टैक्सी’ नामक कंपनी खरीदने के लिए अपनी सारी कारें बेच दीं। बड़ा जोखिम था। तब इस कंपनी से 30 कैब जुड़ी थीं। रेणुका ने ‘प्रवासी कैब्स’ के नाम से इनका पंजीकरण कराया। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज कंपनी के पास 800 से ज्यादा कैब हैं, और यह सालाना करीब 40 करोड़ रुपये का कारोबार कर रही है। रेणुका की जिंदगी का एक ही फलसफा है- कभी भी सीखना न छोड़ें।

प्रस्तुति :  चंद्रकांत सिंह

 

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