
हमारे गणतंत्र के संघीय ढांचे पर सीधा हमला
संक्षेप: संसद का मानसून सत्र जब समाप्त होने में सिर्फ दो दिन रह गया था, तब सरकार द्वारा 130वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया। इस विधेयक में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री व अन्य मंत्रियों के लिए एक अजीबोगरीब प्रावधान है…
आलोक शर्मा,राष्ट्रीय प्रवक्ता, कांग्रेस
संसद का मानसून सत्र जब समाप्त होने में सिर्फ दो दिन रह गया था, तब सरकार द्वारा 130वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया। इस विधेयक में प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री व अन्य मंत्रियों के लिए एक अजीबोगरीब प्रावधान है। इस मसौदे के मुताबिक, यदि कोई प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री 30 दिनों तक लगातार जेल में रहता है, चाहे उसके विरुद्ध जांच एजेंसी द्वारा आरोप-पत्र दाखिल किया गया हो या नहीं, उनको त्यागपत्र देना होगा, अन्यथा उनका वर्तमान पद स्वत: चला जाएगा।
इस विधेयक के कानून बनने से हम मौजूदा अघोषित आपातकाल से सुपर आपातकाल की ओर बढ़ जाएंगे। जिस दौर में तमाम सांविधानिक संस्थाएं सरकार के कब्जे में प्रतीत होती हैं; शीर्ष न्यायालय जांच एजेंसी ईडी को नियमित रूप से फटकार लगाता हो: ईडी 96 फीसदी मुकदमे विपक्षी दलों और उनके नेताओं पर दायर करता हो; केंद्रीय चुनाव आयोग विपक्ष को डाटा देने से इनकार करता हो; पूर्व सीबीआई निदेशक की पेंशन बंद हो, अंदाज लगाया जा सकता है कि देश की हालत क्या होगी? यहां इस तथ्य पर गौर करने की जरूरत है कि विपक्ष शासित झारखंड में विधानसभा चुनाव से ऐन पहले मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करने केंद्रीय एजेंसी ईडी पहुंच गई थी। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। हाईकोर्ट ने जमानत मंजूर करते समय टिप्पणी की कि कोई ठोस सुबूत नहीं है, तो समझिए जब 130वां संशोधन विधेयक कानून बन गया, तब लोकतंत्र का क्या होगा? इसलिए विपक्ष पूरी तरह से इस विधेयक के खिलाफ है। विरोध तो सरकार के घटक दल भी दबी जुबान से कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि इस कानून का पहला दुरुपयोग उनके खिलाफ ही होगा।
इस विधेयक में प्रावधान है कि आरोपी को अपने आपको निर्दोष साबित करना होगा। साफ है, देश को एक पुलिस स्टेट में बदलने का प्रयास है। यदि यह विधेयक पारित हुआ, तो संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा। यह भारतीय गणतंत्र के संघीय ढांचे पर सीधा हमला है। इससे कार्यपालिका के जरिये जनादेश की अवहेलना का रास्ता खुल जाएगा। केंद्र सरकार के लिए राज्यों की विपक्षी सरकारों को अस्थिर करना बेहद आसान हो जाएगा। यह कोई छिपा रहस्य नहीं है कि देश की फास्ट ट्रैक अदालतों को फैसले तक पहुंचने में महीनों-वर्षों लग जाते हैं, वहां तीस दिन के भीतर किसी भी मंत्री के मामले की सुनवाई हो जाए, यह उम्मीद पालना भी नितांत भोलापन ही है।
गौर कीजिए, यह विधेयक इसी समय क्यों आया है? दरअसल, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के सीजफायर, भारत से आयात पर अमेरिका द्वारा 50 फीसदी टैरिफ थोपने और मतदाता सूचियों की गड़बड़ियां देश की जनता के सामने आ गई हैं। केंद्र सरकार इन सभी विषयों पर घिर गई है, इसलिए वह इस विधेयक के जरिये लोगों का ध्यान भटकाना और अपने खिलाफ बढ़ते विरोध की धार को कुंद करने का असफल प्रयास कर रही है। साल 2013 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने जन-प्रतिनिधित्व (संशोधन एवं विधिमान्यकरण) कानून बनाया था, तब उसमें प्रावधान किया गया कि दो वर्ष से अधिक सजा पाने वाला व्यक्ति कोई भी चुनाव नहीं लड़ सकता। इस कानून में सभी जन-प्रतिनिधियों को उत्तरदायी बनाया गया था, मगर 130वां संशोधन विधेयक सिर्फ प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों की जिम्मेदारी तय करता है।
सरकार ने इस विधेयक को मानसून सत्र के आखिरी दिनों में इसलिए पेश किया है कि इस पर संसद में चर्चा न हो सके। इसे संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया है। अगर यह कानून बना, तो इसका दुरुपयोग सरकारें गिराने, दल-बदल कराने, राज्यों में अस्थिरता फैलाने और क्षेत्रीय दलों को खत्म करने के लिए किया जाएगा।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ‘इंडिया’ ब्लॉक के सभी राजनीतिक दलों ने इस विधेयक का प्रखर विरोध किया है। देश के अनेक कानूनविदों ने भी इस पर सख्त आपत्ति जताई है। इसके अमल में आने के बाद किसी भी नेता का राजनीतिक करियर खत्म किया जा सकता है। हमारे देश में दहेज विरोधी, बलात्कार व छेड़छाड़ विरोधी उद्देश्यपूर्ण कानून भी दुरुपयोग के कारण लगातार सुर्खियां बटोरते रहे हैं। इस कानून से तो लोकतंत्र को ही समाप्त कर दिया जाएगा। सरकार हमारे मूल लोकतांत्रिक अधिकारों को चोट न पहुंचा सके, इसके लिए जनता को भी जागरूक होना पड़ेगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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