Hindi Newsओपिनियन Hindustan Opinion Column 10 October 2025
काश! यह दुस्साहस देश को जगा पाए

काश! यह दुस्साहस देश को जगा पाए

संक्षेप: जूता चलाने वाले ने जब अपना काम कर दिया, तब जिन पर जूता फेंका गया था, उन्होंने जूते को उसकी जगह दिखाकर, अपूर्व संयम दिखाते हुए अपना सामान्य काम शुरू कर दिया। हमारे प्रधान न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई…

Thu, 9 Oct 2025 10:59 PMHindustan लाइव हिन्दुस्तान
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कुमार प्रशांत,गांधीवादी चिंतक

जूता चलाने वाले ने जब अपना काम कर दिया, तब जिन पर जूता फेंका गया था, उन्होंने जूते को उसकी जगह दिखाकर, अपूर्व संयम दिखाते हुए अपना सामान्य काम शुरू कर दिया। हमारे प्रधान न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई ने ऐसा करके हम सबका सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। प्रधान न्यायाधीश का यह स्थिरचित्त व्यवहार स्वप्नवत लगता है।

गुलिवर को लिलिपुट में भी ऐसे ‘छोटे’ लोग नहीं मिले होंगे, जैसे हमें मिले हैं। छोटा या नाटा होने और ‘क्षुद्र’ होने में बहुत बड़ा फर्क है। जिस फर्क को इन दिनों जुमलेबाजी से ढकने की चातुरी दिखाई जा रही है। लेकिन छद्म भी इतना चरित्र शून्य नहीं होता है कि बहुत वक्त तक छद्म चलने दे। देखिए न, आज एक जूते ने उसे तार-तार कर दिया है। आज से आधी शती पहले, 1973 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जो कहा था, वह आज के तंत्र से ऐसे चिपकता है, जैसे इसके लिए कल ही कहा गया हो : ‘देश के राजनीतिक नेतृत्व की नैतिक हैसियत जब एकदम से बिखर जाती है, तब सभी स्तरों पर अनगिनत बीमारियां पैदा हो जाती हैं।’ इसीलिए सारे देश को क्षुद्रता का डेंगू हुआ है। क्यों? क्योंकि आज के राजनीतिक वर्ग की नैतिक हैसियत एकदम बिखर गई है।

यह जूता किसी दलित पर नहीं फेंका गया है, जिस पर फेंका गया, वह संयोग से दलित है। सच यह है कि यह असहमति पर फेंका गया वह जूता है, जो सत्ता में बैठे लोग दशकों से लगातार फेंकते आ रहे हैं। घृणा इनके दर्शन की संजीवनी बूटी है। गवई साहब देश के प्रधान न्यायाधीश हैं। सभी कह रहे हैं, लिख रहे हैं कि वह दलित हैं। कोई यह क्यों नहीं कह रहा है कि न न्याय की कोई जाति होती है, न न्यायाधीश की? जब दिल और दिमाग से जाति-धर्म-संप्रदाय-लिंग-भाषा-प्रांत की लकीरें मिट जाती हैं, तब न्याय का ककहरा लिखने की शुरुआत होती है। इसलिए हमें कहना चाहिए कि गवई साहब न दलित हैं, न सवर्ण हैं, वह हमारी न्यायपालिका के सर्वोच्च न्यायमूर्ति हैं। हम इतना ही जानते हैं और उनकी योग्यता का मान करते हैं। हम संपूर्ण न्यायपालिका को ऐसे ही देखना चाहते हैं। हमारी चाह आप जानना चाहें, तो वह यह है कि सारा देश, संसार के सारे इंसान ऐसे ही हों; न हों तो ऐसे ही बनें, और उन्हें ऐसा बनाने में हम सब अपने मन-प्राणों का पूरा बल लगाएं।

हमें गहरा खेद है कि जिसका जूता था, उस वकील के पास अब वह जूता भी नहीं रहा। एक वही जूताग्रस्त मानसिकता तो थी उन जैसों के पास! पिछले कुछ सालों में इस तंत्र ने देश के हर नागरिक के हाथ में यही मानसिकता तो थमाई है कि अपना जूता दूसरों पर फेंको! बात पुरानी है, पर एकदम खरी है कि तुम जिनके साथ रहते हो, ठीक उनके जैसे होते चले जाते हो।

न्यायमूर्ति गवई ने प्रधान न्यायाधीश बनते ही कहा था कि वह डॉक्टर भीमराव आंबेडकर को माथे पर धरकर चलते हैं। हमने कोई ऐतराज नहीं किया। हालांकि, होना तो यह चाहिए कि उनके व दूसरे किसी भी न्यायमूर्ति के माथे पर संविधान ही हो- न गांधी हों और न आंबेडकर! किसी भी मुकदमे के दौरान फैसलों से इतर हमारे न्यायाधीश जो टिप्पणियां करते हैं, वे बहुत मतलब की नहीं होती हैं। विष्णु की मूर्ति के संदर्भ में हमारे सर्वोच्च न्यायमूर्ति की वह टिप्पणी भी न जरूरी थी, न निर्दोष थी। हमारी न्यायपालिका आज भी ऐसे ही चल रही है, जैसे देश में कुछ भी असामान्य नहीं है। जिस संविधान और लोकतंत्र की वजह से न्यायपालिका का अस्तित्व है, उस पर रोज-रोज हमले हो रहे हैं, यह हमें दिखाई देता है, मगर अदालतों को नहीं।

सांविधानिक महत्व के मुद्दों को, नागरिक स्वतंत्रता के सवालों को प्राथमिकता के आधार पर सुना जाए और न्यायपालिका को जो भी कहना हो, वह स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, ऐसा नहीं हो रहा है। ऐसा रवैया संविधान को मजबूत नहीं बनाता है, बाबा साहब भीमराव आंबेडकर को जिंदा नहीं करता है। संविधान ने न्यायपालिका को यह जिम्मेदारी दी है तथा यही उसके होने की सार्थकता भी है कि वह लोकतंत्र के साथ खड़ा रहे। आज के दौर में यह सबसे आसान काम है। आसान इसलिए कि आपके पास एक किताब है, जिसे आंबेडकर का लिखा संविधान कहते हैं। बस उस किताब को खोलिए और उसके आधार पर सही या गलत का फैसला कीजिए। न एक शब्द बदलना है आपको, न कुछ अलग या नया लिखना है।

आप वह मत करिए, जो आपके कमजोर प्रतिनिधियों ने पहले किया है। संविधान ने नहीं कहा है कि आपको संतुलन साधना है; कि आपको बीच का रास्ता निकालना है। सत्य या न्याय संतुलन से नहीं, संविधान के पालन से सिद्ध होता है। हमारे एक पूर्व न्यायाधीश ने हाल ही में शायद अपना एक पहलू ढकने के लिए एक बौद्धिक तीर चलाया था- हमारा संविधान नहीं कहता है कि हमारे जजों की निजी आस्थाएं नहीं होनी चाहिए। हां, हमारे संविधान ने ऐसा नहीं कहा है, लेकिन संविधान ने साफ शब्दों में कहा है कि आपकी निजी आस्था की छाया भी आपके फैसलों पर नहीं पड़नी चाहिए। यह आसान नहीं है, तो जज बनाना इतना आसान कहां है! जिस तरह सड़क पर चलता हर ऐरा-गैरा जज नहीं बन सकता, ठीक उसी तरह बड़ी शिक्षा पाकर या विदेशों से डिग्री लाकर या किसी पूर्व जज का परिजन होने से कोई जज नहीं बन जाता। जज की कुर्सी पर बैठने से भी लोग जज नहीं बन जाते, यह योग्यता और पात्रता संविधान के साथ खड़े होने की आपकी हिम्मत से आती है।

यह याद रखना चाहिए कि आपातकाल में पांच जज थे, जिनमें से चार ने संविधान को रद्दी की टोकरी में फेंककर, सरकार की खैरख्वाही की थी। भारतीय न्यायपालिका का वह दाग आज तक नहीं धुला है। किसी सरकार के पक्ष या विपक्ष में फैसला देने की बात नहीं है, जो लिखा हुआ संविधान देश की जनता ने आपको सौंपा है, उसका पालन करने की बात है।

जूता चला, यह बहुत बुरा हुआ। लेकिन यही जूता वरदान बन जाएगा, यदि इसने हमारी न्यायपालिका को नींद से जगा दिया। जूता चलाने की असहिष्णुता जिसने समाज का स्वभाव बना दिया है, वह अपराधी पकड़ा जाए, इसके लिए सन्नद्ध व प्रतिबद्ध न्यायपालिका अपनी कमर सीधी कर खड़ी हो, तो जूते का क्या, वह फिर से पांव में पहुंच जाएगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)