
शहरी प्रबंधन की नाकामी से लगते जाम
संक्षेप: भारत के प्रमुख शहर दुनिया के सबसे धीमे शहरों में शुमार किए जाने लगे हैं। यहां शहरी लोग ट्रैफिक जाम में ही सालाना सैकड़ों घंटे गंवा देते हैं। अगर जाम की समस्या न होती, तो वे इस समय का उपयोग दूसरे काम करने, आराम करने या परिवार के साथ बिताने में…
भारत के प्रमुख शहर दुनिया के सबसे धीमे शहरों में शुमार किए जाने लगे हैं। यहां शहरी लोग ट्रैफिक जाम में ही सालाना सैकड़ों घंटे गंवा देते हैं। अगर जाम की समस्या न होती, तो वे इस समय का उपयोग दूसरे काम करने, आराम करने या परिवार के साथ बिताने में इस्तेमाल कर सकते थे। अधिक से अधिक सड़कें बनने के बावजूद, ट्रैफिक जाम लंबा और जानलेवा होता जा रहा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि देश में कार रखने वाले अभिजात वर्ग की संख्या तेजी से बढ़ी है। भारत में प्रति 1000 लोगों पर 34 कारें हैं, जो वैश्विक स्तर पर तो कम है, लेकिन तेजी से बढ़ रही है। शहरी सड़कों पर कुछ खास लोगों का दबदबा बढ़ता जा रहा है, जबकि सार्वजनिक परिवहन पिछड़ रहे हैं।
सर्वेक्षणों के आंकड़े बताते हैं कि भारतीय शहरों में यात्रा के समय में जरा भी सुधार नहीं हुआ है। कोलकाता में अब भी पिछले पांच सालों से सबसे लंबा औसत यात्रा समय है। दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु में भी ज्यादा बदलाव नहीं आया है। आंकड़े भी यही कहते हैं। टॉमटॉम के ‘2024 के ट्रैफिक इंडेक्स’ में कोलकाता और बेंगलुरु को दुनिया के सबसे खराब यातायात वाले शहरों में शामिल किया गया है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई भी पीछे नहीं हैं। हैदराबाद जैसी जगहों पर भी, जिन्हें लंबे समय से अपेक्षाकृत कम यातायात वाला माना जाता था, हालात बिगड़ रहे हैं। बेंगलुरु के लोग सालाना दो कार्य सप्ताह का वक्त भीड़भाड़ के कारण गंवा देते हैं, तो मुंबई वाले करीब 13 कार्य दिवस।
ट्रैफिक संकट स्वास्थ्य आपातकाल जैसा भी है। यहां तक कि जिन शहरों की हवा कभी साफ मानी जाती थी, वहां भी अब प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या बढ़ गई है। द लैंसेट प्लैनेटरी हेल्थ में प्रकाशित पहले बहु-शहरी अध्ययन से वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले घातक प्रभावों का पता चलता है। जहां ज्यादा प्रदूषण है, वहां होनेवाली मौतों का अनुपात भी ज्यादा है। दिल्ली में सालाना कुल मौतों का लगभग 12 प्रतिशत मौतें वायु प्रदूषण से होती हैं। बेंगलुरु में प्रदूषण का स्तर हालांकि कम मापा गया, फिर भी इससे होनेवाली मौतों का प्रतिशत 4.8 रहा। जबकि बेंगलुरु के निवासियों को दिल्ली वालों द्वारा झेले जा रहे वायु प्रदूषण का केवल 30 प्रतिशत ही झेलना पड़ता है। यहां यह भी बता दें कि यह सिर्फ मेट्रो की समस्या नहीं है। छोटे शहर भी तेजी से इस राह पर चल रहे हैं। जयपुर के यात्रियों को 2024 में यातायात जाम के कारण 82 घंटे का नुकसान हुआ। हालांकि, लोगों को इसका असली नुकसान दिखाई नहीं देता। वह है- समय की बर्बादी, जहरीली हवा और बढ़ता तनाव।
श्रुति कुमारी, छात्रा
नागरिक अनुशासन की कमी जिम्मेदार
अपने यहां शहरों में जिस तरह से जाम की समस्या विकराल होती जा रही है, उसका तुरंत समाधान नहीं हुआ, तो ये शहर ही ठप पड़ सकते हैं। दुर्भाग्य से इस समस्या को बढ़ाने में कुछ हद तक हम आम लोगों का भी योगदान है। दरअसल, जाम से बचने के लिए जो सुझाव दिए जाते रहे हैं, उनमें सबसे प्रमुख है कि लोग बड़े निजी वाहन रखें ही नहीं, बल्कि इसकी जगह वे सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करें। यह बताता है कि सड़कों पर गाड़ियों का बोझ हमने कितना बढ़ा दिया है। नागरिक अनुशासन की कमी का आलम यह है कि फुटपाथों पर मोटरसाइकिल चलाने तक से हम बाज नहीं आते। एक अध्ययन के मुताबिक, शहरों में सड़कों का लगभग 80 प्रतिशत हिस्से पर निजी वाहन काबिज हैं, जिनमें मुश्किल से 20 प्रतिशत यात्री ही सफर कर पाते हैं। दूसरी ओर 20 प्रतिशत सड़क पर 70 प्रतिशत से अधिक यात्रियों को चलना पड़ता है। समाधान के तौर पर कहा जा रहा है कि शहरों में निजी वाहनों का प्रवेश ही प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। दुनिया के कई अहम शहरों में यह व्यवस्था लागू है। लेकिन भारत समेत अनेक देशों में इस पर कोई सीमा नहीं है।
एक अहम उपाय के तौर पर पुराने जमाने के क्रांतिकारी विचार सुझाए जा रहे हैं। यह है, यातायात पर शुल्क लगाना। स्थानीय सरकारों ने सड़कें चौड़ी करने, फ्लाईओवर बनाने और रास्ते बदलने की कोशिशें की हैं, पर ये सब कारगर नहीं रहे। शहरों को ठप होने से बचाने के लिए भीड़भाड़ शुल्क जैसे बुनियादी उपाय कारगर हो सकते हैं। कुछ शहर भीड़भाड़ के मूल्य निर्धारण पर विचार भी करने लगे हैं। भारत के आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने 2013 में ही यह विचार प्रस्तुत किया था। लेकिन किसी भी शहर ने इसे लागू नहीं किया। इसके बजाय, ज्यादातर शहरों ने ज्यादा सड़कें, ज्यादा फ्लाईओवर और ज्यादा भीड़भाड़ को प्राथमिकता दी है। इसका नतीजा यह निकला है कि सड़कों पर गाड़ियों की बेहिसाब संख्या दिखने लगी है। हमें यह समझना होगा कि अगर सड़क पर जगह सीमित है, तो उसका सही व सुसंगत इस्तेमाल किया जाना चाहिए। सार्वजनिक परिवहन पर हमें भरोसा करना ही चाहिए, क्योंकि इससे न सिर्फ सड़कों का बोझ कम होता है, बल्कि पर्यावरण की रक्षा भी होती है।
कुल मिलाकर, हाल में दिखी जाम का यही संदेश है कि हमारा समय और हमारे शहर की हवा, दोनों कीमती हैं। इसका हमें हर हाल में ध्यान रखना भी चाहिए। वैसे भी, जब हम विकसित भारत की सपना देख रहे हैं, तो यह जरूरी है कि हमारा देश स्वस्थ हो, और सेहत की सुरक्षा तभी हो सकेगी, जब सड़कों पर उत्सर्जन कम हो।
दिव्या, गृहिणी

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