सिनेमा हॉल की शक्ल ही नहीं देखी
मैं 2005 में वीरेंद्र कोच साहब के अखाडे़ में गया था। वहां मेरा सेलेक्शन हुआ। वहां मुझे मौका मिला कि मैं पहलवानी में और अच्छा करूं। उनका अखाड़ा दिल्ली के पास ही छारा गांव में है। वहीं मैंने मैट पर...
मैं 2005 में वीरेंद्र कोच साहब के अखाडे़ में गया था। वहां मेरा सेलेक्शन हुआ। वहां मुझे मौका मिला कि मैं पहलवानी में और अच्छा करूं। उनका अखाड़ा दिल्ली के पास ही छारा गांव में है। वहीं मैंने मैट पर प्रैक्टिस शुरू की। उसके पहले हम गांव में मिट्टी में कुश्ती लड़ा करते थे। उनके पास मैं करीब तीन साल रहा। वह मुझसे लगातार कहा करते कि तुम अच्छा कर सकते हो। मेरे गांव के ही एक और पहलवान हैं नरेंद्र पूनिया। मेरे बड़े भाई जैसे हैं। उन्हीं के साथ मैं पहली बार छत्रसाल स्टेडियम गया था। यह 2008 की बात है। अंतरराष्ट्रीय पहलवानों में मैं शुरू से ही योगी भाई (योगेश्वर दत्त) को फॉलो करता था। मैं हमेशा सोचता कि मुझे उनके जैसा ही पहलवान बनना है। छत्रसाल स्टेडियम में योगी भाई और नरेंद्र भाई साथ में रहते थे। नरेंद्र भाई ने मुझे योगी भाई से मिलवाया और बताया कि मैं भी उनके गांव का हूं और उनके भाई जैसा हूं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि जिस पहलवान के बारे में मैं सोचता था कि मुझे उनके जैसा बनना है, मुझे उन्हीं के पास जाने का मौका मिल जाएगा। इस बात को लेकर मैं खुद को बहुत ‘लकी’ मानता हूं कि मैं जिसे अपना आइडियल मानता था, उसी के पास ट्रेनिंग करने के लिए गया। वहीं से यह आत्मविश्वास आया कि हां, मैं अच्छा कर सकता हूं। छत्रसाल में रहने के लिए ट्रायल देनी पड़ती थी। रामफल कोच थे हमारे, जो योगेश्वर भाई के गुरु हैं और अब तो मेरे भी गुरु हैं। उन्होंने ही कहा कि अगर आप यहां रहना चाहते हो, तो आ सकते हो। इसके बाद तो मैंने अपने आपको कुश्ती में झोंक ही दिया।
मैं वीरेंद्र साहब के अखाड़े से ही 2005 में नेशनल्स खेलने गया था। उसमें मेरा ब्रॉन्ज मेडल आया था। फिर मैं हरियाणा से नेशनल खेला। फिर दिल्ली से नेशनल खेलने छत्रसाल स्टेडियम गया। वहां पर मेरा गोल्ड आया। छत्रसाल स्टेडियम में बहुत सख्ती होती थी। ऐसा लगता था कि सेना में भर्ती हो गए हैं। वहां रुकना मेरे लिए एक बड़ा सपना था। छत्रसाल में देश के सारे बड़े पहलवान थे। सारे टॉप के पहलवान वहीं पर थे- योगेश्वर भाई, सुशील, प्रवीण, दीपक, सुमित। जब भी कहीं भारतीय टीम जाती, तो उसमें पांच-छह पहलवान छत्रसाल से ही होते। मुझे लग गया कि अब मैं सही जगह पहुंच गया हूं। वहां रहते हुए ही मैंने सब जूनियर, जूनियर खेला। वहां कई सारे मेडल जीते।
छत्रसाल स्टेडियम में सख्ती ऐसी थी कि पहलवानों को कुश्ती और आराम के अलावा कुछ सोचने-समझने का वक्त ही नहीं मिलता था। वैसे भी मेरा घूमने-फिरने का दिल नहीं करता था। पहले की तरह कोशिश यही रहती है कि ट्रेनिंग करने के बाद ‘रेस्ट’ करूं। ऐसा ख्याल न तो पहले कभी आया और न अब आता है कि सुबह ट्रेनिंग करके शाम को घूमने निकल जाऊं। पहले तो इतनी सख्ती थी कि कहीं आ-जा भी नहीं सकते थे। फोन नहीं होता था। रेडियो-टीवी कुछ नहीं होता था। अब फोन तो है, लेकिन अब भी मेरा मन नहीं करता कि यहां रहकर मैं किसी और चीज में अपना समय खराब करूं। मैं आज तक सिनेमा हॉल गया ही नहीं। कभी किसी फिल्म की बहुत तारीफ सुनी, तो उसे अपने कमरे में टीवी पर ही देख लेता हूं। मैंने सिनेमा हॉल की शक्ल ही नहीं देखी।
2010 में मैं पहली बार कैडेट्स की एशियन चैंपियनशिप खेलने के लिए गया। वहां जाते वक्त हवाई जहाज में एक व्यक्ति से हुई मुलाकात मुझे हमेशा याद आती है। मैं पहली बार हवाई जहाज में बैठा था। उस वक्त मुझे अपना वजन कम करना था। मेरे साथ में जो आदमी था, वह भी हरियाणा से ही था। सफर के दौरान उसने देखा कि मैं कुछ खा नहीं रहा हूं। आखिर उसने मुझसे पूछ ही लिया कि आप कुछ खा क्यों नहीं रहे? फिर मैंने उसे बताया कि मुझे अपना वजन ‘मेंटेन’ रखना है, क्योंकि परसों मेरी बाउट है। ज्यादा खा लूंगा, तो वजन बढ़ने का खतरा रहेगा। वह कहने लगे कि अरे, ऐसे तो आप भूखे मर जाएंगे, कॉफी तो पीजिए कम से कम। बल्कि उन्होंने ही मेरे लिए कॉफी बनाई भी। 50 किलो की कैटेगरी में मैंने उस प्रतिस्पद्र्धा में गोल्ड मेडल जीता था। अगले साल 2011 में भी मैंने कैडेट्स की एशियन चैंपियनशिप का गोल्ड मेडल जीता। 2011 में मैंने 50 की बजाय 54 किलो कैटेगरी में बाउट लड़े थे। 2012 में एशियन चैंपियनशिप जूनियर में मेरा सिल्वर मेडल आया। 2012 तक मैं जूनियर ‘एज-ग्रुप’ में ही कुश्ती लड़ता था। उसके अगले साल, यानी 2013 से मैंने सीनियर एज ग्रुप में कुश्ती लड़ना शुरू किया और ईश्वर की कृपा से मेरी शुरुआत शानदार रही। (जारी...)