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मुझे भेजने के लिए पापा ने बेचे मवेशी

मेरे पुरखों ने पहलवानी की थी। मेरे परदादा को लिखने-पढ़ने का भी शौक था। पापा बताते हैं कि परदादा की लिखी कुछ ऐसी रचनाएं हैं, जिनको गाने में जीभ नहीं हिलती थी। कुछ ऐसी चीजें थीं, जो दोनों होंठों के आपसी...

मुझे भेजने के लिए पापा ने बेचे मवेशी
पूनम यादव, महिला भारोत्तोलकSun, 06 May 2018 12:52 AM
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मेरे पुरखों ने पहलवानी की थी। मेरे परदादा को लिखने-पढ़ने का भी शौक था। पापा बताते हैं कि परदादा की लिखी कुछ ऐसी रचनाएं हैं, जिनको गाने में जीभ नहीं हिलती थी। कुछ ऐसी चीजें थीं, जो दोनों होंठों के आपसी स्पर्श के बिना गाई जाती थीं, मगर आवाज पूरी निकलती थी। वह ज्यादातर भजन लिखते थे। उन्हें बरसाती खलीफा के नाम से लोग जानते थे। पापा बताते हैं कि हमारी परदादी काफी लंबी थीं। अंग्रेजों के जमाने में एक बार वह मटकी में दूध लेकर जा रही थीं। किसी अंग्रेज ने उनकी मटकी में हाथ लगा दिया। दादी ने उसे उल्टे हाथ से इतना जोर का चांटा मारा कि वह अंग्रेज वहीं गिर गया। परदादी को इस बात का गुस्सा था कि अंग्रेज ने हाथ डालकर उनका दूध अशुद्ध कर दिया। मेरे दादा लल्लन यादव भी इलाके के अच्छे पहलवानों में थे। मेरे पैदा होने से काफी पहले वह चल बसे थे। उसके बाद परिवार की सारी जिम्मेदारी पापा ने संभाली। 
हम बहनों को खेल से जोड़ने का इरादा पापा का ही था। साल 2000 के सिडनी ओलंपिक्स में कर्णम मल्लेशवरी ने भारत के लिए वेटलिफ्टिंग में ब्रॉन्ज मेडल जीता था। पापा ने उन्हें टीवी पर ही देखा। हम कई बहनें थीं ही, तो पापा ने तय किया कि वह हमें भी खेलकूद में अपना नाम रोशन करने का मौका देंगे। उन्हें यह भी लगता था कि वेटलिफ्टिंग का खेल पोशाक के लिहाज से अच्छा है। उसमें पूरे कपड़े पहनकर लड़कियां उतरती हैं। लेकिन पापा को तब यह नहीं पता था कि इस खेल में पैसे कितने खर्च होते हैं। इस बीच उन्होंने मेरी दो बहनों की शादी कर दी। समय धीरे-धीरे बीत रहा था। साल 2008-09 के आसपास की बात है। पापा बीएसएनएल में ‘डेली बेसिस’ पर ड्यूटी करते थे। सो पैसे की समस्या तो हमेशा ही बनी रही। 
साल 2010 में जाकर मेरी बड़ी बहन शशि ने प्रोफेशनल प्रैक्टिस शुरू की। एक साल बाद 2011 में मैंने भी शुरू कर दी। और कुछ दिनों बाद मेरी छोटी बहन पूजा यादव ने भी इसी क्षेत्र को अपना लिया। हम बहनें शुरुआती दिनों में जहां-जहां जाते, मेडल जीतते थे। इससे पापा को हिम्मत मिलती थी। हम लोगों के साथ-साथ उनका उत्साह भी बढ़ता चला गया। उन्हें बस यह लगता था कि हमें ‘डाइट’ अच्छी मिलती रहे। पापा को कई बार लोगों से पैसे उधार लेने पड़ते थे। पापा की दोस्ती कुछ आर्मी वालों से भी थी। वे पापा को कैंटीन से लाकर हम लोगों की जरूरत की चीजें दिया करते थे। पापा के पास जब पैसा होता था, तब वह उन्हें उन चीजों के पैसे दिया करते थे। पापा को बस यही लगता था कि हमें किसी चीज की कमी महसूस न हो। उनका दिल इतना बड़ा था कि जब वह हॉस्टल में आते थे, तो लाख तंगी के बाद भी मेरे साथ के खिलाड़ियों को भी थोड़े-बहुत पैसे देकर जाते थे। मैं बचपन से बहुत जिद्दी थी, इसलिए एकाध बार पापा से पिटाई भी खानी पड़ी। ऐसी कोई बदमाशी नहीं की थी, बस पापा ने कुछ काम कहा था, जो मैंने नहीं किया। पापा ने गुस्से में मेरी पिटाई कर दी थी। दरअसल, घर का सारा कामकाज मैं ही करती थी। मेरे रहने से मम्मी को बहुत मदद मिलती थी। मैं उनका हर काम में हाथ बंटाती थी। यहां तक कि जब मेरे स्पोट्र्स हॉस्टल जाने की बात हुई, तो मम्मी ने कहा कि इसको मत भेजो, यह तो घर का सारा काम करती है। लेकिन पापा ने मुझे भेजा। मेरे हॉस्टल जाने को लेकर पापा-मम्मी में बहस भी हुई। मम्मी मुझे भेजने को राजी नहीं थीं और पापा अड़े हुए थे। खैर, आखिर में मुझे हॉस्टल जाने की इजाजत मिल गई। खेलों का जुनून ही था कि मैंने घर छोड़ा, वरना मुझे मम्मी की मदद करने में अच्छा लगता था। उसके बाद भी हॉस्टल या अब पटियाला से या कहीं और से भी जब मैं घर जाती हूं, तो कामकाज में मम्मी का पूरा हाथ बंटाती हूं। 
फिर 2014 का साल आया। ग्लासगो में कॉमनवेल्थ खेल आयोजित हो रहे थे। मेरा सेलेक्शन हो गया। मुझे वहां जाना था। पैसों की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई थी। पापा को तब बहुत दुख हुआ था, जब मैं नेशनल्स नहीं खेल पाई थी। फिर यह तो उससे बहुत बड़ा प्लेटफॉर्म था। पापा ने यह तय कर लिया कि मुझे ग्लासगो भेजेंगे। उन्होंने घर के मवेशियों को बेच दिया। उससे मिले पैसे से मैं ग्लासगो गई। वहां मैंने ब्रॉन्ज मेडल जीता था। इसके बाद से मेरे करियर में बदलाव आया। मैं विदेश में वेटलिफ्टिंग प्रतियोगिताओं में देश को रिप्रेजेंट करने लगी। सबसे ज्यादा खुशी मेरे पापा को हुई। मैं जहां भी जाती हूं, वहां से उनके लिए टी-शर्ट लाती हूं। वह उसे पहनकर पूरे गांव में घूमा करते हैं।
जारी...

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