चोट न लगने का मिला था फायदा
मुझे बॉक्सिंग का चस्का तब लगा, जब मैं 16-17 साल की हो गई थी। उसके पीछे भी टीवी का बड़ा रोल है। मैं टीवी पर ‘ऐक्शन’ वाली चीजें ज्यादा देखा करती थी। टीवी पर बॉक्सिंग करते मोहम्मद अली को...
मुझे बॉक्सिंग का चस्का तब लगा, जब मैं 16-17 साल की हो गई थी। उसके पीछे भी टीवी का बड़ा रोल है। मैं टीवी पर ‘ऐक्शन’ वाली चीजें ज्यादा देखा करती थी। टीवी पर बॉक्सिंग करते मोहम्मद अली को देखा। उनको देखकर प्रेरणा मिली कि मुझे बॉक्सिंग ही करनी है। मैं खेलती पहले भी थी, लेकिन इतनी इंस्पायर नहीं थी। यह ऊपर वाले का आशीर्वाद था कि जब मैंने बॉक्सिंग सीखनी शुरू की, तो मुझे चोट नहीं लगी। यह मैं इसलिए बता रही हूं, क्योंकि चोट लगने पर घरवाले परेशान हो जाते हैं। मैं शुरू से ही लड़कों के साथ फाइट करती थी। मेरी वेट कैटेगरी में लड़कियां नहीं थीं, इसलिए मैं जूनियर बॉक्सर्स के साथ फाइट करती थी। अपने ‘स्पायरिंग पार्टनर’ के साथ जमकर मेहनत करती थी। शायद इसी वजह से मुझमें इंप्रूवमेंट जल्दी आए। लड़कों के साथ ट्रेनिंग करके बहुत कुछ सीखने को मिलार्। ंरग में मार भी खाती थी, लेकिन ऐसा नहीं है कि रिंग में कोई बहुत चोट लग गई हो। आज मैं सोचती हूं कि उस वक्त अगर मैंने लड़कियों के साथ प्रैक्टिस की होती, तो मैं यह सब हासिल नहीं कर पाती।
मेरे बचपन में स्कूल का एक दोस्त था अशोक। वह ऐसा वक्त था कि स्कूल में लड़के-लड़कियों में ज्यादा बातें नहीं होती थीं। इसलिए हम लोगों की तब ज्यादा बातें नहीं होती थीं। उसे पता था कि मैं खेल-कूद में अच्छा करती हूं, तो वह मुझे बहुत एप्रीसिएट करता था। वह हमेशा कहता था कि जो काम तुम कर सकती हो, वह कोई और नहीं कर सकता। मेरे और भी बहुत सारे ऐसे दोस्त हैं, जो मेरे ‘शेड्यूल’ को समझते हैं, इसलिए मुझे ‘डिस्टर्ब’ नहीं करते हैं। कुछ अर्जेन्ट होता है, तभी वे मुझे फोन करते हैं। हां, कोई खास मौका होता है, तो वे सारे के सारे मुझे मैसेज जरूर करते हैं।
बॉक्सिंग सीखने के दो-तीन साल में ही अच्छे नतीजे आने लगे। इससे मेरा हौसला बढ़ा। 2001 में मैंने नेशनल्स जीता। उसी साल मैं वल्र्ड चैंपियनशिप खेलने अमेरिका गई। वहां फाइनल में तुर्की की एक बॉक्सर ने मुझे हरा दिया। मुझे सिल्वर मेडल मिला। वह मेरा पहला वल्र्ड चैंंपियनशिप मेडल था। मैं 48 किलोग्राम कैटेगरी में थी। तब बड़ी प्रतियोगिताओं का इतना अनुभव भी नहीं था। अगले साल तुर्की में वल्र्ड चैंपियनशिप में मैंने पहली बार 45 किलोग्राम वेट कैटेगरी में गोल्ड मेडल जीता। इसके बाद से ही लोग मेरा खेल नोटिस करने लगे। घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में मुझे लगातार जीत मिलने लगी। 2004 में मैंने वूमेंस वल्र्ड कप में भी गोल्ड मेडल जीता। 2005 और 2006 में भी मैंने वल्र्ड चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीता। इन सबकी बदौलत ही हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया। मुझे बहुत सी ऐसी लड़कियां मिलने लगीं, जो कहती थीं कि उन्हें जिंदगी में कुछ अलग करने की प्रेरणा मुझसे मिली। यह बात मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकती हूं।
लेकिन जिंदगी का सबसे बड़ा बदलाव आया 2012 में। 2012 में लंदन ओलंपिक्स था। लंदन ओलंपिक्स में पहली बार महिला बॉक्सिंग को शामिल किया गया। ओलंपिक मेडल जीतने का सपना मेरी आंखों में कब से पल रहा था। मुझे लगा कि अब उस सपने को पूरा करने का वक्त आ गया है। मैंने जी-तोड़ मेहनत की। ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया। भारत की तरफ से ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने वाली मैं इकलौती महिला बॉक्सर थी। हालांकि एक परेशानी यह थी कि मैंने हमेशा 45 से लेकर 48 किलोग्राम वेट कैटेगरी में बाउट लड़े थे, जबकि 2012 ओलंपिक में मुझे 51 किलोग्राम कैटेगरी में लड़ना था। ऐसा इसलिए हुआ था, क्योंकि महिलाओं के बॉक्सिंग मुकाबले के लिए सिर्फ तीन कैटेगरी रखी गई थी। बावजूद इसके मैंने हार नहीं मानी। अपनी रणनीति में थोड़ा बदलाव किया। उस समय भगवान से मैं यही दुआ करती थी कि बस इंजरी से दूर रहूं। 2012 ओलंपिक्स के लिए मैंने अपनी ट्रेनिंग के लिए लीवरपूल को चुना। मैं लंदन ओलंपिक्स की तैयारी लीवरपूल में रहकर करती थी, क्योंकि वहां मैं लड़कों के साथ ट्रेनिंग कर सकती थी। ओलंपिक्स में मेरे कोच को लेकर भी काफी विवाद हुआ। वह मेरे साथ नहीं आ पाए। इसके अलावा भी छोटी-बड़ी परेशानियां मैंने झेलीं। ऐसा लग रहा था कि एक बड़े इम्तिहान से पहले भगवान छोटे-छोटे ‘टेस्ट’ ले रहा है। मैंने हालात का डटकर सामना किया। आखिरकार वह दिन भी आया, जब ओलंपिक खेलने का मेरा सपना पूरा हुआ। मैंने 5 अगस्त को पहली जीत के साथ अपने ओलंपिक सफर की शुरुआत की।
(जारी...)