कुश्ती छोड़ने का आया था ख्याल
मैनचेस्टर में 2002 में कॉमनवेल्थ गेम्स हुए, तो उसमें भारतीय दल के नाम फाइनल होने से छह दिन पहले मेरा नाम कट गया। उस वक्त मैं पूरी तैयारी कर रहा था कि मुझे कॉमनवेल्थ गेम्स में खेलना है। छह दिन पहले...
मैनचेस्टर में 2002 में कॉमनवेल्थ गेम्स हुए, तो उसमें भारतीय दल के नाम फाइनल होने से छह दिन पहले मेरा नाम कट गया। उस वक्त मैं पूरी तैयारी कर रहा था कि मुझे कॉमनवेल्थ गेम्स में खेलना है। छह दिन पहले पता चला कि मेरा नाम तो टीम में है ही नहीं। मैं अभी-अभी जूनियर से सीनियर में आया ही था। वह झटका बहुत जबर्दस्त था। झटका इसलिए कि उस समय उमा भारती खेल मंत्री थीं और उन्होंने कहा था कि जो खिलाड़ी जीतेगा, उसे 20 लाख रुपये मिलेंगे। मैं जी-तोड़ मेहनत कर रहा था कि अगर यह इनामी रकम मुझे मिल गई, तो मेरे परिवार की कई परेशानियां दूर हो जाएंगी। जीवन की गाड़ी थोड़ी पटरी पर आ जाएगी। परिवार को ‘सपोर्ट’ मिल जाएगा। लेकिन नाम कटने के बाद निराशा के दौर में भी मेरे साथ ऊपर वाले ने अच्छा किया। हमारे एक बहुत सीनियर पहलवान हैं उदयचंद जी, एक दिन वह मुझे मिले और मुझसे ही पूछने लगे कि वह कौन सा बच्चा है, जिसका नाम कॉमनवेल्थ गेम्स की टीम से कट गया है? मैंने उनके पैर छुए। मेरी आंखों से पानी गिर रहा था। मैं रो रहा था। मैंने उन्हें बताया कि मुझे बहुत काफी धक्का लगा है। मैंने कहा कि मैं इतना तगड़ा हूं, फिर भी मुझे नहीं भेज रहे हैं। उन्होंने कहा कि क्या पता, मालिक को आपके लिए कुछ और अच्छा करना हो? उस दिन जो सीख उन्होंने दी थी, वह अब भी मेरे साथ रहती है। जब भी मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ है कि मैं मायूस हूं, तो मैं यही सोचता हूं कि क्या पता, मालिक ने मेरे लिए कुछ और अच्छा सोचा होगा?
उस दिन मैंने भी मन बना लिया था कि अब ‘मैट’ की नहीं, बल्कि मिट्टी की कुश्ती लड़ा करूंगा। अखाड़े में मैं जितने 100-100 किलो के पहलवान थे, उनके साथ कुश्ती लड़ता था। ‘मैट’ वाली कुश्ती में भी मैं 105, 110 किलो के पहलवानों से खेल लेता था। उस दिन उदयचंद जी की बातों का सहारा लेकर मैं वापस मेहनत करने में जुट गया। अगले साल मैंने एशियन कुश्ती चैंपियनशिप में ब्रॉन्ज मेडल जीता। फिर कॉमनवेल्थ कुश्ती चैंपियनशिप में मैंने गोल्ड मेडल मारा। साल 2003 विश्व चैंपियनशिप में मामूली अंतर से हार गया। मैं चौथे नंबर पर था। अगले ही साल मैं एथेंस ओलंपिक के लिए चुना गया। वहां मेरा प्रदर्शन अच्छा नहीं था। वह मेरा पहला ओलंपिक था। मेरी रैंक अच्छी नहीं थी।
इसके बाद छोटी-बड़ी कामयाबियों के बीच 2008 का साल आया। बीजिंग ओलंपिक था। वहां मैं सुबह की कुश्ती हार गया था। उस हार के बाद मैंने जूते एक तरफ रख दिए थे। मुझे लगा कि अब यहां तो काम नहीं चलेगा। मेरे दिमाग में सब घूम रहा था कि मेरे ऊपर कितनी जिम्मेदारियां थीं। हर किसी को उम्मीद थी कि मैं जीतकर आऊंगा। घरवालों को भी उम्मीद थी। उस दिन एक बार फिर मेरे दिमाग में आया कि अब मैट की कुश्ती नहीं लड़ूंगा, बल्कि मिट्टी की कुश्ती लड़ेंगे और गांव के दंगलों में हिस्सा लेकर घर-परिवार चलाएंगे। फिर मैं जब एरिना में ऊपर बैठा, तो मुझे लगा कि जिन लोगों को मैंने हराया था, उनकी बाउट बड़ी अच्छी चल रही थी। गुरुजी बहुत परेशान थे। वह मुझे कुछ नहीं कह रहे थे, मगर उनके चेहरे पर परेशानी दिख रही थी। मैं मैट पर अपनी पूरी कोशिश कर चुका था। इसके बाद जैसे ही मुझे बताया गया कि मैं ‘रैपेशाज’ की वजह से वापस मुकाबले में आ गया हूं, मैंने तुरंत उसी जूते को पहना और अपने आप से कहा कि अब मौका नहीं देना है। उसके बाद बस फिर जुट गए। जिनसे हारे थे, उन्हें भी हराया। यूएसए के पहलवान को हराया, बेलारूस के पहलवान को हराया। कजाकिस्तान वाले पहलवान को तो बड़े जबर्दस्त मोमेंट पर हराया। हर कुश्ती के बाद गुरुजी टिप्स दे रहे थे। किस पहलवान पर कहां से हमला करना है, किसे कहां से पकड़ना है? उसके बाद मैंने अपनी बाउट जीत ली। बाउट को जीतने के बाद भी यह एहसास नहीं था कि बहुत बड़ा काम हो गया है। मुझे बस यह लग रहा था कि चलो, ओलंपिक मेडल आ गया। जो गुरुजी हमेशा कहते थे, वह काम मैंने कर दिया। उधर गुरुजी की खुशी का ठिकाना नहीं था। उनकी आंखों से लगातार आंसू गिर रहे थे। मैं ओलंपिक विलेज पहुंचा, तो वहां का नजारा ही बिल्कुल अलग था। मुझे तो यह भी नहीं पता था कि कौन मिलने आ रहा है, कौन नहीं मिलने आ रहा है? मैं जाकर सो गया। मैंने सोचा, इतने दिन से मेहनत कर रहे थे, अब आराम से सोया जाए। उसके बाद जब मैं इंडिया आया, तो यहां पर पता चला कि जो काम मैं कर आया हूं, वह बहुत बड़ा काम हो गया है। और उसके बाद तो मेरी दुनिया ही बदल गई।
(जारी...)