बचपन में डॉक्टर बनना चाहता था
मेरा जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ। गुजरात में राजकोट के पास एक छोटा सा गांव है चरखड़ी। हमारा जो उधास परिवार है, वह वहां का जमींदार हुआ करता था। हालांकि मेरा काफी बचपन राजकोट में बीता है। मेरे दादा...
मेरा जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ। गुजरात में राजकोट के पास एक छोटा सा गांव है चरखड़ी। हमारा जो उधास परिवार है, वह वहां का जमींदार हुआ करता था। हालांकि मेरा काफी बचपन राजकोट में बीता है। मेरे दादा उस जमाने में पूरे गांव में इकलौते और पहले ‘ग्रेजुएट’ थे। जमींदार परिवार से होने के बाद भी उन्हें पढ़ाई का बड़ा शौक था। उन्होंने उस जमाने में पूना फग्र्यूसन कॉलेज से जाकर बीए किया था। यह कोई 1902 की बात है। उन्हें भावनगर के महाराज ने मिलने के लिए बुलाया और कहा कि आप भावनगर के ‘एडमिनिस्ट्रेटर’ बन जाइए। ‘एडमिनिस्ट्रेटर’ यानी आज के समय का ‘कलेक्टर’। महाराज ने दादाजी से कहा कि आप पढ़े-लिखे हैं, जवान हैं... आप इस जिम्मेदारी को संभालिए। दादाजी ने यह जिम्मेदारी संभाल ली। बाद में जब भावनगर के महाराज ने दादाजी की ईमानदारी देखी, तो वह उनसे बहुत प्रभावित और खुश हुए। यह वह दौर था, जब राजा-महाराजा अपने ‘स्टेट’ में संगीतकारों, कलाकारों को बुलाया करते थे। उनकी कला का सम्मान करते थे। कलाकारों को भेंट में अच्छी-खासी रकम भी दिया करते थे। उन दिनों भावनगर महाराज ने एक नामी कलाकार अब्दुल करीम खां साहब को बुलाया था। वह बीन बजाते थे। उसे वीणा भी कहते हैं।
मेरे पिता अक्सर दादाजी के साथ भावनगर महाराज के दरबार में जाया करते थे। पिताजी ने अब्दुल करीम खां साहब को सुना, तो फरमाइश कर दी कि मुझे भी यह सीखना है। दादा ने अब्दुल करीम खां साहब से बड़ी गुजारिश की कि यह बच्चा सीखने की जिद कर रहा है, तो इसे सिखाइए। खां साहब ने पिताजी को समझाया भी कि आप जमींदारों के परिवार से हैं और संगीत की दुनिया अलग ही है। लेकिन तब तक संगीत पिताजी के दिमाग में घुस चुका था। उन्होंने फिर भी सीखने की इच्छा जाहिर की। तब खां साहब ने मेरे पिताजी को इसराज सिखाना शुरू किया। इसे दिलरुबा भी कहते हैं। इसी दौरान 1947 का वक्त आया। देश आजाद हुआ। राजा-महाराजा चले गए। जमींदारी प्रथा भी खत्म हो गई। तब परिवारवालों ने तय किया कि हमें कुछ करना चाहिए। मेरे पिताजी भी पढ़े-लिखे थे। उन्होंने बीए, एलएलबी किया था। पिताजी को जल्द ही सरकारी नौकरी मिल गई। पिताजी जब शाम को ऑफिस से लौटकर आते थे, तो अपने साज को लेकर जरूर बैठते थे। वह बाकायदा साज को ‘ट्यून’ करने के बाद काफी समय तक उसे बजाया करते थे। उन्हीं को सुनकर मेरे बड़े भाई मनहरजी और उनसे छोटे भाई निर्मल उधास की दिलचस्पी संगीत में जगी। मैं तीनों भाइयों में सबसे छोटा हूं। लेकिन मुझे याद है कि पिताजी को इसराज बजाते देखकर ही हम तीनों भाइयों में संगीत को लेकर जिज्ञासा हुई कि यह क्या साज है? कैसे बजता है? यहीं से मेरे परिवार में संगीत आया।
मेरी मां शौकिया तौर पर गाती थीं। उन दिनों जब आस-पड़ोस में कोई शादी-ब्याह का कार्यक्रम होता था, तो हर कोई मेरी मम्मी से कहता था कि वह गाना गाएं। पड़ोसी मम्मी से कहते थे कि वह पहले गाएं और फिर बाकी लोग उन्हें ‘फॉलो’ करेंगे। मेरी मम्मी गाती भी बहुत अच्छा थीं। बहुत सुरीली। इसके अलावा, हमारा संगीत से कोई रिश्ता नहीं, कोई घराना नहीं, कोई खानदान नहीं। फिर भी हम तीनों भाई संगीत से प्रभावित हुए। पिताजी को चूंकि खुद संगीत से काफी ज्यादा लगाव था, इसलिए उन्होंने हम तीनों भाइयों को खूब प्रेरित भी किया।
मुझे नहीं याद कि पिताजी ने कभी मुझे डांटा या मारा हो। वह इन चीजों में भरोसा ही नहीं करते थे। उनका यह स्वभाव भी शायद संगीत की वजह से था। उन्होंने हम तीनों भाइयों के दिमाग में एक बात बहुत ‘क्लियर’ करके रखी थी। वह बहुत साफ-साफ कहा करते थे कि यह बहुत खुशी की बात है कि आप तीनों भाइयों की संगीत में दिलचस्पी है। मुझे तो वह अक्सर ही कहा करते थे कि पंकज, तुम बहुत अच्छा गाते हो, इसको कभी भी छोड़ना मत। वह हमेशा एक बात कहते थे कि दुनिया में इंसान जो है, वह पढ़ाई-लिखाई के बिना जानवर के समान होता है। इसलिए पढ़ाई-लिखाई बहुत जरूरी है। किसी भी सूरत में, किसी भी हालत में आप लोग पढ़ाई नहीं छोड़ना। यही वजह है कि हम तीनों भाइयों ने संगीत के साथ-साथ कभी भी पढ़ाई से ‘कंप्रोमाइज’ नहीं किया। मेरे बड़े भाई मनहर उधास मैकेनिकल इंजीनियर हैं, और उनसे छोटे भाई निर्मल उधास ने आर्ट से ग्रेजुएट किया है। बचपन में मेरा मन डॉक्टर बनने का था। इसलिए मैंने साइंस लेकर पढ़ाई की। मैंने भी बीएससी किया। मुझे याद है कि पिताजी साफ-साफ कहा करते थे कि अगर आपको लगता है कि डॉक्टर बनना है, तो जरूर बनो, पर जरूरी नहीं कि आप डॉक्टर ही बनें। उन्होंने शायद मेरा भविष्य मुझसे पहले देख लिया था।
(जारी...)