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पिता के खत ने दिखाया ख्वाब

‘प्रिये, तुम उम्मीद न छोड़ना, मैं एक दिन जरूर आऊंगा। हम मिलेंगे। पता है, इन दिनों मैं अपने लिए भी काम कर रहा हूं, अपने लिए कमा रहा हूं। कुछ पैसे हुए, तो कुछ दिनों की छुट्टियां खरीदूंगा, तुम्हारे...

पिता के खत ने दिखाया ख्वाब
एलिजाबेथ केकले, वस्त्र निर्माता, समाजसेवी, लेखिकाSat, 08 Feb 2020 11:54 PM
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‘प्रिये, तुम उम्मीद न छोड़ना, मैं एक दिन जरूर आऊंगा। हम मिलेंगे। पता है, इन दिनों मैं अपने लिए भी काम कर रहा हूं, अपने लिए कमा रहा हूं। कुछ पैसे हुए, तो कुछ दिनों की छुट्टियां खरीदूंगा, तुम्हारे साथ कुछ खुशनुमा पल बिताऊंगा। मैं कोई व्यवसाय करने के बारे में भी सोच रहा हूं। ईश्वर हमारी जरूर मदद करेंगे, इस जमीन पर हम फिर एक-दूजे के करीब होंगे। मैंने तय कर लिया है, मैं ईश्वर से प्रार्थना करना नहीं छोड़ूंगा। ईश्वर हमें ऐसे मिला देंगे कि हम फिर कभी जुदा न होंगे। ओ मेरी प्यारी, जब हम मिलें, तो जन्नत हो। मेरी तमन्ना है, एलिजाबेथ एक अच्छी बच्ची बने। वह यह न सोचे कि मैं बंधुआ हूं, तो ईश्वर हमारे लिए कोई राह नहीं निकालेंगे। बहार के दिन आएंगे, जरूर आएंगे।’

यह खत करीब पौने दो सौ साल पहले अमेरिका में एक गुलाम पिता ने एक गुलाम मां को लिखा था, जो एक गुलाम बेटी एलिजाबेथ (1818-1907) के हाथ लग गया। किशोर हथेलियों पर वह खत एक नई सुनहरी दुनिया-सा खिल उठा था। रद्दी से होते कागज पर हल्की स्याही वाले ओझल-से होते अक्षर उम्मीदों के सितारों की तरह चमक रहे थे। पिता की उम्मीदों और प्यार ने उस बेटी को भरोसे से भर दिया। वह भावविभोर-सी उस खत को बार-बार पढ़ती रही। उन्हीं लम्हों में दिलोदिमाग ने मानो ठान लिया कि स्याह जिंदगी में रोशन दिन जरूर आएंगे।

वैसे भी एलिजाबेथ उन दिनों कुछ ज्यादा ही गमजदा थीं। उन्होंने पहली बार एक इंसान को बिकते देखा था। एक गुलाम खूबसूरत मासूम बच्चा, सात या आठ साल की उम्र रही होगी। उसे बहुत सजा-संवारकर खड़ा किया गया था और कुछ ही देर में उसका सौदा हो गया। उसकी गुलाम मां को पता नहीं था। जब पता लगा, तब वह शोर मचाने लगी। उसे बहकाया गया कि बच्चा घूम-फिरकर कल लौट आएगा। अब वह मां अपने बच्चे का इंतजार करने लगी, अपने मालिक से सुबह-शाम तकादा करती कि मेरा बच्चा कब लौटेगा? अमेरिका में मानव-सभ्यता का वह ऐसा दौर था, जब गुलामों को रोने या दुखी होने की भी इजाजत नहीं थी। जिसके गुलाम ज्यादा खुश दिखते थे, उसे उतना ही सभ्य नागरिक समझा जाता था। रोने या दुखी रहने वाले गुलामों पर उनके मालिक कहर बनकर टूटते थे। कायदा ही यही था, खुश दिखिए कि आपका मालिक आपके सामने है। उम्मीद हारकर अपने बच्चे के लिए बुक्के फाड़कर रोने वाली वह मां भी दंडित हुई थी। साफ कह दिया गया था, यह ड्रामा यहां नहीं चलेगा। गुलाम तो खरीदने-बेचने के लिए ही होते हैं। पैसे की जरूरत पड़ी, तो बेच दिया और सेवा की जरूरत पड़ेगी, तो खरीद लेंगे। एलिजाबेथ और बाकी सारे गुलाम बच्चे सहमे हुए थे, उनकी बारी भी आएगी। कभी वह भी जाएंगे, फिर कभी न लौटने के लिए।

ठीक वैसे ही जैसे गए हुए पिता नहीं लौटे। मां के मालिक अलग और पिता के मालिक अलग। मां अपने मालिक के साथ रह गईं, पिता अपने मालिक के साथ दूर शहर चले गए, जहां से बस उनकी चिट्ठियां आती रहीं। जब तक जिंदा रहे, उम्मीदों से सराबोर रहे कि अच्छे दिन बस अगले ही बरस आने वाले हैं, उन्हें कोई टाल या छीन नहीं सकता। लेकिन उनके तमाम खतों के बीच वह खास खत एलिजाबेथ को जितना बेचैन करता था, उतना ही प्रेरित भी।

खुशनुमा दिनों की उम्मीद ने ही उन्हें गर्व से भर रखा था। एक दिन आया, जब वह भी अपनी मां से जुदा हो गईं, हर पल आजादी के बारे में सोचती हुई। उस खत से उम्मीदें जगी थीं और उम्मीदों ने अत्याचार से मुकाबला सिखाया था। उनके मालिक ताकत से ही उन्हें झुका पाते थे। रोज नए दुख-दर्द से सामना होता था। जुल्म का ही नतीजा था, एक बच्चा भी जिंदगी में जुड़ गया। पहले खुद को बचाने की जंग थी, लेकिन अब बच्चे को बचाने की भी जद्दोजहद साथ लग गई। इस बीच एलिजाबेथ ने खुद को मजबूत किया और सिलाई-कढ़ाई में खुद को बेहद काबिल बना लिया। इस काबिलियत की वजह से ही उनकी पहचान का दायरा बढ़ा, तो पिता की वह चिट्ठी और उनकी उम्मीदें बार-बार उमड़ने लगीं।

और एक दिन वह भी आया, जब उन्होंने अपने वकील और नेता मालिक से कहा, ‘मुझे अपनी और अपने बेटे की आजादी खरीदनी है।’ मालिक ने एकबारगी मना कर दिया। मालिक की मौत के बाद ही उसकी पत्नी ने 1,200 डॉलर लेकर मां-बेटे को गुलामी की जंजीरों से आजाद किया। वह तरक्की की सीढ़ियां चढ़ती गईं। वह अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की पत्नी मेरी टॉड लिंकन की सबसे खास राजदार सहेली बन गईं। कुछ ही समय में पिता के ख्वाब और खत को ऐसी बेमिसाल कामयाबी नसीब हुई कि उन्होंने अपना इतिहास लिख दिया, जिसे दुनिया अब भी बड़े चाव से पढ़ती है।
(प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय)

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