डर के आगे निकल गई वह जलपरी
अपने यहां नदियां वैसे भी मां हैं और हुगली नदी तो साक्षात गंगा की धारा है। उस बच्ची को जन्म देने वाली मां तो करीब तीन वर्ष पहले ही दुनिया छोड़ गई थी, वह जरा भी याद नहीं थी, पर गंगा मैया की गोद शायद...
आज सौ में सत्तर से ज्यादा महिलाएं साक्षर हो चली हैं, पर वह दौर था, जब सौ में महज सात महिलाओं के लिए काला अक्षर भैंस बराबर नहीं था। महिलाओं को चौखट के पीछे ही रखा जाता था, वे कभी-कभार जरूरत पड़ने पर मेले-बाजार निकल गईं, तो बहुत है। देश के पोर-पोर में अंग्रेजों भारत छोड़ो की धुन सवार थी। द्वितीय विश्व युद्ध का अंत हो गया था और ऐसा लगता था कि सबक सीखकर एक सभ्य संसार संवरने वाला है।
नई सुबह की आहट वाले उसी दौर में बमुश्किल पांच साल की एक बच्ची हुगली नदी में बहुत चाव से नहाती थी, तैरती थी। पानी में ऐसे हिल-मिल जाती थी, मानो पानी के लिए ही उसका जन्म हुआ हो। पिता के साथ रोज सुबह चंपातला घाट नहाने निकल जाती थी। देर तक नहाना चाहती थी। पानी में उसे मां के स्पर्श जैसी शीतलता का एहसास होता था। अपने यहां नदियां वैसे भी मां हैं और हुगली नदी तो साक्षात गंगा मैया है। उस बच्ची को जन्म देने वाली मां तो करीब तीन वर्ष पहले ही दुनिया छोड़ गई थी, वह जरा भी याद नहीं थी, पर गंगा मैया की गोद शायद ममत्व की विशाल शून्यता को भर देती थी। पिता देखते रह जाते थे, घाट की सीढ़ियां वह बहुत उत्साह से उतरती थी और जल में ऐसे रम जाती थी कि उसे बार-बार पुकारना पड़ता था।
उसके पिता भी विशेष थे, बिन मां की बच्ची को कभी नहीं टोका। दूसरे पिता होते, तो जल से ऐसा लगाव देख भड़क जाते, नहाने-तैरने का मौका न देते या खुद डरते और बच्ची को दोगुना डरा देते। असंख्य बच्चियां हैं, जो अपने डर को कभी लांघ नहीं पाती हैं, पर उस पिता ने अपनी बच्ची को डर के पार जाने दिया। और एक खुशनुमा सुबह वह सोच में पड़ गए, बच्ची पर गौर किया, इसके तैरने में कुछ खास है, वरना पांच साल की बच्ची, जिसकी आवाज का तोतलापन भी अभी नहीं गया है, वह इतनी सफाई से बहुत तेज तैर रही है। दूसरे कई बच्चे भी वहां आते हैं, पर जल पर उनका विश्वास प्रबल नहीं है और यह बच्ची जल से एकाकार हो जाती है। नहाती कम है और तैरती ज्यादा है। जिस दिन पिता घाट पर नहीं आते, उस दिन बच्ची अपने चाचा के साथ आती है। जैसे पिता ने नहीं टोका, वैसे ही चाचा ने भी कभी नहीं टोका। सब जानने लगे हैं कि तैरने से इस बच्ची का मन ही नहीं भरता। पिता के मन में अचानक खयाल आया कि बच्ची खुद नहीं बोलेगी, पर इसे आगे बढ़ाना चाहिए। किसी प्रतियोगिता में उतारना चाहिए और उसके लिए माहिर बनाना चाहिए। पिता ने अपने इरादे का इजहार कर दिया, तो विरोध भी हुआ। चर्चा होने लगी कि कौन बच्ची को सिखाने ले जाएगा, यह कुछ पढ़ाई के लिए समय निकाल ले, वही बहुत है, पर पिता कहां मानने वाले थे, कोलकाता में ही चंपातला घाट से करीब दो किलोमीटर दूर तब के सर्वश्रेष्ठ तैराकी क्लब हटखोला पहुंच गए। बच्ची का वहां नाम लिखा दिया, तब उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था कि जल में ज्यादा समय मिलेगा। नदी विशाल थी, स्विमिंग पुल छोटा, पर उसमें निर्भय तैरने का आश्वासन था।
हटखोला क्लब में कोलकाता के नामी-गिरामी तैराक आते थे। बच्ची की कुशल तैराकी छिप न सकी। एक अन्य युवा तैराक सचिन नाग (प्रथम एशियाई खेलों में भारत के लिए स्वर्ण जीतने वाले तैराक) ने उस पुत्री के पांव पालने में ही देख लिए और तेज तैराकी के गुर सिखाने लगे। दो-तीन महीने बाद ही उस पांच वर्षीय बच्ची को शैलेंद्र मेमोरियल तैराकी प्रतियोगिता में उतार दिया गया। बच्ची ने वहां बड़े-बड़ों के दांत खट्टे करके 110 गज फ्रीस्टाइल तैराकी में स्वर्ण पदक जीतकर अपना पहला मील का पत्थर गाड़ दिया। पूरे कोलकाता में शोर हो गया कि आरती साहा नाम की एक जलपरी अवतरित हुई है। पदकों की बारिश शुरू हो गई। देश की आजादी के बाद पहली राष्ट्रीय प्रतियोगिता में उस आठ साल की बच्ची ने रजत पदक जीतकर झंडे गाड़ दिए। तैराकी में रिकॉर्ड-दर-रिकॉर्ड बनाती चली गई।
यह रिकॉर्ड तो आज भी स्वर्णिम अक्षरों में लिखा है कि साल 1952 में जब आरती साहा (1940-1994) महज 12 वर्ष की थीं, तभी हेलसिंकी में आयोजित ओलंपिक में अन्य तीन महिलाओं के साथ भेजी गई थीं, क्योंकि वह तब देश की सर्वश्रेष्ठ तैराकों में शुमार थीं। तब ओलंपिक में आजाद भारत की नींव रखने वाली आरती साहा के गली-गली चर्चे हुए थे।
खैर, उन्हें खुले सरोवरों में तैरना ज्यादा अच्छा लगता था। महज 19 की उम्र में वह इंग्लिश चैनल पार करने वाली पहली एशियाई महिला बनीं। वह पद्मश्री जीतने वाली पहली खिलाड़ी भी बनीं। खूब खिलाड़ी आएंगे, खूब ओलंपिक होंगे, पर यह देश आरती साहा को भूल नहीं सकता और न उनके पिता चंपुगोपाल साहा को। दोनों सदा प्रेरणा स्रोत रहेंगे।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय