आधे शरीर और पूरे हौसले की कहानी
लोगों को लगता है कि दिव्यांग को भला क्यों ढोया जाए? काम के न काज के दुश्मन अनाज के। वैसे भी, 1960 के दशक में दिव्यांगों की दुनिया में बहुत अंधेरा था। आश्चर्य नहीं कि अपने देश में जहां-तहां मैले...

हर हौसले की अपनी कहानी होती है। हमें कभी लगता है कि अब हम हिम्मत हार जाएंगे, पर हिम्मत के हर टूटते कतरे में भी हौसले की गुंजाइश बची होती है। इस गुंजाइश को जो थाम लेता है, वह फिर मजबूती से कोई न कोई उड़ान हासिल कर लेता है। जिंदगी हिम्मत न हारने और फिर हौसले की उड़ान का सिलसिला ही तो है। उस युवा की जिंदगी भी ऐसी ही थी। जिंदगी जब भी उसे जमीन पर पटकती, वह फिर नई उड़ान की गुंजाइश निकाल लेता। महाराष्ट्र के सांगली के पेठ इस्लामपुर गांव में उसने ग्राम प्रधान के बेटे को कुश्ती में ढेर कर दिया था। प्रधान के अहंकार पर चोट लगी, तो उसके गुर्गे 12 वर्षीय लड़के पर कूद पड़े। प्रधान के बेटे को हरा देना बड़ा अपराध बन गया। स्थितियां ऐसी बन गईं कि गांव में रहने का मतलब था, दिन-रात जोखिम उठाना। ऐसे में, वह लड़का पुणे भाग गया। वहां भारतीय सेना की बॉयज बटालियन में भर्ती हो गया। यहां उसने खेलों में बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। जल्दी ही एक अंतरराष्ट्रीय बॉक्सर के रूप में चमक उठा। पदक-दर-पदक जीतने लगा।
सेना में नौकरी लग गई। एक बार वह यूं ही पुरस्कार स्वरूप कश्मीर देखने गया था। कश्मीर के सियालकोट सेक्टर में बंकर में था। अचानक सायरन बजा, उसे लगा कि चाय का समय हो गया, मगर बंकर से बाहर निकलते ही गोलियां बरसने लगीं। 1965 का युद्ध छिड़ गया था। पाकिस्तानी वायु सेना ने हमला बोल दिया था। उस जवान को करीब नौ गोलियां लगीं और वह गिर गया, सबसे बड़ा दुर्भाग्य कि अफरा-तफरी में सेना का एक वाहन उस पर से गुजर गया। वह लड़ाई के लिए कतई प्रशिक्षित नहीं था, मगर उस पर ऐसी घातक त्रासदी बीती कि वह मौत के मुंह की ओर बढ़ चला। दर्द इतना बढ़ा कि कुछ समय के लिए याद्दाश्त चली गई। कुछ दिन जम्मू के अस्पताल में बीते, कुछ दिन दिल्ली और फिर मुंबई के अस्पताल में भेज दिया गया। जिसके शरीर से आठ गोलियां निकाली गई हों और एक गोली अभी भी पीठ में फंसी हुई हो, उसका जिंदगी में क्या हो सकता है? होश आया, तो जिंदगी ठहरी नजर आई, जहां सिर्फ अंधेरा था। पैरों पर फिर लौटने की गुंजाइश नहीं थी। पूरी जिंदगी बिस्तर पर पड़े रहना था। यह कोई छिपी बात नहीं है कि ऐसे लाचार-दिव्यांगों से सगे रिश्तेदार भी मुंह मोड़ लेना पसंद करते हैं। लोगों को लगता है कि लाचार दिव्यांग को भला क्यों ढोया जाए? काम के न काज के दुश्मन अनाज के। वैसे भी 1960 के दशक में दिव्यांगों की दुनिया में बहुत अंधेरा था, उनके लिए कोई सुविधा नहीं थी। कोई आश्चर्य नहीं कि अपने देश में जहां-तहां मैले-कुचैले दिव्यांगों की भीड़ भीख मांगती नजर आती थी।
नीचे के आधे बेकार शरीर के साथ वह युवा भी बिस्तर पर पड़ा सवालों से जूझता रहता था। उसके लिए निर्णायक क्षण था कि उसे ऐसे फिजियोथेरेपिस्ट मिले, जिन्होंने हिम्मत न हारने की सलाह दी और कहा, ‘खेलना मत छोड़ना। तैरना फायदेमंद होगा।’ पशु-पक्षी भी बहुत थोड़ी मेहनत से तैरते हैं, क्योंकि उनको पानी पर पूरा भरोसा है। पानी में वही डूबता है, जिसे पानी पर भरोसा नहीं होता, जैसे जिंदगी में वही हारता है, जिसे संसार पर भरोसा नहीं होता है। संसार पर भरोसा करने वाले कभी हिम्मत नहीं हारते और संसार में कहीं न कहीं उनके लिए राह बनती चली जाती है। युद्ध में घायल जवान मुरलीकांत पेटकर के लिए भी राह बनी। एक दिन प्रसिद्ध उद्यमी जे आर डी टाटा उनसे मंुबई के अस्पताल में मिलने आए और पूछा कि ‘बताइए, आपके लिए मैं क्या कर सकता हूं?’ बिना मौका गंवाए मुरलीकांत ने मांग लिया, ‘हो सके, तो कृपया एक नौकरी दिला दीजिए।’
नौकरी मिल गई, तो जिंदगी सकुशल तैरने लगी। खेलों ने सुकून देकर फिर मुकाबले के लिए तैयार किया। साल 1968 में मुरलीकांत ने ग्रीष्मकालीन पैरालिंपिक में भाग लिया। टेबल टेनिस, शॉट-पुट, जेवलिन थ्रो, डिस्कस थ्रो, वेटलिफ्टिंग और तीरंदाजी में वह महाराष्ट्र राज्य चैंपियन बने। वह स्वर्णिम मौका भी आया, जब उन्होंने 1972 में जर्मनी में आयोजित ग्रीष्मकालीन पैरालिंपिक में 50 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी में भारत के लिए पहला स्वर्ण जीतकर इतिहास रच दिया। इसके पहले किसी भारतीय ने यह कारनामा नहीं किया था। यह स्वर्ण भारतीय दिव्यांगों की दुनिया में पत्थर पर खिले सुंदरतम फूल की तरह है। एक ऐसा फूल, जो पचास साल बाद भी तरोताजा है, जिसे देख सबको आज भी गर्व होता है। नवंबर की पहली तारीख को 1944 में जन्मे मुरलीकांत पेटकर की याद दिलो-दिमाग में तब और खिल आई है, जब पैरालिंपिक एशियाड में भारतीय दिव्यांगों ने पहली बार 100 से ज्यादा पदक जीतकर तीरंगे को ऐसे लहरा दिया है कि अब भूलना मुश्किल है।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय
