फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन मेरी कहानी मन को साथ लिए चल पड़े चित्र

मन को साथ लिए चल पड़े चित्र

उन दिनों सारे रविवार नाटकों के नाम रहते थे। कभी पिता अकेले जाते, तो कभी पिता-पुत्र, दोनों निकल पड़ते। नाटक देखने का इतना शौक था कि शहर में शायद ही कोई प्रदर्शन अनदेखा रह पाता था। पिता की चित्र और कला...

 मन को साथ लिए चल पड़े चित्र
धुंडीराज गोविंद फाल्के, विख्यात भारतीय फिल्मकारSat, 25 Apr 2020 09:59 PM
ऐप पर पढ़ें

उन दिनों सारे रविवार नाटकों के नाम रहते थे। कभी पिता अकेले जाते, तो कभी पिता-पुत्र, दोनों निकल पड़ते। नाटक देखने का इतना शौक था कि शहर में शायद ही कोई प्रदर्शन अनदेखा रह पाता था। पिता की चित्र और कला में गहरी रुचि थी। चित्र बहुत देखे थे, एक दिन चलचित्र देखने का मन बन गया, चर्चे खूब सुने थे। पिता-पुत्र पहुंच गए देखने, चलचित्र का नाम था अमेजिंग एनिमल्स।  कुछ ऐसा सोच रखा था कि बारी-बारी से चित्र देखने को मिलेंगे, लेकिन यहां तो जो भी चित्र में नजर आता, अचानक चल पड़ता। वैसे तो चित्र रुके हुए ही होते हैं, लेकिन यहां तो चित्र रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। कोई जादू है शायद, चित्र रुकना भूल गए हैं। तरह-तरह के जानवर चित्रपट पर आ रहे थे, जा रहे थे, रुक नहीं रहे थे। यह क्या गजब बात हो गई? पिता और पुत्र, दोनों ही बहुत अचंभित थे। यकीन नहीं हो रहा था कि चित्र चल भी सकते हैं। देखते-देखते चलचित्र प्रदर्शन पूरा हो गया। पिता का मन भरा नहीं और चलचित्र में अटक गया। 

घर लौटते ही आठ साल केपुत्र ने बखान शुरू कर दिया कि कैसे चित्र चल पडे़। घर में न दूसरे बच्चों को यकीन हुआ और न उनकी मां को। कहीं ऐसा भी होता है क्या कि चित्र अपने आप चल पड़ें? विश्वास तो पिता को भी नहीं हो रहा था, लेकिन आंखों से देखकर आए थे, स्तब्ध थे। तय हुआ कि परिवार को भी वही चलचित्र दिखा लाएंगे। ऐसे बोलने से भला कौन मानने वाला है। जब खुद को ही अभी भी आंखों का धोखा ही लग रहा है, तो केवल सुनने वाले को यह सब महाझूठ ही लगेगा। 
यह वह दौर था, जब चित्र भी भारत में दुर्लभ हुआ करते थे। छपी हुई किताबें चंद लोगों के पास ही होती थीं। चलचित्र के बारे में सुनते भर थे, लेकिन विश्वास नहीं होता था। बहरहाल चलचित्र देखकर बच्चा मुग्ध था और उसके पिता महामुग्ध। कला का यह कौन-सा रूप है। यह क्या विद्या है, जो चित्रों को चलाने लगी है?

बेचैनी बहुत थी, तो पूरा परिवार दूसरे ही दिन निकल पड़ा चलचित्र देखने। लेकिन इस बार प्रदर्शन के लिए ईसा मसीह पर आधारित चलचित्र था जीसस, द लाइफ ऑफ क्राइस्ट।  परिवार ने पूरे मुग्ध भाव से चलचित्र का आनंद लिया। पिता ने गौर से जांचा, किसी मशीन से रोशनी निकलकर आती थी और चित्रपट पर पड़ते ही चित्र सजीव हो जाते थे। चल पड़ते थे। पिता ने गौर किया कि यह चलचित्र नहीं, बल्कि वास्तव में चलदृश्य है। एक के बाद एक दृश्य दिख रहे हैं। मतलब कोई ऐसी तकनीक आ गई है, जो सिर्फ चित्र नहीं उकेरती, बल्कि दृश्य पकड़ती है और उसे चित्रपट पर दिखा देती है। यह वास्तव में चित्र पट नहीं, दृश्य पट है। चलचित्र से तो बच्चों की नजरें नहीं हट रही थीं और उनकी मां को कुछ सूझ ही नहीं रहा था कि क्या कहें, स्तब्ध निहारे जा रही थीं। 

जिंदगी में कैमरे से निकले चित्र तो बहुत दिखे थे। एक बढ़िया विदेशी कैमरा घर में ही था, लेकिन वह तो सिर्फ चित्र खींचता था और यहां तो दृश्य चल निकले थे। पिता का दिमाग बहुत तेज काम कर रहा था। जीसस पर बनी यह फिल्म फ्रेंच निर्देशक एलिस गॉयब्लेच की थी। भारतीय संस्कृति में रचे-पगे पिता ने सोचा कि अगर भारत में जीसस की जगह राम या कृष्ण पर फिल्म बनाई जाए, तो खूब लोग देखेंगे। क्या ऐसा किया जा सकता है? चलचित्र कला ने पूरे परिवार का मन मोह लिया था, क्या छोटा और क्या बड़ा, सभी समान रूप से प्रभावित हुए थे। बॉम्बे के गोरेगांव स्थित अमेरिका इंडिया पिक्चर पैलेस से परिवार लौट तो आया, पर सबका मन मानो वहीं छूट गया। जाहिर है, उन दिनों के चलचित्र में संवाद नहीं होते थे, लेकिन तब भी परिवार में घंटों उस चलचित्र की चर्चा चली थी। 

चलचित्र का ऐसा जुनून चढ़ा कि वह पिता भारतीय सिनेमा के पितामह होने की ओर बढ़ चले। धुंडीराज गोविंद फाल्के ने तय कर लिया, अब चलचित्र के व्यवसाय में उतरना है। प्रिंटिंग और फोटोग्राफी से यह बहुत आगे की कला है, इसी में कुछ करना है। फाल्के जी-जान से लग गए। खुद को चलचित्र के लिए समर्पित कर दिया। तरह-तरह के औजार, सामग्रियां जुटाने लगे। 

एक छोटा-सा फिल्म कैमरा उन्होंने खरीदा और कुछ  रीलें, मोमबत्ती की रोशनी के सहारे ही रात के समय फिल्म दिखाने लगे। जुनून इस हद तक था कि हर शाम चार से पांच घंटे उन्होंने फिल्म देखने में लगाना शुरू कर दिया। नींद की कमी हुई, सेहत बिगड़ी। आंखों में मोतियाबिंद की मार पड़ी, दिखना तक बंद हो गया, लेकिन जुनून ऐसा था कि एक डॉक्टर के प्रयासों से काम लायक रोशनी लौट आई। चलचित्र बनाने का काम तेजी से आगे बढ़ा और उन्होंने राजा हरिश्चंद्र  फिल्म बनाकर दुनिया में भारतीय सिनेमा का आगाज कर दिया। 
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें