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नफरत की धुलाई के चालीस सेकंड

नफरत से लबालब उस बत्तीस वर्षीय अंग्रेज प्रोफेसर का यह सबसे प्रिय जुमला था, ‘जिस तरह यूनानियों ने संपर्क में आए बर्बर लोगों को अपने जैसा बना दिया था, ठीक उसी तरह अंग्रेजों का अभियान भारतीयों को...

नफरत की धुलाई के चालीस सेकंड
नेताजी सुभाष चंद्र बोस, स्वतंत्रता सेनानीSat, 22 Jan 2022 08:49 PM
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नफरत से लबालब उस बत्तीस वर्षीय अंग्रेज प्रोफेसर का यह सबसे प्रिय जुमला था, ‘जिस तरह यूनानियों ने संपर्क में आए बर्बर लोगों को अपने जैसा बना दिया था, ठीक उसी तरह अंग्रेजों का अभियान भारतीयों को सभ्य बनाना है।’ जहां दो भारतीय टकरा जाते, वहां मौका-बे-मौका वह अंग्रेज इस जुमले को उछाल मारता था। यह जुमला स्वाभिमानी भारतीयों के हृदय में सूल-सा जा धंसता था। कोलकाता के पे्रसिडेंसी कॉलेज में इस जुमले से लहूलुहान छात्र तड़पकर रह जाते थे। वह भारत विरोधी अंग्रेज इतिहास का प्रोफेसर था, पर पता नहीं, इतिहास की किस किताब में भारतीयों की बर्बरता से वह रूबरू हुआ था। दुनिया की एक सबसे प्राचीन सभ्यता, जहां से निकलकर लोग कभी दुनिया में कहीं किसी की छाती पर मूंग दलने नहीं गए। न किसी को लूटा और न किसी को गुलाम बनाया। जहां की मुख्यधारा संस्कृति पूरे संसार को एक परिवार मानने का स्वप्न दिन-रात देखती हो। जहां हजारों बोलियों, रूपों, नस्लों के लोग सदियों से एक-दूजे का हाथ थामे रहते आए हों, उस देश को कोई बर्बर माने, तो फिर क्या कहा जाए? दुनिया में बर्बर समाजों का इतिहास खंगालने वाला कौन शख्स होगा, तो कहेगा कि उसका मिशन भारतीयों को सभ्य बनाना है? और अगर किसी को ऐसा कहने की लत लग जाए, तो इस धरती के सपूतों का खून खौलना लाजिमी है। 
अक्सर ऐसा होता है कि अगर किसी नफरत की नकेल न कसी जाए, तो वह बढ़ती चली जाती है। ठीक उसी तरह उस अंग्रेज प्रोफेसर की कारस्तानी भी बढ़ती चली गई। वह छात्रों पर किसी मामूली बहाने से भी अर्थदंड लगाने लगा। उसके हाथ भारतीय छात्रों के गिरेबां तक पहुंचने लगे, तब छात्रों ने पहली बार कॉलेज में हड़ताल का फैसला लिया। दो दिन बाद हड़ताल टूटी, लेकिन कॉलेज प्रशासन और उस प्रोफेसर के तेवर में कोई कमी न आई। तब कुछ छात्रों ने फैसला लिया कि मातृभूमि को नीचा दिखाने वाले को औचक सबक सिखाना पड़ेगा। उस दिन नोटिस बोर्ड पर एक नोटिस चस्पां करने के बाद वह बदजुबान प्रोफेसर मुड़ने ही वाला था कि एक छात्र ने एक मुक्का उसके कंधे पर रसीद कर दिया, प्रोफेसर को धक्के मारकर गिरा दिया गया। मुंह के बल गिरे अंग्रेज पर चारों ओर से लातों की बौछार हो गई। वह मदद के लिए चिल्लाने लगा, जैसे ही कोई अन्य प्रोफेसर मौके पर पहुंचता, महज चालीस सेकंड में छात्र अपना काम कर नदारद हो गए। 
अंग्रेज को झाड़कर सीधा किया गया, नाक पर चोट लगी थी और शरीर पर खरोंच। तत्काल अस्पताल पहुंचाया गया। जहां उसने माना कि ज्यादा चोट नहीं लगी। शुक्र है, भारतीय छात्र बूट नहीं पहनते। पिटाई का अर्थ वह अंग्रेज अच्छी तरह समझता था। महज चालीस सेकंड में नफरती विचार को मुंहतोड़ जवाब मिल चुका था। उसकी नजरें तो झुक गईं, लेकिन छात्रों के बीच सिरमौर बन उभरे छात्र सुभाष चंद्र बोस की नजरें हमेशा के लिए गर्व से खिल उठीं। उन्होंने आगे बढ़कर जिम्मेदारी ली। पिटाई से शर्मिंदा प्रोफेसर एडवर्ड फर्ले ओटेन ने किसी छात्र को पहचानने से भी मना कर दिया। औपचारिक शिकायत से भी पीछे हट गए। खैर, अंग्रेजों को कुछ तो करना था, स्नातक कक्षा के छात्र सुभाष चंद्र बोस को कॉलेज से निकाल दिया गया। उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदल गई और देश को अपना एक निडर सेनापति हासिल हुआ। दो साल के लिए पढ़ाई थमी, लेकिन इसी छात्र ने आगे चलकर लंदन में अंग्रेजों की प्रशासनिक सेवा परीक्षा में चौथा स्थान हासिल किया और देशसेवा के लिए उस दौर की सबसे शानदार नौकरी को ठुकरा दिया। देशसेवा का वैसा जोश, जज्बा, जुनून उस दौर में भी अकल्पनीय था। 
गौर कीजिएगा, पिटाई के चालीस सेकंड में ही अंगे्रज प्रोफेसर ओटेन भी पूरी तरह धुल गए थे। भारतीय ज्ञान, संस्कृति और भाषा पर प्रेम उमड़ने लगा था। नेताजी बोस के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान था, जब विमान हादसे में नेताजी के शहीद होने की खबर आई, तब ओटेन भी भावुक हो गए थे। उन्होंने यूरोप के प्राचीन प्रिय चरित्र इकारस से तुलना करते हुए श्रद्धांजलि में कुछ पंक्तियां लिखी थीं, ‘क्या मुझे एक बार तुम्हारे हाथों कष्ट हुआ था, सुभाष?/ शांत हुआ तुम्हारा देशभक्त हृदय, मैं भूल जाऊंगा!/ पर अभी मुझे याद करने दो वो पल/...ऊंचे स्वर्ग की प्राचीर पर, अपने दावे के लिए/ आजादी के बकाये की सीधी और साफ मांग के लिए।/ हां, मिल गया ऊंचा स्वर्ग, पूरी गरिमा में/ इकारस की तरह, तुम सागर की ओर बढ़े।/ तुम्हारे पंख सूरज ने पिघला दिए,/ मिलनसार देशभक्त ज्वाला, जो चमकती थी/ भारत के पराक्रमी हृदय में, प्रज्ज्वलित और प्रवाहित/ उसकी सेनाओं की हजारों विजय से भी आगे एक विजय...।’ 
    प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय 

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