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एक प्रकांड गणितज्ञ जो संन्यासी हो गए

दुनिया भांति-भांति के लोगों से गुलजार है। राजाओं को याद किया जाता है और उनसे भी ज्यादा फकीरों को। वास्तव में, जो शख्स कुछ अलग हटकर जी लेता है, वही याद रह जाता है। लाहौर में थे एक अत्यंत मेधावी...

एक प्रकांड गणितज्ञ जो संन्यासी हो गए
Amitesh Pandeyस्वामी रामतीर्थ, गणितज्ञ धर्मगुरुSat, 21 Oct 2023 10:59 PM
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दुनिया भांति-भांति के लोगों से गुलजार है। राजाओं को याद किया जाता है और उनसे भी ज्यादा फकीरों को। वास्तव में, जो शख्स कुछ अलग हटकर जी लेता है, वही याद रह जाता है। लाहौर में थे एक अत्यंत मेधावी गणितज्ञ प्रोफेसर, जो अलग हटकर जीने की बेचैनी से भरे हुए थे। बहुत संघर्ष झेलते हुए प्रोफेसरी हाथ आई थी। जेब में 300 रुपये से ज्यादा हर महीने आने लगे थे, पर एक वह भी दौर था, जब महज तीन पैसे में पूरा दिन काटना पड़ता था। पूरे दिन में बस दो रोटियां मिलती थीं। लाहौर से अपने गांव मुरलीवाला जाने का किराया भी नहीं होता था और न पोस्टकार्ड के पैसे। साक्षात दिख जाता था कि भूखा आदमी कैसे सारी दुनिया से कट जाता है। हां, पढ़ाई के दिनों में छात्रवृत्ति के पैसे मिलते थे, मगर पिता और परिवार में ही ज्यादा खर्च होते थे। यह दुनिया बड़ी अजीब है, लोगों को पता भर लग जाए कि आप दयालु हैं, लोग मांग-मांगकर कंगाल करने में जुट जाते हैं। प्रोफेसर का भी यही हाल था। लोग अकेला नहीं छोड़ते थे। गांव से झुंड में पहुंचते थे। प्रोफेसर वेतन लेकर कॉलेज की सीढ़ियां उतरते थे, तो मांगने वाले नीचे तैयार खड़े मिलते। 
गांव में पूजा-पाठ करके गुजारा करने वाले पिता भी छात्र जीवन से ही पुत्र पर निर्भर थे। पुत्र मेधावी था, तो पिता को लगता था कि लगाम कहीं हाथ से निकल न जाए। जबरन दस की उम्र में विवाह करा दिया। तब ज्यादातर विवाह पैरों में बेड़ियां डालने या जिम्मेदारी लादने के लिए ही किए जाते थे। वैसे, प्रोफेसर भी मामूली इंसान नहीं थे। जब भी किसी गणितज्ञ को गणित में समस्या होती, वही हल करते थे। वह भक्ति भाव से भी भरे हुए थे, पर गणित और अध्यात्म, दोनों पर दुनियादारी ओले-बारिश की तरह बरसती थी। खर्चे बढ़ते, तो उधारी भी लद जाती थी। 
उन्हीं दिनों एक संयोग हुआ, प्रोफेसर ने अपने मित्रों के साथ मिलकर स्वामी विवेकानंद को लाहौर आमंत्रित किया। नवंबर 1897 में स्वामी विवेकानंद अपने देशी-विदेशी शिष्यों के साथ लाहौर पहुंचे। उन्हें हीरा-मंडी में राजा ध्यान सिंह की हवेली में ठहराया गया। भीड़ इतनी जुट जाती थी कि लोगों को बैठाना मुश्किल हो जाता था। यह अच्छा हुआ कि उन्हीं दिनों में शहर में बोस बाबू का सर्कस लगा हुआ था, तो उसके विशाल शामियाने में ही विवेकानंद के प्रवचन की व्यवस्था हुई। स्वामी जी अद्भुत थे, उनके पास हर सवाल का जवाब था। स्वामी जी प्रोफेसर के घर भी आए, भोजन किया, जीवन को लेकर चर्चा की और कुछ बड़ा करने के लिए प्रेरित किया। तब पंजाबियों में रिवाज था कि वह अपने प्रिय मेहमान को अपनी सबसे मूल्यवान चीज भेंट करते थे। जब स्वामी जी चलने लगे, तब प्रोफेसर ने अपनी सोने की घड़ी पेश कर दी। स्वामी जी मुस्कराने लगे। उन्होंने वह घड़ी वापस प्रोफेसर की जेब में डाल दी और कहा, मुझे इसकी जरूरत नहीं है, आप ही इसका उपयोग जारी रखिए।  
प्रोफेसर साहब जब किसी को कोई चीज देते थे, तो किसी ने कभी मना नहीं किया था। जब स्वामी विवेकानंद ने मना किया, तब अचंभा हुआ कि दुनिया में ऐसे लोग भी होते हैं, जो स्वर्ण को ठुकरा सकते हैं। सोच की दिशा ही बदल गई। मैं क्यों कमाता और जुटाता हूं, इतने लोगों की जिम्मेदारी उठाने वाला मैं कौन? राष्ट्र और समाज के प्रखर प्रेमी विवेकानंद से प्राप्त ज्ञान निरंतर गूंजने लगा- ‘यदि कोई चीज आपको शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से कमजोर बनाती है, तो उसे जहर की तरह अस्वीकार कर दीजिए। ...उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम अपने लक्ष्य तक न पहुंच जाओ।’ 
एक दिन पैसे के लिए पिता का पत्र आया, तो  पुत्र ने जवाब में लिख दिया, ‘आपके बेटे तीरथराम का शरीर अब बिक गया है, यह भगवान को बेच दिया गया है! अब यह उसका अपना नहीं रहा। आज दिवाली है, मैंने जुए में अपना शरीर गंवा दिया है...। अब आपको जो भी जरूरत हो, मेरे स्वामी से मांग लीजिए।’ 
उन्होंने संन्यास ले लिया, अपना नाम बदलकर स्वामी रामतीर्थ कर लिया। उम्र कम थी, पर वेदांत का ज्ञान भरपूर था। जल्दी न शिष्य बनाया, न कोई संस्था खड़ी की। अनेक देशों में गए। इतने सच्चे वैरागी थे कि अमेरिकी राष्ट्रपति के आतिथ्य को भी ठुकरा दिया था। व्यावहारिकता से भगत सिंह को भी प्रभावित किया था। पूरा पंजाब उन्हें सिर-सजाए रहता था। वह प्रेम, त्याग, एकता, सद्भाव और सद्चरित्र का संदेश देते थे। कहते थे, ‘आध्यात्मिक सैनिक बनो। अपने छोटे-छोटे अहंकार को त्यागकर अपनी भूमि के हित में जीवन लगा दो। देश से प्रेम करो, तो देश भी तुम्हारा अनुसरण करेगा।’ स्वामी रामतीर्थ 22 अक्तूबर, 1873 को दिवाली के दिन जन्मे थे और कम उम्र में ही वह साल 1906 में दिवाली के दिन ही गंगा में लीन हो गए।    
     प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय 

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