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बचपन में ही नसीब हो गई पहलवानी

लक्खा सिंह पर टकटकी लगाए खड़ी भीड़ में अचंभित एक बच्चा दीदार सिंह भी था। उसने पहली बार लक्खा की भीमकाय कद-काठी पर गौर किया। अद्भुत इंसानी शरीर है या कोई जादू! अंग-अंग से फड़कते और तेज से चमकते लक्खा...

बचपन में ही नसीब हो गई पहलवानी
Pankaj Tomarदारा सिंह, पहलवान, अभिनेताSat, 18 Nov 2023 09:48 PM
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सौंदर्य और बल, दो ऐसे पहलू हैं, जिनसे मुंह मोड़ना मुश्किल है। यहां बुद्धि काम नहीं करती, स्वाभाविक ही कोई भी बलशाली सबका ध्यान खींच लेता है। अब तो पहलवानी की संस्कृति नहीं रही, क्योंकि कानून-व्यवस्था की स्थिति मजबूत है, किसी को एक थप्पड़ मारना भी अपराध के रूप में दर्ज हो सकता है, पर पहले के दौर में पहलवानों का अलग ही जलवा था। गांव-गांव में पहलवान हुआ करते थे और उनसे जुड़ी अजब-गजब संस्कृति हुआ करती थी। जिस गांव में पहलवान नहीं होते थे, अक्सर उस गांव को धन या रसद देकर कीमत चुकानी पड़ती थी। 
एक बार पंजाब के धरमूचक्क गांव में सुबह-सुबह ही एक पहलवान आ धमका। उसने ललकारा कि क्या कोई है गांव में, जो कुश्ती के मुकाबले के लिए सामने आए। गांव भर में दहशत फैल गई। खैर, गांव के पास एक-दो पहलवान थे, उनमें से एक लक्खा सिंह की भुजाएं फड़क उठीं कि अपने गांव को किसी ने ललकारा है, धूल चाटकर ही लौटना चाहिए। लक्खा सिंह जब मुकाबले के लिए तैयार हुए, तब पूरा गांव उनके पीछे खड़ा हो गया। मिन्नतें करने लगा कि गांव की लाज बचा लो।
लक्खा सिंह पर टकटकी लगाए खड़ी भीड़ में अचंभित एक बच्चा दीदार सिंह भी था। उसने पहली बार लक्खा सिंह की भीमकाय कद-काठी पर गौर किया। अद्भुत इंसानी शरीर है या कोई जादू! अंग-अंग से फड़कते और तेज से चमकते लक्खा सिंह पहलवान किसी देवदूत से कम नहीं लग रहे थे। अब यही गांव के धन-मान को बचाएंगे। ललकारने वाला पहलवान भी कम नहीं था, लंगोट बांधे पूरी तैयारी से आया था। खैर, पहलवानों की टक्कर हुई, कभी कोई भारी, तो कभी कोई हावी। शाम हो गई, तो मुकाबला बराबरी पर रोक दिया गया। ललकारने वाला पहलवान चुपचाप लौट गया। लक्खा के जयकारे लगने लगे। वह आठ साल का बच्चा दीदार तो किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गया, जहां सिर्फ पहलवान रहते थे। उस दिन घर लौटकर बालक ने पूरे दमखम के साथ घोषणा कर दी, ‘मेरे लिए भी लंगोट सिलवा दो।’ मां ने पूछा, ‘लंगोट का तुझे क्या करना है?’ दीदार ने उत्साह से लबरेज जवाब दिया, ‘मैं भी दण्ड-बैठक करूंगा।’ 
पहलवानी में मन खूब रमने लगा। लक्खा सिंह पहलवान भी दिन भर खेतों में काम करते थे और शाम को कुएं पर नहाते थे। बालक दीदार लगभग रोज चुपचाप कुएं के चबूतरे पर बैठ जाते और लक्खा को मुग्ध भाव से निहारा करते थे कि काश! ऐसा ही शरीर हो जाए, तो मजा आ जाए। दीदार भी अब रोज लंगोट कसते, बदन पर तेल लगाते और दण्ड-बैठक में जुट जाते। छोटे-मोटे मुकाबलों में भी उतरने लगे। 
एक बार गांव के सरपंच ने मुकाबला कराया, तो दीदार के खिलाफ एक बडे़ किशोर पहलवान जमाला को उतार दिया गया। जमाला खानदानी पहलवान था, तो लोग तय मान रहे थे कि दीदार कुछ ही देर में ढेर हो जाएगा, पर कुछ ही देर में जमाला चित हो गया। फिर क्या था, गांव के लोगों ने दीदार को कंधों पर उठा लिया। जयकारे लग गए। सरपंच ने आठ आने मतलब पूरे पचास पैसे दिए। यह पहलवानी की पहली कमाई थी। गांव में धूम मच गई कि दारे ने जमाले को चित कर दिया। 
बहरहाल, दीदार उर्फ दारे उर्फ दारा के परिवार के पास ज्यादा जमीन नहीं थी। गरीबी की वजह से पढ़ाई तो स्कूल में ही छुड़वा दी गई थी। खेतों में कड़ी मशक्कत में लगा दिया गया था। अंतत: हालात ऐसे बने कि दारा को भी अपने एक चाचा के साथ सिंगापुर जाना पड़ा। ड्रम बनाने वाली कंपनी में काम मिला। लगने लगा कि सारी पहलवानी मजदूरी में बह जाएगी। हालांकि, तब 18 साल के हो चुके दारा की पहलवानी चाल और ऊंची कदकाठी किसी से छिपती नहीं थी। लोग ही उन्हें प्रेरित करते, कहां मजदूरी में खर्च हो रहे हो, पहलवानी करो।
किस्मत का खेल हुआ, सिंगापुर में गुरु हरनाम सिंह से मुलाकात हो गई और दारा सिंह (1928-2012) पेशेवर कुश्ती में उतर गए। मजदूर के रूप में सिंगापुर गए थे और ख्यात पहलवान के रूप में देश लौटे। दारा ने अनेक दिग्गज पहलवानों को धूल चटाया। रुस्तमे-हिंद कहलाए। फिल्मों में भी खूब काम किया। जीवन में किसी तरह का अभाव नहीं रहा। वह राज्यसभा के लिए मनोनीत होने वाले पहले खिलाड़ी बने। 19 नवंबर को जन्मे दारा सिंह को टीवी धारावाहिक रामायण में हनुमान की भूमिका के लिए हमेशा याद किया जाता है। सबसे बड़ी बात, उनके पहलवान शरीर में एक बहुत बेहतरीन इंसानी दिल का वास था। अपने अंतिम दिनों में जब कोई उनसे पूछता था कि आपकी अंतिम इच्छा क्या है, तो वह बोलते थे, ‘बस इतना करो कि टीवी पर रामायण लगा दो। एक बार फिर देख लूं।’
     प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय 

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