पहलवान को रोक न पाई दुनिया
सावधान, आपका डिलडौल भी आपका दुश्मन बन सकता है। लोग ही ऐसे हैं कि आपको देखते ही आपकी औकात का अनुमान लगा लेते हैं, लेकिन अक्सर ऐसे अनुमान हकीकत के सामने ढेर हो जाते हैं। लोगों को यह पता है कि दिखने में...
सावधान, आपका डिलडौल भी आपका दुश्मन बन सकता है। लोग ही ऐसे हैं कि आपको देखते ही आपकी औकात का अनुमान लगा लेते हैं, लेकिन अक्सर ऐसे अनुमान हकीकत के सामने ढेर हो जाते हैं। लोगों को यह पता है कि दिखने में क्या रखा है, लेकिन तब भी महज डिलडौल देख मन बना लेते हैं। ऐसा ही उस लड़केके साथ हो रहा था। कद साढे़ पांच फीट भी नहीं और वजन बमुश्किल 50 किलोग्राम। वह किसी की नजरों पर अनायास चढ़ता ही नहीं था। लोग देखते थे, हां, ठीक है, एक सामान्य दुबला-पतला लड़का है, पढ़ाई-लिखाई भले ठीक कर ले, लेकिन शरीर से क्या कमाल दिखाएगा भला?
कॉलेज का वार्षिक उत्सव होने वाला था। कॉलेज के तगडे़-तगडे़ लड़के कुश्ती के लिए चुने जा रहे थे। खेल शिक्षक ऊपर से देखकर ही तय कर ले रहे थे कि कौन कुश्ती के लायक है। उस लड़के का मन नहीं माना, वह भी खेल शिक्षक के पास पहुंच गया कि कुश्ती में जोर आजमाना है। खेल शिक्षक ने उस लड़के को नजर भर देखा और मना कर दिया कि तुम कुश्ती लायक नहीं हो। लड़के ने गुहार लगाई, सर, मौका दीजिए, लेकिन शिक्षक टस से मस नहीं हुए।
लड़के की चिंता बढ़ गई, कॉलेज स्तर पर ही जब लड़ने नहीं दिया जाएगा, तो फिर आगे क्या होगा? क्या अखाड़ा छोड़ दिया जाए? दूसरा कोई होता, तो हार मान लेता। उस जमाने में शिक्षक के खिलाफ जाने की हिम्मत कोई नहीं करता था। शिक्षक जो बोल देते थे, उसे विद्यार्थी अंतिम मान लेते थे। शिक्षक ने बोल दिया कि मैं कुश्ती लायक नहीं हूं, तो क्या अखाड़ा छोड़ दूं? फिर मन में आया कि हिम्मत हारने से काम नहीं चलेगा, अभी नहीं, तो कभी नहीं। कॉलेज में नहीं लड़े, तो आगे कहां लड़ेंगे? वह निर्णायक क्षण था, जब उस लड़के ने हिम्मत की और प्रिंसिपल के पास पहुंच गया, सर, कुश्ती में भाग लेना है। प्रिंसिपल ने कहा, तो खेल शिक्षक के पास जाओ। लड़के ने निराशा से कहा, उन्होंने मना कर दिया है, तभी आपके पास आया हूं।
प्रिंसिपल ने गौर से देखा और सामान्य बुद्धि लगाकर समझ गए कि खेल शिक्षक ने क्यों मना कर दिया। दुबला-पतला लड़का है, कहीं खेल-खेल में ही हड्डी न तुड़वा ले। एक से एक मुस्टंडे कॉलेज में पढ़ते हैं, इसे अखाडे़ में मसल डालेंगे। प्रिंसिपल क्या करते, लड़का अड़ा हुआ था, मान गए, ‘जाओ, मौका दिया।’
फिर क्या था? एक के बाद एक कुश्ती में उस लड़के ने एक से बढ़कर एक अपने से दूने-तीने आकार के पहलवानों को पटक मारा। पहलवान आते थे और सेकंडों में खुद को झाड़ते, ढोते, कराहते निकल लेते थे। रातोंरात कॉलेज में ख्याति हो गई कि एक पॉकेट डायनोमो पलक झपकते पहलवानों को चित्त कर देता है।
इस प्रतियोगिता ने उस लड़के खाशाबा दादासाहेब जाधव अर्थात के डी जाधव को आत्मविश्वास से भर दिया, लेकिन आगे की राह भी आसान नहीं थी, क्योंकि लोग अक्सर उन्हें देखकर धोखा खाते थे। देश की आजादी के अगले साल लंदन में ओलंपिक का आयोजन होना था। पहलवान चुने जा रहे थे। उस वक्त के सबसे तगड़े छह फीट से भी ज्यादा ऊंचे बंगाली पहलवान निरंजन दास को सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा था। जाधव ने उन्हें चुनौती दी। निरंजन दास भी आश्वस्त थे कि नाटे पहलवान को पलक झपकते जमीन सूंघा देंगे, लेकिन हुआ उल्टा। तब निरंजन ने बहाना बनाया कि वह तैयार नहीं थे और जाधव ने अचानक हमला बोल दिया, फिर मौका दिया जाए। तगड़े पहलवान की मानी गई, मुकाबला फिर हुआ, निरंजन फिर ढेर हुए, लेकिन खेल अधिकारियों ने अपना प्रचलित खेल बखूबी दिखा दिया। ओलंपिक के लिए जारी सूची में जाधव का नाम नहीं था, उनकी जगह तगड़ी डिलडौल वाले निरंजन थे। जाधव को फिर बड़ी भागदौड़ करनी पड़ी। फिर मुकाबला हुआ, निरंजन फिर पटकाए, तब जाधव के ओलंपिक जाने का रास्ता खुला। उस ओलंपिक में वह छठे स्थान पर रहे।
अगले ओलंपिक में जाधव का जाना तय था, पर पैसे नहीं थे, तब कोल्हापुर के राजा राम कॉलेज के उन्हीं प्रिंसिपल आर खर्दिकर ने अपना घर गिरवी रखकर सहयोग किया। बताते हैं, मदद मांगने पर महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने तो कहलवा दिया था कि बोलो, ओलंपिक के बाद मिलेंगे। तब सरकारों का यही नजरिया था, खिलाड़ी अपने ही खर्चे पर ओलंपिक में भाग लेने जाते थे। खैर, 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में जाधव ने आजाद भारत के लिए पहला व्यक्तिगत पदक कांस्य जीतकर इतिहास रच दिया। जीतने के बाद मुख्यमंत्री उन्हें माला पहनाने आए। जिस पहलवान को कभी लड़ने लायक नहीं माना जा रहा था, उसके रिकॉर्ड की बराबरी करने में ही देश को 44 साल लग गए।
प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय