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ऐसे न काटो पेड़ कि एक दिन बह जाओ

कुछ ऐसे ऋण होते हैं, जिन्हें चुकाने के बारे में बहुत कम लोग सोचते हैं। हम पानी के भी ऋणी हैं और हवा, मिट्टी के भी। हमें गलतफहमी है कि हवा और पानी मुफ्त है, इसके लिए किसी को क्या चुकाना? सावधान...

ऐसे न काटो पेड़ कि एक दिन बह जाओ
Amitesh Pandeyगौरा देवी, वन और पर्यावरण संरक्षकSat, 04 Nov 2023 09:35 PM
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कुछ ऐसे ऋण होते हैं, जिन्हें चुकाने के बारे में बहुत कम लोग सोचते हैं। हम पानी के भी ऋणी हैं और हवा, मिट्टी के भी। हमें गलतफहमी है कि हवा और पानी मुफ्त है, इसके लिए किसी को क्या चुकाना? सावधान, नहीं चुकाना है, तो इंतजार कीजिए, अभी पानी और हवा कभी-कभी खरीदनी पड़ती है, एक समय आएगा, जब हर पल नकद भुगतान से खरीदनी पड़ेगी, तब उस ऋण का आभास होगा, जो हमने सदियों से नहीं चुकाया है। 
ये हवा और पानी कोई आज के नहीं हैं। सदियां लगती हैं, तब सुंदर हवा, पानी से लैस पहाड़ खड़े होते हैं और उन पर पेड़ लहलहाते हैं। वहां बस्तियां बसती हैं। ऐसी ही एक बस्ती हिमालय की गोद में बसी थी, जहां एक बच्ची अपनी मां के साथ लगभग रोज ही लकड़ी चुनने जंगल जाया करती थी। रोज कुछ सूखी लकड़ियां मिल ही जाती थीं कि कुछ भोजन जीवन के लिए पकाया जा सके। एक दिन शायद बच्ची का लकड़ी चुनने जाने का मन नहीं था, उसने अपनी मां से कहा, ‘इतने तो पेड़ हैं, किसी पेड़ की बड़ी डाली काटकर रख लेते हैं, लकड़ी सूखती रहेगी, भोजन बनता रहेगा, रोज-रोज जंगल नहीं आना पड़ेगा?’ 
वास्तव में, ज्यादातर लोग यही तो करते हैं, पेड़ काटकर खूब सारी लकड़ियां एक ही बार में जुटा लेते हैं। खूब लकड़ियां जलाते हैं, गुमान में जीते हैं और रोज लकड़ी चुनने जाने वालों को पिछड़ा हुआ या कम बुद्धि वाला समझते हैं, पर यहां तो कहानी अलग थी और उसका मुख्य किरदार अलहदा। मां ने बड़े प्यार से समझाया कि पेड़ कैसे काट लेंगे, ये पेड़ तो हमारे भाई-बहन हैं, यह तो हमारा मायका है, कोई अपना घर अपने हाथों से काटता या उजाड़ता है क्या?
मां की बात सुन बच्ची को खूब आश्चर्य हुआ, तो मां ने और प्यार से समझाया, ‘पेड़ों की जड़ें हाथों की तरह होती हैं। वे जमीन को पर्वत पर थामे रखती हैं। वे भारी बारिश और पिघलती बर्फ का पानी भी थामती हैं। अगर कभी किसी ने हमारे इन भाइयों और बहनों को काटा, तो हमारा पूरा गांव ही बह जाएगा, तब हम कहां रहेंगे?’ बच्ची को एक अलग ही दुनिया में होने का एहसास हुआ। पेड़ अचानक ही बहुत बहुमूल्य लगने लगे। ये फल देते हैं, छाया देते हैं, लकड़ी देते हैं और हमारे गांव व जमीन को भी बचाते हैं। इनसे बढ़कर हमारा सगा कौन है? बच्ची के मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। संवेदना का वह स्तर मन में बना कि उसे किसी पेड़ की सूखी लकड़ी लेते हुए भी कुछ संकोच होने लगा। वह पेड़ों के प्रति हमेशा के लिए गहरे आभार भाव से भर गई। हम पर पेड़ों का जो ऋण है, उसे उस बच्ची ने समझ लिया।  
खैर, ऐसे बहुत से सजग बच्चे-बच्चियां और बड़े-बुजुर्ग हैं, जो पेड़ों को भाई-बहन मानते हैं, पर हमारी सरकारों ने ऐसा कब माना है? उनके लिए पेड़, जंगल तो ऐसे संसाधन मात्र हैं, जिनका मनमाना दोहन हर लिहाज से जायज है। वैसे भी, आज से पचास साल पहले सरकारी वन विभाग कुल्हाड़ी और माचिस के लिए खास बजट रखता था और सोचता था कि पेड़ कभी खत्म नहीं होंगे। काटते चले जाओ, क्या फर्क पड़ता है? वैसे तो पचास साल पहले ही जंगल उजड़ने लगे थे और पहाड़ खिसकने लगे थे। नदियां पहाड़ों में भी तबाही मचाने लगी थीं, लेकिन वन विभाग के अहंकार की तंद्रा नहीं टूटी थी। वे जंगल काटने-कटवाने की बेशर्म साजिश रचते थे। एक दिन उन्होंने गांव के पुरुषों को कहीं अलग काम से बुलाया और पीछे से पेड़ काटने वालों को भेज दिया। सोचा कि महिलाएं विरोध नहीं कर पाएंगी, पर तब तक उस सजग मां की बच्ची गौरा देवी 48 साल की हो चली थीं। वह अपनी 27 सदस्यीय महिला मंडली को लेकर पेड़ बचाने निकल पड़ीं। उन्हें लौट जाने के लिए खूब डराया गया, उन पर बंदूक तान दी गई, पर वह हटने को तैयार नहीं हुईं। सारी महिलाएं कटने जा रहे पेड़ों से जा लगीं। 
निडर गौरा देवी (1925-1991) ने ऐलान कर दिया, ‘हम पेड़ों को गले लगा रहे हैं। यदि आप पेड़ काटेंगे, तो आपको पहले हम पर कुल्हाड़ी चलानी पड़ेगी।’ यह खबर पूरे देश में जंगल में आग की तरह फैल गई। उत्तराखंड का रैणी गांव सबकी जिज्ञासा का केंद्र बन गया। गौरा देवी के नेतृत्व में सभी महिलाएं लकड़हारों को पेड़ काटने से रोकने के लिए लगातार तीन दिन व रात सतर्क रहीं। पेड़ काटने का हर बहाना मुंह के बल जा गिरा। अंतत: प्रशासन शर्मसार हुआ और अफसर उल्टे पांव लौटे। पहाड़ों में पेड़ों को बचाने की लहर दौड़ गई, जिसे ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से हमेशा याद किया जाता है। सरकार को अपने कुछ नियम बदलने पड़े थे। आज जब भी पहाड़ों पर विपदा आती है, शहरों में प्रदूषण जानलेवा हो जाता है, गौरा देवी अनायास याद आती हैं। काश! हम सब प्रकृति का मोल समझ पाते।    
     प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय 

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