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नंगे पैर दौड़कर स्वर्ण पदक

वह जवान पहाड़ी वाले उस गांव में रहता था, जहां पहुंचना आसान नहीं था। मिट्टी के घरों वाले उस गांव को सड़क ने भी नहीं छुआ था। लोग पैदल चलते, दौड़ते हुए ही कहीं जाते-आते थे। उस जवान को भी आदत पड़ी हुई थी। एक...

नंगे पैर दौड़कर स्वर्ण पदक
अबेबे बिकिला ओलंपिक धावकSat, 31 Jul 2021 11:15 PM
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वह जवान पहाड़ी वाले उस गांव में रहता था, जहां पहुंचना आसान नहीं था। मिट्टी के घरों वाले उस गांव को सड़क ने भी नहीं छुआ था। लोग पैदल चलते, दौड़ते हुए ही कहीं जाते-आते थे। उस जवान को भी आदत पड़ी हुई थी। एक खास हॉकी वहां के लड़के खेलते थे, जिसमें विरोधी टीमों के गांवों में गोलपोस्ट होते थे, गोल करने के लिए गेंद को कुछ मील दूर तक ले जाना पड़ता था। खैर, उस जवान को काफी दिन बेरोजगार भी रहना पड़ा। अंतत: देश के राजा के गार्ड के रूप में बहाली हुई, तो जिंदगी थोड़ी सुधरी।
लेकिन तब भी घर से काम की जगह तक सफर दौड़ते हुए ही तय करना होता था। गाड्र्स के कोच ओनी निस्कैनन रोज उस जवान को सुल्ता से अदीस तक दौड़ते आते-जाते देखते थे। एक दिन अचानक उनके मन में ख्याल आया कि यह जवान रोज बीस किलोमीटर से ज्यादा दौड़ता आता-जाता है। पहाड़ी क्षेत्र में इतना दौड़ना आसान नहीं, लेकिन यह दौड़ता है और सबसे बड़ी बात इसमें थकान नहीं दिखती। अगर इसे मैराथन दौड़ाया जाए, तो कैसा हो? कुछ दिन और दौड़ते देखने के बाद निस्कैनन ने उस जवान से कहा, तुम गंभीरता से मैराथन पर ध्यान दो, इसमें बहुत कामयाब हो सकते हो। खेल प्रशिक्षक ओनी के बोलने का बड़ा असर हुआ, वह जवान सोचने लगा, क्या मैं भी मैराथन में भाग ले सकता हूं? दुनिया देख चुके विदेशी प्रशिक्षक जब कह रहे हैं, तो शायद उन्होंने कुछ देखा हो। उस जवान ने इसे चमत्कार ही माना कि कोच की नजर उस पर पड़ी। 
खैर, कोच ने एक नहीं, बल्कि तीन जवानों को मैराथन के लिए चुना और प्रशिक्षण शुरू किया। उन्होंने लिखा है कि वे अच्छे लड़के थे। उन्हें सिखाना आसान था, लेकिन उनका खेल अनुभव नंगे पांव फुटबॉल खेलने तक सीमित था। 24 की अपेक्षाकृत पकी उम्र में उस जवान ने गंभीरता से दौड़ना शुरू किया।
उधर, 1956 के मेलबर्न ओलंपिक में भी इथियोपियाई एथलीटों ने भाग लिया था, लेकिन सफलता नहीं मिली थी। उसके बाद ओनी निस्कैनन ने अपने तीन खिलाड़ियों पर गंभीरता से काम शुरू किया। वह तीनों को लेकर अपने देश स्वीडन अपने घर आ गए। ओनी ने अपने परिवार को पहले ही बता दिया कि ये इथियोपियाई युवा भविष्य के महान धावक हैं। ओनी का विश्वास उस जवान के मन में भी संचारित हुआ। दौड़ने में सुधार की शुरुआत हुई। जोर लगाकर दौड़ने के बजाय आराम से दौड़ने की आदत पड़ी। कम से कम सांस लेते हुए, अपनी ऊर्जा को कम से कम खर्च करते दौड़ना शुरू हुआ। कोच ने अच्छी तरह समझा दिया कि लंबी दूरी तक दौड़ना है, तो झटके मारकर नहीं, लय में दौड़ो। समस्याएं तब भी कम नहीं थीं, देश के राजा ने कह दिया, इतने पतले लोग ओलंपिक में पदक कैसे जीतेंगे, लेकिन ओनी जानते थे कि उस जवान को हर हाल में सबसे आगे दौड़ने की आदत है। 
आखिर वह दिन भी आया, जब रोम ओलंपिक 1960 में दौड़ना था। वहां भी बाधा खड़ी हो गई, जूते फिट नहीं आ रहे थे, तो खाली पैर दौड़ने का ही फैसला लेना पड़ा। मैराथन करीब 41 किलोमीटर की थी, लोग सोच में पड़ गए, इतनी लंबी दूरी कोई धावक खाली पैर कैसे पूरी कर पाएगा? पचास से अधिक धावकों ने दौड़ना शुरू किया। धीरे-धीरे वह जवान सभी धावकों से आगे निकलता गया, उसे लग रहा था कि पीछे से कोई धावक पूरी रफ्तार से आएगा, तो ऊर्जा को संजोए रखना होगा। वह पूरा जोर नहीं लगा रहा था, लेकिन तब भी रिकॉर्ड तोड़ते दौड़ रहा था। किसी ने उस धावक का नाम तक नहीं सुना था। दोपहर बाद शुरू हुई दौड़ अंधेरे में पूरी होने जा रही थी। एक पत्रकार ने उन पलों के बारे में लिखा, ‘अचानक हम दूर एक छोटे से काफिले की रोशनी को टिमटिमाते देख रहे थे, तब वह भी बढ़ते आते दिखे, ...लयबद्ध ढंग से दृढ़ता के साथ दौड़ते चले आ रहे थे, एक ऐसे शहर की सड़क पर, जहां उनके पूर्वज कभी गुलाम थे।’ 
वाकई रोम की जमीन पर इतिहास बन गया। वह जवान अबेबे बिकिला ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहले अश्वेत अफ्रीकी बने। उनकी जीत ने पूरे अफ्रीका में नई उमंग, उत्साह, बदलाव की हवाओं का संचार कर दिया। पूरा अश्वेत अफ्रीका आजादी व शानदार भविष्य के कगार पर आ खड़ा हुआ और अबेबे बिकिला इसके प्रतीक थे। गरीब और नंगे पांव, लेकिन विजयी। 
बताते हैं कि स्वर्ण जीतने के बाद किसी ने पूछा कि आप थके नहीं दिखते, और कितना दौड़ लेते, तो बिकिला ने जवाब दिया, ‘और दस-पंद्रह किलोमीटर।’ वाकई, वह थके नहीं, अगली बार टोक्यो ओलंपिक में भी दौड़े और फिर स्वर्ण जीतकर साबित कर दिया कि कोच की खोज गलत नहीं थी। 
    प्रस्तुति : ज्ञानेश उपाध्याय

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