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गुरु और उनके घर का काम

मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ। इलाहाबाद का जिक्र आते ही पूरा बचपन आंखों के सामने से घूम जाता है। इलाहाबाद में हम जहां रहते थे, वहां पूरी दुनिया आती थी। हमारा घर लोकनाथ के पास था। वहां खाने-पीने की एक से...

गुरु और उनके घर का काम
हरिप्रसाद चौरसिया, प्रसिद्ध बांसुरी वादकSat, 11 Aug 2018 09:57 PM
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मेरा जन्म इलाहाबाद में हुआ। इलाहाबाद का जिक्र आते ही पूरा बचपन आंखों के सामने से घूम जाता है। इलाहाबाद में हम जहां रहते थे, वहां पूरी दुनिया आती थी। हमारा घर लोकनाथ के पास था। वहां खाने-पीने की एक से बढ़कर एक चीजें मिलती हैं। राम आधार की कुल्फी, हरि की नमकीन खाने के लिए लोग जाने कहां-कहां से आते थे। राजा की बर्फी, जलेबी। मेरे घर के पास ही भारती भवन की लाइब्रेरी थी। करीब ही एक व्यायामशाला भी थी। मेरे पिताजी पहलवान थे, वह वहां जाया करते थे। उनका नाम वैसे तो श्रीलाल चौरसिया था, लेकिन दंगल प्रतियोगिताएं जीतने की वजह से उन्हें आस-पड़ोस के लोग पहलवान साहब ही कहकर बुलाया करते थे।  

जब मैं पांच साल का था, तभी मेरी मां हमें छोड़कर चली गई थीं। मैं तो इतना छोटा था कि मुझे कुछ याद भी नहीं। मैं याद रखने वाली उम्र में तब पहुंचा ही नहीं था। मां से भी पहले मेरे भाई अचानक दुनिया छोड़ गए थे। ये सब कुछ मेरे पांच साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते हो चुका था। घरवाले कहते थे कि मां के इतनी कम उम्र में जाने का कारण वह सदमा था, जो उन्हें मेरे भाई के जाने से लगा था। इतना याद है कि मां को जब दाह-संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था, तो लोग कुछ ‘जलाने’ की बात कर रहे थे। मुझे छोड़कर सब लोग मां के शव को लेकर चले गए थे। अकेले होने की वजह से मैं बहुत रोया था। मैं सबको खोजने के लिए घर से निकल गया था। किसी से पूछते-पूछते घाट की तरफ चला आया था। वहां पर दलदल में फंस गया। बड़ा भयावह था वह दिन। अगले दिन पिताजी ने मुझे समझाया कि मां की मौत हो गई है। अब वह कभी वापस नहीं आएंगी। मुझे ज्यादा कुछ समझ नहीं आया, पर अब याद करता हूं, तो लगता है कि इन दोनों घटनाओं से पिताजी एकदम टूट से गए थे। पिताजी अपने बेटे को पहलवान बनाना चाहते थे, जो हो नहीं पाया। 

थोड़ा बड़ा हुआ, तो बहुत शरारती बन गया था। पिताजी काम में व्यस्त रहते थे। मेरा काम सिर्फ शरारत करना होता। पिताजी का जीवन बहुत अनुशासन वाला था। वह तड़केही उठ जाते थे। भजन गाते, बादाम पीसते, फिर पास के मंदिर जाते थे। लौटते समय घर में जरूरत की चीजें लाया करते थे। गाय का दूध निकालना, व्यायामशाला जाना उनकी यही दिनचर्या थी। उनके इस ‘शेड्यूल’ का असर यह था कि मुझे कोई देखने वाला या मेरी निगरानी करने वाला नहीं था। अब भला छोटा बच्चा खाली बैठकर क्या करेगा? या तो दौड़ेगा-भागेगा या फिर किसी को परेशान करेगा। मैं दिन भर यही सब करता रहता था। शाम को जब वह वापस आते और कोई उनसे शिकायत कर देता, तो मुझे मार भी पड़ती थी। पिताजी पहलवान आदमी थे, तो थोड़ा दिखाते भी थे कि देखो, पहलवान के लड़के को मारा जा रहा है। 

एक बार पिताजी पूजा करने के लिए बैठे थे, तो केरोसिन खत्म हो गया। उन्होंने मुझसे कहा कि केरोसिन लेकर आओ। मैं केरोसिन लेने निकला। रास्ते में बंदर का नाच हो रहा था। मैं घंटों बंदर का नाच देखता रहा। मेरे दिमाग से ही उतर गया कि मुझे केरोसिन लेने के लिए भेजा गया है। बाद में जब केरोसिन लेकर घर पहुंचा, तो बहुत देर हो गई थी। मैंने अपनी तरफ से बहानेबाजी का तरीका अपनाया। कहानी बनाई कि वहां बहुत भीड़ थी, लेकिन उस रोज मेरा कोई बहाना चला नहीं। खूब पिटाई हुई। 

हर पिता की तरह वह भी चाहते थे कि मैं पहलवान बनूं। बड़े भाई के अचानक जाने के बाद उनकी उम्मीदें मुझसे ही थीं। मेरा पहलवानी से कोई लेना-देना नहीं था। एक बार मंदिर में कीर्तन सुना था। वह मन में बैठ गया था। कुछ समय बाद मैंने चोरी-छिपे बांसुरी बजाना सीखना शुरू किया। पिताजी ने पकड़ा, तो बड़ी मार पड़ी। लेकिन बांसुरी सीखनी थी, तो मैंने सीखी। गुरु के पास सीखने गया, तो वहां मुझे उनके घर का काम भी करना पड़ता था। उन्हें कोई काम होता, तो उसको करना मैं अपना कर्तव्य समझता था। मुझे लगता कि उनसे कुछ पाना है, तो उन्हें कुछ देना भी होगा। पैसे तो मेरे पास थे नहीं। पैसे वह मांगते भी नहीं थे। गुरुजी बहुत साधारण व्यक्ति थे। कभी कहते कि जरा सब्जी लेते आओ। जरा मसाले लेते आओ। जरा मसाले पीस दो। बर्तन मांज दो। बस ऐसे ही घरेलू काम करने होते थे। वह मुझे प्यार भी बहुत करते थे। कोई भी दिन ऐसा नहीं होता था, जब वह मुझे खाना खिलाए बिना खुद खा लें। वह उम्र में भी ज्यादा बड़े नहीं थे, लेकिन गुरु तो गुरु होता है। मेरी नजर में तो वह भगवान जैसे हैं। जारी...

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