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दादी के साथ बीते बचपन की बातें

बचपन की जो यादें ताजा हैं, उनमें काफी सारा संघर्ष है और ढेर सारा स्वाभिमान। मैं एक स्वतंत्रता सेनानी के परिवार से हूं। एक ऐसे परिवार से, जिसने स्वतंत्रता के लिए, जितनी यातनाएं हो सकती हैं, सब झेली...

दादी के साथ बीते बचपन की बातें
मनीषा कोइराला, मशहूर अभिनेत्रीSat, 04 Nov 2017 11:05 PM
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बचपन की जो यादें ताजा हैं, उनमें काफी सारा संघर्ष है और ढेर सारा स्वाभिमान। मैं एक स्वतंत्रता सेनानी के परिवार से हूं। एक ऐसे परिवार से, जिसने स्वतंत्रता के लिए, जितनी यातनाएं हो सकती हैं, सब झेली हैं। मेरे परदादा नेपाल के एक बड़े ‘बिजनेस मैन’ थे। नेपाल के शासक के साथ उनकी अनबन हो गई, तो उन्हें हिन्दुस्तान आना पड़ा। वहां से आने के बाद उनका संघर्ष बहुत बड़ा था। सड़क पर फूल-मालाएं बेचकर उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया। दादी यह सब बताया करती थीं कि हम कैसे संघर्षों से गुजरकर आगे आए हैं। वह बताती थीं कि मेरे दादाजी के पास सिर्फ एक जोड़ी कपड़े थे। दिन भर वह उसे पहनते थे, और शाम को उनको धोया जाता था। ऐसे में, रात में वह सिर्फ गमछे में रहते थे। एक ही टूटी हुई चप्पल थी, वह उसी को पहनते थे। 

एक बार मेरे दादाजी भूख हड़ताल पर बैठ गए थे। वहां के शासक ने उनकी हड़ताल तुड़वाने की हर मुमकिन कोशिश की, लेकिन दादाजी नहीं माने। धीरे-धीरे दादाजी की तबियत बिगड़ने लगी। तब वहां के शासक ने मेरी दादी और परदादी को बुलाया और कहा कि वे समझा-बुझाकर उनका भूख हड़ताल तुड़वाएं, वरना वह मर जाएंगे, तब मेरी परदादी ने वहां के शासक को कहा कि उन्हें अपने बच्चे को अपने संकल्प से डिगने के लिए कहना पड़े, इससे अच्छा तो वह मर ही जाए। 

मैं ऐसी ही बातों को सुन-सुनकर बड़ी हुई। आदर्शवाद, संघर्ष, त्याग, यह सब कुछ मैंने अपने बचपन में देखा है। आज की तरह तब ताकत और सुविधाएं बटोरने के बारे में लोग नहीं सोचते थे। बाद में मेरे दादाजी ने पिताजी और मम्मी को नेपाल के राजनीतिक आंदोलन में उतार दिया, और मुझे बनारस में मेरी दादी के पास रख दिया। मैं वहीं पर पली-बढ़ी हूं। मैंने बसंत कन्या महाविद्यालय से पढ़ाई की है। बचपन में मेरे घर का माहौल वैसा ही था, जैसा एक स्वतंत्रता सेनानी के घर का होता है। घर पर काफी लोग आते थे। प्रोफेसर, लेखक, बुद्धिजीवी, राजनेता, चिंतक, हर तरह के लोग। मेरे दादाजी की वजह से ज्यादातर ऐसे लोगों का आना-जाना था। हमारे घर में दस से ज्यादा लोग होते थे और पूरे घर का खर्च तीन से पांच हजार रुपये में चलता था। मेरा बचपन बेहद साधारण माहौल में बीता है, जिसमें बहुत सारे आदर्श और बहुत सारी शिक्षाएं थीं। मेरी दादी भरतनाट्यम व मणिपुरी डांसर थीं, जबकि मां कथक डांसर। लिहाजा घर पर शास्त्रीय गीत-संगीत का अच्छा-खासा माहौल था। तीन साल की उम्र से ही मुझे भी मणिपुरी, भरतनाट्यम और कथक सिखाया जाने लगा था। जब मैं कुछ बड़ी हुई, तो मैं मुंशी प्रेमचंद और शिवानी की किताबें पढ़ा करती थी। हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी के ‘क्लासिक’ उपन्यास भी पढ़ती थी। अंग्रेजी के ज्यादातर उपन्यास मेरे पिताजी ने मुझे दिए थे। इन सबसे मेरा बचपन काफी ‘इंटरेस्टिंग’ रहा। 

स्कूल में मैं बहुत ज्यादा शरारती नहीं थी। हां, खेल-कूद में मन लगता था। हम लोग बास्केटबॉल खूब खेलते थे। मैंने ‘स्टेट-लेवल’ पर बास्केटबॉल खेला है। शरारत के नाम पर यही होता था कि हम पूरी की पूरी टीम क्लास ‘बंक’ करके बास्केटबॉल की ‘प्रैक्टिस’ के लिए चले जाते थे। हम दोस्तों ने ऐसी मस्ती खूब की है। स्कूली दोस्तों के साथ हमारा अच्छा वक्त बीतता था। मैं एक राजनीतिक परिवार से थी, इसलिए वहां खाने-पीने का माहौल कोई बहुत अच्छा नहीं था। मेरे मुकाबले मेरे दोस्तों के टिफिन बहुत अच्छे होते थे। दोस्तों की मां परांठे, अचार, सब्जियां देती थीं, जबकि मेरे टिफिन में बड़ा ‘र्बोंरग’ खाना होता था, बहुत हुआ तो ब्रेड-बटर। मुझे याद है कि मैं स्कूल पहुंचने के बाद से ही ‘इंटरवल’ का इंतजार करने लगती थी। जैसे ही ‘इंटरवल’ होता, मैं दोस्तों के ‘टिफिन’ खाती थी। फिर स्कूल के बाहर जो फल बेचते थे, इडली बेचते थे, उनसे भी कभी-कभार कुछ खरीदकर खा लिया करते थे। बसंत कन्या महाविद्यालय चूंकि लड़कियों का स्कूल था, सो हम लड़कियों की एक पूरी टोली थी, जो खेलने और खाने, दोनों में बहुत तेज थी। हम सब लड़कियों ने मिलकर खूब मौज-मस्ती की है। अभी भी मैं उनमें से कई के संपर्क में हूं। फोन से, वाट्सएप से। जब कभी बनारस जाती हूं, उनसे जरूर मिलती हूं। बचपन के दोस्तों से मेरा रिश्ता कुछ इसी तरह का है। 
यह बहुत साधारण सा बचपन था। कोई ताम-झाम नहीं था। लेकिन शास्त्रीय संगीत, नृत्य, किताबें, साहित्य, दर्शनशास्त्र, ये सभी हमारे लिए जीवन का हिस्सा थे। ये सारी आदतें बचपन से ही हमारे लिए कोई नई बात नहीं थी। ये हमारी ‘अपब्रिंगिंग’ का आम हिस्सा हैं। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए मैं दिल्ली आ गई। दिल्ली में मेरा ‘एडमिशन’ धौला कुआं के आर्मी पब्लिक स्कूल में हुआ। यह उस वक्त की बात है, जब मैं डॉक्टर बनना चाहती थी। बनारस से दिल्ली आकर पढ़ाई करने का मकसद भी यही था। (जारी...)

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