त्वरित टिप्पणीःराहुल गांधी के लिए खुशी का दिन पर रास्ता अभी हमवार नहीं
टी-20 मैचों की सनसनी भी मंगलवार को उस समय फीकी पड़ गई, जब टेलीविजन के परदों पर कभी कांग्रेस, तो कभी भाजपा आगे निकलती हुई नजर आ रही थीं। इन आंकड़ों के उतार-चढ़ाव के साथ लोगों का रक्तचाप भी घट-बढ़ रहा था।...
टी-20 मैचों की सनसनी भी मंगलवार को उस समय फीकी पड़ गई, जब टेलीविजन के परदों पर कभी कांग्रेस, तो कभी भाजपा आगे निकलती हुई नजर आ रही थीं। इन आंकड़ों के उतार-चढ़ाव के साथ लोगों का रक्तचाप भी घट-बढ़ रहा था। आप इसे क्या मानेंगे? जवाब साफ है। भारतीय मतदाता ने स्पष्ट कर दिया है कि हम किसी की जागीर नहीं हैं।
सियासी पोस्टमार्टम के पुरोधा भाजपा की हार के लिए भ्रष्टाचार, किसान-असंतोष, सत्ताधारियों के अहंकार, 2014 के अतिरंजित चुनावी वायदों अथवा कांग्रेस की बदली हुई रणनीति को भले ही श्रेय दें, पर मैं इसे लोकतंत्र की जीत कहूंगा। मतदाता ने साफ कर दिया है कि वह किसी एक दल अथवा नेता के पीछे लंबे समय तक चलने के मूड में कतई नहीं हैं। आप चाहें, तो इसे 2019 का पूर्वाभास भी कह सकते हैं।
ध्यान रहे, इन तीन राज्यों में भाजपा को 2014 में अभूतपूर्व बढ़त हासिल हुई थी। यह नरेन्द्र मोदी की लहर का कमाल था कि मध्य प्रदेश की 29 में से 27, छत्तीसगढ़ की 11 में से 10 और राजस्थान की सभी 25 सीटों पर कब्जा कर भाजपा ने दिल्ली फतह का मार्ग प्रशस्त किया था। इन परिणामों से स्पष्ट है कि अगर हालात ऐसे ही बने रहे, तो 2019 में इस जादू को दोहराना भाजपा के लिए नामुमकिन होगा।
यह ठीक है कि कांग्रेस ने जोरदार वापसी की है, पर जनता जनार्दन ने उसे भी एकतरफा करम से नहीं नवाजा है। जिस राजस्थान में वसुंधरा राजे को बेहद अलोकप्रिय बताया जा रहा था, वहां इन पंक्तियों को लिखे जाने तक कांग्रेस खुद कुल 99 पर जीत सकी। इसी तरह, मध्य प्रदेश में भी, जहां कमलनाथ 140 सीटों का दावा कर रहे थे, 113 सीटों से संतोष करना पड़ रहा है। वहां उसे सरकार बनाने के लिए सपा-बसपा या स्थानीय छोटे दलों का सहयोग लेना पड़ सकता है।
बहुजन समाज पार्टी और सपा भले ही आज कांग्रेस को सहारा दें, पर यह सच है कि उसकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा भी वही साबित हुए। बगावती निर्दलीयों के साथ नितांत इलाकाई दलों ने भी दोनों राष्ट्रीय पार्टियों का रास्ता रोक अपना वजूद जता दिया है। तेलंगाना इसका जीता-जागता उदाहरण है। वहां 119 में से 88 सीट जीतकर के चंद्रशेखर राव ने अपनी पकड़ जग-जाहिर कर दी है। इसके साथ ही मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट के हाथ लगी 26 सीटें बताती हैं कि भारतीय लोकतंत्र में इलाकाई क्षत्रपों का महत्व फिलहाल कम होने वाला नहीं है।
मतलब साफ है, 2019 में विनम्र गठबंधनों के अलावा इन दोनों राष्ट्रीय दलों के पास कोई विकल्प नहीं है। एक और बात राहुल गांधी को सियासी तौर पर अस्पृश्य बनाने की कोशिशें नाकाम हो गई हैं। एक साल पहले आज ही के दिन वह देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष घोषित किए गए थे। मतदाता उन्हें इस मौके पर इससे बेहतर तोहफा नहीं दे सकते थे। मोदी विरोधी राजनीति की धुरी बनने से अब उन्हें रोकना संभव नहीं होगा।
राहुल ने इस अवसर पर समूची विनम्रता का परिचय देते हुए अपनी प्रेस कांफ्रेंस में सबसे पहले तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को उनके अच्छे कार्य की बधाई दी । तय है , वे राजनीति में इधर प्रचलित हुए मुहावरों से अलग शब्दावली गढ़ रहे हैं । भारतीय राजनीति को नए विमर्श की ज़रूरत है । उनकी यह अदा यूपीए को नए सहयोगी तलाशने में मददगार होगी ।
एक और तथ्य पर गौर कीजिए। कांग्रेस जहां नए दोस्त तलाश रही है, वहीं एनडीए के अंदर की दरारें बढ़ती जा रही हैं। बिहार में तेजी से उभरे उपेंद्र कुशवाहा इन चुनाव परिणामों से ठीक एक दिन पहले सत्तारूढ़ गठबंधन से किनारा कर गए। सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना पहले से खुन्नस खाए हुए है। भाजपा के खराब प्रदर्शन पर उसने प्रसन्नता व्यक्त कर जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। पी.डी.पी. की महबूबा मुफ्ती की तरह अलग चुनाव लड़ने की घोषणा तो उद्धव ठाकरे पहले ही कर चुके हैं। यह ठीक है कि सूबाई चुनाव केन्द्र सरकार के कामकाज पर प्रत्यक्ष जनादेश नहीं होते पर इसमें दो राय नहीं कि भगवा दल के कर्णधारों के लिए यह वक्त रणनीति पर पुनर्विचार का है।