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योगी, माया, आजम का अर्थ

पिछली बार लोकसभा चुनाव में जिस दिन अंतिम दौर का प्रचार थमा, उस शाम मुल्क के लाखों मर्यादापसंद नागरिकों ने राहत की सांस ली थी। यूं तो चुनाव-दर-चुनाव हमारे राजनेता लोगों की सामाजिक आस्थाओं पर आघात करते...

योगी, माया, आजम का अर्थ
शशि शेखरSat, 20 Apr 2019 09:48 PM
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पिछली बार लोकसभा चुनाव में जिस दिन अंतिम दौर का प्रचार थमा, उस शाम मुल्क के लाखों मर्यादापसंद नागरिकों ने राहत की सांस ली थी। यूं तो चुनाव-दर-चुनाव हमारे राजनेता लोगों की सामाजिक आस्थाओं पर आघात करते आए हैं, लेकिन 2014 पतन की लंबी परछाइयों पर लोटता नजर आया था। चैन की घर वापसी की वह बेबस आस महज कुछ दिन टिक सकी। बाद के पांच वर्षों में विधानसभा के 25 चुनाव लड़े गए और हर बार समूचा देश ऊंचे पदों के प्रत्याशियों की गिरावट का दर्दनाक मंजर देख बेबसी से तिलमिलाता रहा। इन दिनों हम फिर से वैचारिक पतन की उसी घिनौनी बजबजाहट के शिकार हैं।

अंतत: चुनाव आयोग ने कुछ कठोर फैसले लेकर थोड़ा ढांढ़स बंधाने की कोशिश की है, पर उसका रास्ता कम दुरूह नहीं। वजह? जब देश की हर पार्टी के शीर्षस्थ नेताओं पर आदर्श चुनाव आचार संहिता की सरेआम चिंदियां उड़ाने के आरोप हों, तो ऐसा होना लाजिमी है। गंगा अगर अपनी मैदानी बहावट में गंदली हो रही हो, तो उसे साफ किया जा सकता है, पर गंगोत्री ही गंदगी उगलने लगे, तो उसे भला कौन साफ करेगा? ऐसे में टी एन शेषन याद आते हैं। उन्होंने केंद्र सरकार को तीन मंत्रियों की बेदखली के लिए बाध्य कर दिया था। उन जैसा जिगर बाद के चुनाव आयुक्तों में नहीं देखने को मिला।

हालांकि, हमारे नेता भी अब अधिक चतुर हो गए हैं। नियम-कायदे और विधि-विधान की ऐसी कौन-सी बारीकी है, जिसकी वे काट न कर सकते हों? आयोग ने योगी आदित्यनाथ, मायावती, मेनका गांधी और मोहम्मद आजम खान के 48 से 72 घंटे तक चुनाव प्रचार पर पाबंदी लगा दी। लोक-लाज और राजनीतिक मर्यादा का तकाजा था कि वे चुप बैठ प्रायश्चित करते, पर नहीं, उन्होंने सुर्खियां जुटाने के दूसरे तरीके ईजाद कर लिए। 
मायावती ने इस निर्णय के कुछ घंटे के भीतर प्रेस कांफ्रेंस कर आरोप जड़ दिया कि यह निर्णय नई दिल्ली की हुकूमत पर बिराज रही भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर किया गया है। उन्होंने आयोग को दलित-विरोधी करार देते हुए उसकी जमकर लानत-मलामत की। खबरें जब डिजिटल ज्वार की तरंगों पर तिरने को बेचैन हों, तो ऐसे बयान सिर्फ सुर्खियों में नहीं आते, बल्कि बिना वक्त गंवाए वायरल हो जाते हैं। डिजिटल मीडिया के आंकडे़ चीख-चीखकर मुनादी करते हैं कि सदाचारी सियासी प्रवचनों के मुकाबले तीखे आरोप और विवादास्पद बोल लोगों का ज्यादा ध्यान आकर्षित करते हैं। ‘बहनजी’ ने ऐसा किया और बाजी मार ली। चुनाव आयोग के फैसलों के साथ उनका बयान भी रात गहराने के साथ फैलता चला गया। 

गेरुआ वस्त्रधारी योगी आदित्यनाथ जानते हैं कि उनके प्रशंसक उन्हें एक काबिल प्रशासक से ज्यादा धर्माचार्य के तौर पर पसंद करते हैं। उन्होंने अगली सुबह से दूसरी युक्ति अपनाई। वह लखनऊ में गोमती नदी के तट पर स्थित हनुमान सेतु मंदिर में जा विराजे। टीवी और मोबाइल कैमरों के जरिए उनके मुदित मुख के साथ समर्थकों के ‘जय सियाराम’ की अनुगूंज पूरी दुनिया तक ‘लाइव’ पहुंच रही थी। चुनाव आयोग को जो करना था, कर लिया, पर किसी को पूजा करने से तो रोका नहीं जा सकता। योगी की मंदिर यात्रा ‘वायरल’ होनी थी, हुई। वह यहीं नहीं रुके, अगले दो दिन उन्होंने अयोध्या में रामलला, देवीपाटन में दलित के यहां भोज और काशी में आश्रम दर्शन पर लगाए। मीडिया ने बिना बोले ही उनके संदेश को मतदाता तक पहुंचा दिया। 

उधर रामपुर में मोहम्मद आजम खां के विधायक बेटे ने पत्रकार वार्ता में आरोप जड़ा कि उनके पिता पर पाबंदी मुस्लिम होने की वजह से लगाई गई है। मतलब साफ है, आयोग का यह फैसला समाज को गोलबंद करने की कोशिशें रोक नहीं पाया। धर्म, जाति और संप्रदाय को ध्यान में रखकर राजनीति करने वाले नेताओं की काट वैसे भी आसान नहीं है। आप याद करें। 1995 में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने जब आयोग की चेतावनियों के बावजूद एक वर्ग विशेष के लिए विषवमन नहीं छोड़ा, तो उन पर छह साल के लिए चुनाव लड़ने अथवा वोट डालने पर पाबंदी लग गई थी। इससे उनकी लोकप्रियता घटने की बजाय बढ़ गई थी। अगले चुनाव में मुंबई के सत्ता-सदन पर उनका मुख्यमंत्री काबिज था और अटल बिहारी वाजपेयी के सत्ता-मंडल में उनके नुमाइंदे प्रमुख पदों पर थे। 

जो देश जाति, धर्म, भाषा, संप्रदाय और क्षेत्रीयता की खंदकों-खाइयों में खुद को महफूज महसूस करता हो, वहां ऐसा होना स्वाभाविक है। दुर्भाग्य से दुर्गति की यह दास्तान यहीं खत्म नहीं हो जाती। 

चुनावों में धनबल का इस्तेमाल दूसरी बड़ी विपदा है। आयकर विभाग के सूत्रों के अनुसार, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक लगभग 695 करोड़ रुपये की नकदी इन चुनावों के दौरान बरामद की जा चुकी है। मतलब साफ है कि न काला धन खत्म हुआ है और न उसका इस्तेमाल। जाति-धर्म की नारेबाजी के बीच गरीब मतदाताओं पर नोटों की वर्षा भी चुनावी राजनीति का दूसरा महारोग है। यही वजह है कि इस गरीब मुल्क में अमीर हुक्मरानों की तादाद बढ़ती जा रही है और देश की पूंजी तेजी से कुछ घरानों तक सीमित होती जा रही है। मतदाताओं को समझना ही होगा कि उन्माद और लालच का यह व्यापार सिर्फ और सिर्फ उसका बुनियादी हक मार रहा है। क्षणिक उन्माद और लालच देश अथवा उसके वासियों के लिए कितने खतरनाक हैं, ये चुनाव इसकी भी मिसाल हैं। 

कोई आश्चर्य नहीं कि संसार की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में एक द इकोनॉमिस्ट  ने पिछले साल प्रकाशित ‘डेमोक्रेसी इंडेक्स 2018’ में भारत को ‘दोषपूर्ण लोकतंत्र’ की श्रेणी में रखा था। इस रिपोर्ट ने खुलासा किया कि संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र ‘चुनाव प्रक्रिया और बहुलतावाद’,‘सरकार की कार्य-शैली’, ‘राजनीतिक सहभागिता’, ‘राजनीतिक संस्कृति’ और ‘नागरिक आजादी’ की कसौटी पर बुरी तरह पिट गया है।

अगर आपने इसी चुनाव से लोकतंत्र के लिए घातक इन प्रवृत्तियों का प्रतिकार नहीं शुरू किया, तो पुरखों के बलिदान से उपजी इस जम्हूरियत की नींव चुनाव-दर-चुनाव दरकती जाएगी। इसका अंजाम क्या होगा, यह बताने की जरूरत है क्या? 

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