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मनमोहन सिंह ने ऐसा क्यों कहा

‘जब 1984 की दुखद घटनाओं ने आकार ले लिया था, तब गुजराल जी उस मनहूस शाम को तत्कालीन गृह मंत्री नरसिंह राव के पास गए और उनसे कहा कि हालात विकट हैं। ऐसे में, यह जरूरी हो गया है कि सरकार जल्दी से...

मनमोहन सिंह ने ऐसा क्यों कहा
शशि शेखरSat, 07 Dec 2019 09:13 PM
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‘जब 1984 की दुखद घटनाओं ने आकार ले लिया था, तब गुजराल जी उस मनहूस शाम को तत्कालीन गृह मंत्री नरसिंह राव के पास गए और उनसे कहा कि हालात विकट हैं। ऐसे में, यह जरूरी हो गया है कि सरकार जल्दी से जल्दी सेना तैनात कर दे। अगर उनकी सलाह मानी गई होती, तो संभवत: 1984 का नरसंहार टाला जा सकता था।’ ये शब्द हैं भारत के पूर्व प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह के। वह स्वर्गीय इंद्र कुमार गुजराल की जन्मशती के अवसर पर आयोजित एक समारोह में बोल रहे थे।

कहने की जरूरत नहीं कि उनके इस बयान से सोशल मीडिया और सियासी जगत में हंगामा बरपा हो गया। सवाल उठने लगे कि इस रहस्योद्घाटन की वजह क्या थी? अब, जब वह दुखद अध्याय अतीत का हिस्सा बन चुका है, तो क्या इस बयान के बाद जिन्न एक बार फिर  कब्र से बाहर नहीं आ जाएगा? पूछने वाले यह भी पूछने लगे कि आखिर इसके लिए यही समय क्यों चुना गया? कुछ ही महीनों में दिल्ली में विधानसभा चुनाव हैं। पहले से लड़खड़ाई कांग्रेस पर क्या इसका दुष्प्रभाव नहीं पडे़गा? यह सच है कि इस बयान के बाद नरसिंह राव के साथ राजीव गांधी भी लपेटे में आ गए हैं। विरोधियों ने बिना मौका गंवाए सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं कि उस समय प्रधानमंत्री तो राजीव गांधी थे, उन पर यह आरोप क्यों नहीं?

अगर अतीत के परदे को हटाकर देखें, तो सवालों की नई शृंखला सिर उठाती नजर आएगी। इंदिरा गांधी को सुबह गोलियों से छलनी कर दिया गया था। राजीव गांधी उस वक्त पश्चिम बंगाल में थे। उन्हें आने में वक्त लगा। इस दौरान सत्ता के गलियारों में उथल-पुथल मची हुई थी। शाम ढले तय किया गया कि राजीव प्रधानमंत्री बनेंगे। इस बीच सिखों पर हमले शुरू हो चुके थे। अगले कुछ दिनों तक यह शर्मनाक हिंसा जारी रही। अफरा-तफरी के उस वक्त में एक अनुभवहीन प्रधानमंत्री और वार्धक्य की दहलीज पर खडे़ गृह मंत्री से क्या उम्मीद की जा सकती थी? कायदे से अनुभवी गृह मंत्री को कमान सम्हालनी चाहिए, पर वह कारगर साबित नहीं हुए। क्यों?

इन सवालों का जवाब देने के लिए राजीव और राव अब इस दुनिया में नहीं हैं। मनमोहन सिंह देश के सर्वाधिक गंभीर नेताओं में माने जाते हैं। उन्होंने आधी सदी से भी अधिक लंबे अपने सार्वजनिक जीवन में कभी कोई हल्की बात नहीं की। यहां हमें उनके और नरसिंह राव के संबंधों को भी याद रखना होगा। राव जब 1991 में दुर्घटनावश सत्तानशीं हुए, तो उन्होंने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया था। खुद सिंह इस बात को सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि भारत में आर्थिक उदारीकरण की क्रांतिकारी शुरुआत वह महज इसलिए कर सके, क्योंकि उन्हें राव का समर्थन और सुझाव हमेशा हासिल रहा। कुछ ही महीने पहले उन्हें ‘पीवी नरसिंह राव नेशनल लीडरशिप ऐंड लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड’ दिया गया था। मनमोहन सिंह ने न केवल उसे विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया, बल्कि उसके लिए आयोजित समारोह में अपने पूर्व ‘बॉस’ की जमकर प्रशंसा भी की। ऐसे में, अचानक इतनी बड़ी तोहमत क्या साबित करती है?

मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि मुझे मनमोहन सिंह की नीयत में कभी खोट नजर नहीं आया। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए आपको दिसंबर 2006 में ले चलता हूं। हम जापान जा रहे थे। नई दिल्ली स्थित वायु सेना के हवाई जहाज ने टोकियो के लिए उड़ान भरी ही थी कि प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार संजय बारू मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि थोड़ी देर में आपको प्रधानमंत्री से मिलना है। कुछ देर बाद जब मुलाकात हुई, तो बातचीतके दौरान मैंने सुझाव दिया कि आने वाले दिनों में पंजाब और उत्तराखंड में चुनाव हो रहे हैं। आप देश के पहले सिख प्रधानमंत्री हैं और कांग्रेस को लेकर सिखों का एक धड़ा अच्छा नहीं महसूस करता। क्यों न आप अमृतसर में एक जनसभा करें और स्वर्ण मंदिर में जाकर मत्था भी टेकें? यह सिर्फ सियासत नहीं, बल्कि भारत के समन्वयवादी ताने-बाने के लिए भी अच्छा होगा। यही नहीं, आपको उत्तराखंड के सिख बहुल इलाकों में भी जनसभाएं करनी चाहिए। आदतन वह चुप रहे। उनके चेहरे पर भी कोई प्रतिक्रिया न आई।

बताता चलूं। उन दिनों अखबारों में खबरें छप रही थीं कि मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री अवश्य हैं, पर कांग्रेस उनका उपयोग चुनावी सभाओं के लिए नहीं कर रही। बहरहाल, कुछ देर बाद मुलाकात खत्म हो गई और मैं अपनी सीट पर आकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद ही संजय बारू मेरे पास आए और दोस्ताना अंदाज में मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहा कि आपने मेरा काम बढ़ा दिया। बॉस ने पंजाब और उत्तराखंड का कार्यक्रम बनाने के लिए कहा है। यहां उस घटना का जिक्र करने का आशय यह नहीं है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री ने मेरी सलाह मानी, पर इससे एक बात जरूर साफ हो गई थी कि मनमोहन सिंह देश के संवेदनशील मुद्दों के प्रति कितने सजग हैं। वह बाद में न केवल हरमंदिर साहिब गए, बल्कि उन्होंने अपने शब्दों से सिख मानस को सहलाने की सार्थक कोशिश भी की।

इससे पहले अगस्त 2005 में भी राज्यसभा में एक बहस के दौरान हस्तक्षेप करते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘मुझे सिख समुदाय से माफी मांगने में कोई हिचक नहीं। मैं न सिर्फ सिख समुदाय, बल्कि पूरे देश से माफी मांगता हूं कि 1984 में जो कुछ हुआ, वह हमारे संविधान में निहित राष्ट्रवाद की अवधारणा को खंडित करने वाला था। मैं अपनी सरकार, बल्कि पूरे देश की तरफ से शर्म से सिर झुकाता हूं कि ऐसी घटना घटी।’  

अब जब भी भारत के इतिहास में ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिखों के साथ हुई ज्यादती का जिक्र आएगा, उसके साथ कांग्रेस के सिख प्रधानमंत्री की नेकनीयती भी लिखी जाएगी। पुरानी कहावत है- समय बदलता है। हमारे राजनेता उस बदलाव की आहट को दूर से पहचान लेते हैं। सवाल उठता है कि सिखों के प्रति संवेदना और नरसिंह राव के प्रति श्रद्धा रखने के बावजूद मनमोहन सिंह ने ऐसा क्यों कहा, जिससे विवाद खड़ा हो गया? इस सवाल का जवाब या तो मनमोहन सिंह दे सकते हैं या फिर आने वाले दिनों की घटनाएं। वे तय करेंगी कि क्या यह एक कुशल राजनीतिज्ञ का सधा हुआ ‘तीर’ था अथवा मौके के अनुरूप कही हुई बात, जो ‘बतंगड़’ बन गई।

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