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कोरोना डायरी 1 : बेहाली की अंधी सुरंग

22 मार्च, 2020 : चारों ओर गहरा- काला सन्नाटा पसरा हुआ है। कोरोना की जिस महामारी को हमने सिर्फ चीन और उसके पड़ोसी देशों की समस्या समझा था, वह हमारे घर आ घुसी है। पता नहीं आस-पास विचर रहे लोगों में...

कोरोना डायरी 1 : बेहाली की अंधी सुरंग
शशि शेखर ,नई दिल्लीSat, 28 Mar 2020 04:43 PM
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22 मार्च, 2020 : चारों ओर गहरा- काला सन्नाटा पसरा हुआ है। कोरोना की जिस महामारी को हमने सिर्फ चीन और उसके पड़ोसी देशों की समस्या समझा था, वह हमारे घर आ घुसी है। पता नहीं आस-पास विचर रहे लोगों में से किसके जिस्म में उसका वायरस पल रहा है और उसका अगला शिकार कौन है? भारतीय वाचालताएं और शेखीखोरी हवा हो गई है। अब खौफ है और उससे उपजे सरोकार। मामला गंभीर है, ये सब मानते हैं पर कोई नहीं जानता कि यह कब तक खिंचेगा? हमें अभी कैसे दिन देखने शेष हैं?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज सुबह सात बजे से रात नौ बजे तक ‘जनता कर्फ्यू’ का आह्वान किया था। जो काम चीन अथवा पश्चिमी देशों ने पुलिस और सेना के संगीनों के जरिए किया, वे उसे जन-जागृति के जरिए करना चाहते थे। यह उनकी अपील का असर था या रविवार का कमाल अथवा वाकई हम सरोकार संपन्न हो गए हैं कि समूचा देश थम गया। सरकारी हुक्म का असर कि आसमान से हवाई जहाज नदारद हो गए। ट्रेन के पहिए ठिठक गए। राजमार्गों पर अगर दूर तक कुछ दिख रहा था, तो सिर्फ कोरा, एकांकी कोलतार या कंकरीट।

और-तो-और, मैं नोएडा की जिस सोसायटी में रहता हूं, यहां के वाशिंदे खुद को भद्रलोक मानते हैं। फैशन के अनुरूप हर कोई सुदर्शन दिखना चाहता है। उनके लिए लॉन टेनिस, बैडमिंटन, योग, बिलियर्ड्स, टेबल टेनिस, तरणताल के साथ अत्याधुनिक जिम भी है। फूहड़ अंग्रेजी धुनों के कानफाड़ू शोर में लोग यहां शरीर तराशने की जुगत करते नजर आते हैं। ये सब पहले ही बंद कर दिया गया था।

सिर्फ एक ‘वॉकिंग ट्रैक’ रह बची थी। सुबह-शाम दर्जनों लोग उन पर उतर आते। कोई हंसता, कोई गुनगुनाता, कोई संगीत सुनता, तो कोई नकचढ़ा बिसुराए मुंह के साथ चहल-कदमी करता दिखता। यहां उल्लास से उछलते बच्चे होते, तो वार्धक्य काट रहे बुजुर्ग भी। पीढ़ियों का अंतराल और उनके दम-घोटू वैचारिक विभेद को किसी पुरानी साम्यवादी सरकार की तरह यह ट्रैक एकसार करती रहती पर आज सुबह से यह भी विकल, बेबस और अकेली नजर आई।

मनभावन हवा, विशाल पार्क के पेड़ों को झुमा रही थी पर उनके साथ झूमने वाला कोई न था। तंद्रा का यह आलम पौने पांच बजे के करीब टूटा। एक कर्कश आवाज लाउडस्पीकर पर गूंजी- Alll pl come to your balconies. अंग्रेज़ी के बिना हम ख़ुद को गंवार मानते हैं । पता नहीं कहाँ से बिगुल , मजीरे, पूजा की घंटियां, शंख और कुछ वाद्य-यंत्र निकल आए। देखते-देखते पार्क में भी दर्जनों लोग इकट्ठा हो गए।वे भूल गए कि उन्होंने ख़ुद ‘Social distancing को चुना है । धरती से 22 वें माले की बालकनियों तक बस तुमुल ध्वनि थी। मन में सवाल उभरा, ये लोग कोरोना को चुनौती दे रहे हैं या अपना भय भगा रहे हैं?

या , इस दारुण बेला में भी आमोद का अस्थायी बूस्टर खोज लिया गया है । टिकटॉक के लिए वीडियो बनाने में मशगूल नौजवानों को देखकर ऐसा ही लग रहा था ।विचित्र मुद्राएं और अत्यंत अयाचित आचार । उन्हें कोरोना से ज्यादा ‘लाइक्स’ की परवाह थी।उनकी भी जुगत काम न आयी ।

कुछ ही देर में सन्नाटे ने फिर जोरदार आमद दर्ज करा दी। मुझे लगा कि सरसराती हवा, झूमते पेड़ और फुरफुराती घास मुझे बुला रही है। कल हो न हो, आज तो इस नेमत का आनंद उठा लें। ट्रैक पर अकेले चलते समय गुनगुना उठा- बेकरारी सी बेकरारी है। ये जौन आलिया भी न जाने कहाँ छिपे बैठे थे। अचानक मोर की आवाज सुनाई पड़ती है। कुछ देर पहले लगा था की कहीं कोयल कूकी है। इसके साथ ही कुछ और तरह-तरह की छिटपुट ध्वनियां कानों से टकराती हैं। नोएडा के राजपथों से उपजे शोर ने इन्हें हमसे छीन लिया था। थे तो ये कल भी। अगर थे तो कलरव भी कर रहे होंगे पर शोर हमारी जिंदगी का ऐसा तत्व बन गया है, जो इन सबको बिला लागलपेट रोज-ब-रोज लील जाता है। हमें कोरोना से तो शिकायत है, पर इससे कोई शिकवा नहीं?

अब कहीं दूर कुत्तों के भौंकने की आवाज आ रही है। ये भी कल तक नदारद थी। चारों ओर पसरी अट्टालिकाओं में महंगी लाइटें कुछ इस अदा से जल रही हैं, जैसे नोएडा और ग्रेटर नोएडा अपनी ही आग में झुलस रहे हों। इन भवनों में रोशनियां तो हैं, पर लोग नहीं। बिना लोगों के कैसे भवन, कैसे भुवन? हम एक ऐसे दौर में प्रवेश कर रहे हैं, जहां बहुत कुछ ऐसा छिपा है, जिससे हमारी पीढ़ी के लोग भी अनजान हैं।

हे अनजान आगत! हम आ रहे हैं। भरोसा है, तुम्हारी कुटिल काल शक्ति को भी वह दंश लील जाएगा जिसे हम इंसानी सभ्यता कहते हैं।

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