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अपने बच्चों को बचाने का वक्त

पिछले महीने दिल्ली पुलिस ने जब एक साढ़े-चार वर्षीय बच्चे के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा दर्ज किया, तो दिल धक् से रह गया। शुरुआत में लगा कि पुलिस से चूक हुई है, पर नहीं, मामला आशंका से अधिक गंभीर...

अपने बच्चों को बचाने का वक्त
शशि शेखरWed, 13 Dec 2017 10:17 PM
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पिछले महीने दिल्ली पुलिस ने जब एक साढ़े-चार वर्षीय बच्चे के खिलाफ बलात्कार का मुकदमा दर्ज किया, तो दिल धक् से रह गया। शुरुआत में लगा कि पुलिस से चूक हुई है, पर नहीं, मामला आशंका से अधिक गंभीर था। लड़की की मां का आरोप था कि इस हादसे से मेरी बच्ची सदमे में है। उनका कहना था कि स्कूल प्रशासन ने मामला दबाने की कोशिश की, क्योंकि बालक की अबोध उम्र के चलते उसके कृत्य पर कोई विश्वास करने को तैयार नहीं था। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि साढ़े चार साल का बच्चा, जो तमाम शब्दों, भावों और अनुभूतियों को समझ तक नहीं सकता, वह ऐसी हरकत कैसे कर सका? प्रसंगवश यह बताने में हर्ज नहीं कि कानून में भी सात साल से कम उम्र के बच्चों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करने की मुमानियत है, पर इस विषय पर चर्चा जरूरी है, क्योंकि मामला मुल्क की मासूमियत की तबाही का है। पुलिस, समाज और चिकित्सा विज्ञानी इसमें सिर खपा ही रहे थे कि एक महीने के अंदर दूसरी घटना सामने आ गई। इस बार गाजियाबाद में पांचवीं कक्षा के छात्र ने दूसरी कक्षा की छात्रा के साथ गलीज हरकतें कीं। 

मैं ऐसी घटनाओं के विस्तार में नहीं जाना चाहता, पर इसमें से एक कृत्य की दिशा आश्चर्यजनक तौर पर निर्भया के हत्यारों जैसी कू्रर थी। देश को दहला डालने वाले उस कांड में शामिल नाबालिग देश के कानून के मुताबिक सजा काटकर बरी हो चुका है। कहते हैं निर्भया के साथ सर्वाधिक दरिंदगी उसी किशोर ने बरती थी। क्या हमारी हवा इतनी जहरीली हो गई है कि बचपन से बचपना फना हो गया है? कुछ पलायनवादी इस दलील के जरिए फुर्सत पा लेना चाहते हैं कि ऐसा हमेशा से होता आया है। मैं इस विचारधारा को पोसना नहीं चाहता। ऐसा कहने का एक तात्पर्य यह भी है कि आगे भी ऐसा ही होता रहेगा, जिसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। हमें अपने बच्चों को समय से पहले वयस्क होने से रोकना होगा। अब तक के अनुभव बताते हैं कि इस तरह की छेड़खानी के शिकार बच्चों का गृहस्थ-जीवन अक्सर बेपटरी रहता है। बचपन की गलतियों के काले साये उनका ताजिंदगी पीछा करते रहते हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ पीड़ित ही इस पीड़ा की आग में जलते हैं। दुव्र्यवहार करने वालों के कदम भी आजीवन बहकते रहते हैं। उन्हें हमेशा सही मशविरा और वातावरण की दरकार होती है। निर्भया कांड का किशोर खलनायक अब वयस्क हो चुका है। एक सामाजिक संगठन लगातार उस पर नजर रख रहा है, पर जिस देश में हर दूसरा बच्चा इस कपट का शिकार होता हो, वहां हर एक की मदद मुमकिन नहीं। यह एक खतरनाक संकेत है।

इस मुद्दे की भयावहता को एनसीआरबी के आंकड़े प्रमाणित करते हैं। सन 2003 में जहां 466 किशोरों के खिलाफ दुष्कर्म के मामले दर्ज किए गए थे, वहीं दस वर्ष बाद यानी 2013 में यह आंकड़ा 1737 तक पहुंच गया। 2015 में 1688 किशोर ऐसे आरोपों की जद में आए। इनमें से 88 पर सामूहिक दुष्कर्म के आरोप हैं। यहां साफ करना जरूरी है कि यह सिर्फ दर्ज हुए मामले हैं। जिस देश में लोग पुलिस के पास जाने से डरते हों, वहां अपराध और अपराधियों की सही गणना नामुमकिन है। सवाल उठता है कि यह बीमारी हमारे बीच इतनी तेजी से पैर कैसे पसार रही है? अब तक किशोर इसकी चपेट में थे, पर जब अबोध गिरफ्त में आने लगें, तो हमें डर जाना चाहिए। बच्चों से हम मिठास की उम्मीद करते हैं, क्रूरता की नहीं।

मैं कोई समाज विज्ञानी नहीं, परंतु ऐसे बच्चों की काउंसिलिंग से जुड़े एक विशेषज्ञ से बातचीत के बाद पता चला कि अधिकांश मामलों में घर-परिवार अथवा परिचितों के बच्चों ने इस तरह की हरकतें कीं। मामला अक्सर ‘अपने लोगों’ की बदनामी से जुड़ा होता है, इसलिए पुलिस से शिकायत नहीं की जाती। कभी-कदा जब स्कूलों अथवा सार्वजनिक स्थलों पर ऐसा हो जाता है, तब अभिभावकों का गुस्सा उन्हें पुलिस की चौखट तक ले जाता है। इस समस्या से जूझ रहे लोगों का यह भी मानना है कि एकल परिवारों व छोटे घरों में रिहाइश और पोर्न के प्रसार की वजह से बच्चे अनजाने में वह सब कुछ जान जाते हैं, जो ‘वर्जित’ माना जाता है। इस कुटैव के प्रसार की और भी वजहें हैं, पर यह नया चलन ज्यादा परेशानी भरा साबित हो रहा है। इसीलिए मैं इस चर्चा को इन्हीं बिंदुओं तक सीमित रखना चाहता हूं। मैं यहां जान-बूझकर ‘बड़ों’ के दुष्कर्मों की बात नहीं कर रहा। उस पर काफी लिखा-बोला जा चुका है। क्या आपको नहीं लगता कि कुछ विकृत वयस्कों की करतूतें पहले किशोरों तक पहुंचीं और अब वे मानवता की सबसे हसीन निशानी बालपन को लीलने लगी हैं?

पोर्न फिल्मों का दिन-दूना-रात-चौगुना बढ़ता कारोबार इस तथ्य की पुष्टि करता है। न्यू मेक्सिको स्टेट यूनिवर्सिटी की सहायक प्रोफेसर कसिया वोसिक के अनुसार, साल 2014-15 में दुनिया भर में पोर्न का कारोबार 97 बिलियन डॉलर तक पहुंच चुका था। इनमें से अकेले अमेरिका में 10 से 12 बिलियन का कारोबार होता है। भारत में मोदी सरकार ने इस कारोबार पर रोक लगाने की कोशिश तो की है, पर डिजिटल दुनिया की आग आसानी से नहीं बुझती। उसके पास प्रसार के तमाम रास्ते हैं। बाजारवाद ने जहां अनजानी प्रतिभाओं को पनपने का अवसर प्रदान किया, वहीं पोर्न, ड्रग्स, हथियारों की तस्करी जैसी हत्यारी अलामतों को भी आम कर दिया है। पोर्न इसमें सबसे आम और आसान है। इस पर रोक लगाना आसान नहीं है। आपको याद होगा, कर्नाटक विधानमंडल के एक माननीय सदस्य सदन में ही अपने मोबाइल में पोर्न देखते धरे गए थे। जब कानून बनाने वालों का यह हाल है, तो औरों से क्या उम्मीद करें?

कुछ पलायनवादी कुतर्क देते हैं कि कामसूत्र  के देश में हमें पोर्न फिल्मों पर रोक लगाने जैसी बचकानी बातें नहीं करनी चाहिए। अति उत्साह में वे यह भी बताते हैं कि कोणार्क और खजुराहो के मंदिरों में हमारे पूर्वजों ने ऐसे दृश्य उत्कीर्ण कर अपनी उदार उन्मुक्तता का परिचय दिया था। वे भूल क्यों जाते हैं कि ये दोनों मंदिर राजपूत युग के अंतिम चरण में बने और इसके बाद ही भारत विदेशी आक्रमणकारियों का गुलाम होता चला गया। उपासना स्थल और विद्यालय जब लालसाओं का केंद्र बनने लगें, तो पतन लाजिमी है। इतिहास की इस चेतावनी की अनदेखी बड़ी परेशानी का सबब बन सकती है। अच्छा होगा, हम समय रहते चेत जाएं।

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