भीड़ की आड़ में आतताई
अलीगढ़ जिले के टप्पल कस्बे में ‘शांति’ की घर वापसी हो रही है, अलबत्ता दहशत अभी तक कायम है। भारतीय लोकतंत्र की यह खासियत है कि कुछ समय में डर हमारे साथ और हम डर के साथ जीना सीख लेते हैं।...
अलीगढ़ जिले के टप्पल कस्बे में ‘शांति’ की घर वापसी हो रही है, अलबत्ता दहशत अभी तक कायम है। भारतीय लोकतंत्र की यह खासियत है कि कुछ समय में डर हमारे साथ और हम डर के साथ जीना सीख लेते हैं। ऊपरी तौर पर इसके फायदे भले ही दिखाई पड़ें, मगर सच यह है कि ऐसी हर घटना हमारे सह-अस्तित्ववादी चेहरे पर खरोंच के नए निशान छोड़ जाती है।
भरोसा न हो, तो गई 26 अप्रैल को अलवर जिले में हुए सामूहिक दुष्कर्म की शर्मनाक घटना को याद कर लीजिए। उस दिन एक दलित दंपति की मोटर साइकिल रोककर पति के सामने ही पत्नी से पांच लोगों ने दुष्कर्म किया। अपनी इस वहशियाना हरकत का उन्होंने वीडियो बनाया और वायरल भी कर दिया। तय है, उन्हें लगता था कि उनकी यह करतूत सामाजिक सुरक्षा के उनके आवरण को भेद नहीं पाएगी, वे सुरक्षित रहेंगे। शुरुआती तौर पर आततायी सही साबित हुए। पुलिस ने सात मई तक इस घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की।
पुलिस की ‘कृपा’ से भी इस कुकृत्य पर परदा नहीं पड़ सकता था। अपराधियों ने वीडियो जो वायरल कर रखा था। पाप लुढ़की हुई बोतल की स्याही की तरह समूची सूर्खी से फैलता चला गया। प्रधानमंत्री तक ने इसका जिक्र किया और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पीड़ितों के दर तक जा पहुंचे। बलात्कारी अब सलाखों के पीछे हैं। उम्मीद है, विधि-व्यवस्था उन्हें उनके किए की सजा देगी। जब यह वहशियाना हरकत सामने आई, तब भी सवाल उठा था कि हमारे देश में महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं? इसकी एक वजह यह भी थी कि कठुआ के जख्म तब तक ताजा थे।
आपको बताने की जरूरत नहीं कि कठुआ में क्या हुआ था? पिछले हफ्ते ही उसका फैसला आया है, जिसके तहत एक आराधना स्थल में आठ साल की मासूम बच्ची के साथ जघन्यतम जुल्म करने वाले तीन लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। अत्याचारी तो कानून की वेदी पर चढ़ गए, लेकिन उनका क्या, जो एक बेटी और उसके परिवार के दुर्भाग्य में अपना राजनीतिक सौभाग्य ढूंढ़ रहे थे? प्रदेश सरकार में शामिल दो मंत्रियों ने इस घटना को सांप्रदायिक रंगत देने की कोशिश की थी और हम सबने लजाते हुए उस भीड़ की नारेबाजी सुनी थी, जो इस बर्बर कार्रवाई के खलनायकों को निर्दोष बताने में जुटी थी।
सियासत तब भी सिर चढ़कर बोल रही थी।
अब टप्पल की घटना ने साबित कर दिया है कि हुकूमत चाहे किसी की भी हो, और उसकी नीयत चाहे कितनी भी साफ हो, पर राजनीति अपनी कालिख बिखेरकर रहेगी। कठुआ की पीड़िता को जो जलालत अपने जीवन की अंतिम घड़ियों में भोगनी पड़ी थी, वह इंसाफ मिलने तक जारी रही। आज टप्पल की बेटी के साथ यही हो रहा है। हर बार जहां एक तरफ हिन्दुस्तानियों का एक तबका पीड़ित और उसे पीड़ा पहुंचाने वालों की धार्मिक अथवा जातीय पहचान में सिर खपा रहा होता है, वहीं दूसरी तरफ यह प्रवृत्ति नए शिकार तलाश रही होती है। भरोसा न हो, तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकडे़ उठाकर देख लीजिए। पांच साल के भीतर नाबालिग और अबोध बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं में दोगुने से अधिक की बढ़ोतरी हुई है। 2012 में 17 वर्ष अथवा उससे कम उम्र की बच्चियों से जोर-जबरदस्ती के 8,541 मामले दर्ज किए गए थे, जो 2016 में 19,765 तक पहुंच गए। सन 2012 वही साल है, जब ‘निर्भया’ कांड हुआ था और उसके बाद संसद ने बलात्कार से संबंधित कई कानूनी प्रावधानों को बेहद कड़ा कर दिया था। इसके बावजूद देश में हर रोज बलात्कार की 106 घटनाएं दर्ज की जाती हैं। इनमें से 40 फीसदी पीड़िता छोटी बच्चियां होती हैं।
कौन कहता है कि कानून बना देने से इस तरह की पैशाचिक प्रवृत्तियों पर अंकुश लग सकता है? यहां बताना जरूरी है कि भारत की कानून-व्यवस्था के अंतर्विरोध जांचकर्ताओं के सामने गतिरोध की फौलादी दीवार बनकर खडे़ होते हैं। अदालत में जुर्म साबित करने के लिए जिन साक्ष्यों की जरूरत होती है, उन्हें जुटाना एवरेस्ट की फतह से भी मुश्किल होता है। कठुआ और टप्पल की घटनाओं के दौरान भीड़ के आक्रोश ने उसे और जटिल बना दिया था। कठुआ की जांचकर्ता श्वेतांबरी शर्मा पर कैसे-कैसे आरोप लगाए गए थे! पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए जब एक महिला वकील दीपिका राजावत सामने आईं, तो अदालत से रोजमर्रा के रहन-सहन तक उनकी राह में रोडे़ खड़े किए गए। इन दोनों महिलाओं को सलाम, वे अपने नेक मकसद से डिगी नहीं। श्वेतांबरी के आरोप पत्र और दीपिका की तार्किक बहस ने अपराधियों के चेहरों पर चढे़ नकाब नोंचकर फेंक दिए हैं।
इस मामले ने इंसाफ तक का सफर जरूर तय कर लिया है, पर कुछ सवाल हमें अभी तक मुंह चिढ़ा रहे हैं। वे जो इन बर्बर लोगों का बचाव कर रहे थे, क्या वे खुद अपनी सामाजिक मान्यताओं के अपराधी नहीं हैं? इस देश को कानून से ज्यादा अपनी रवायतों और आंखों की शर्म पर भरोसा करना चाहिए। कठुआ से टप्पल तक पिछले डेढ़ बरस में जो कुछ घटा है, वह साबित करता है कि हमारी आंखों का पानी सूख रहा है। इसे दुरुस्त करने की बजाय हमने तरह-तरह की रंगत वाले चश्मे धारण कर लिए हैं। यह खतरनाक है और उससे भी खतरनाक यह है कि यह प्रवृत्ति पांव पसार रही है।
तीन साल बाद हम आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहे होंगे। हो सकता है कि तब तक सरकार हर बेघर को छत मुहैया करवा चुकी हो। मुमकिन है, तब तक बिजली सड़क, पानी की समस्याओं का भी हल हो चुका हो, पर भूलिए मत, छत तो टप्पल की पीड़िता के पास भी थी। छतें सुरक्षा की गारंटी नहीं हुआ करतीं। यह समय है, जब हमें एक बार अपने देश में फिर से सामाजिक आंदोलनों की अलख जगानी होगी, क्योंकि सियासत ने अपनी मनमोहक नारेबाजी से पिछले पांच दशकों में हमारे आधारभूत संस्कारों पर चोट पहुंचाई है। एक समय था, जब सियासत समाज से उठती थी। अब सियासत से समाज संचालित होने लगा है। इसे सही दिशा देने की जिम्मेदारी भी समाज को ही उठानी होगी। इसके बिना आजादी की हीरक जयंती अपने अर्थ को प्राप्त नहीं कर सकती।
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