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अंगारे और आग का खेल

‘हिन्दुस्तान’ में हमारी वरिष्ठ सहयोगी जयंती रंगनाथन फोन पर उत्तेजित भाव से बोल रही थीं- ‘अभी-अभी पद्मावत  की स्पेशल स्क्रीनिंग देखकर निकली हूं। इस फिल्म में तो ऐसा कुछ भी नहीं,...

अंगारे और आग का खेल
शशि शेखरWed, 31 Jan 2018 09:29 PM
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‘हिन्दुस्तान’ में हमारी वरिष्ठ सहयोगी जयंती रंगनाथन फोन पर उत्तेजित भाव से बोल रही थीं- ‘अभी-अभी पद्मावत  की स्पेशल स्क्रीनिंग देखकर निकली हूं। इस फिल्म में तो ऐसा कुछ भी नहीं, जिसके कारण इतना विरोध किया जाए?’ उनसे पहले टेलीविजन के दो संपादकों ने इस फिल्म को देखकर यही कहा था। हम यह कैसा देश बना रहे हैं, जहां कयास के आधार पर ही इतने बड़े आंदोलन खड़े कर दिए जाते हैं? मन में दर्द के साथ सवाल कौंधा। 

मैं यहां पद्मावत  नहीं, बल्कि उस पर हुए हंगामे के बहाने उन मुद्दों पर बात करना चाह रहा हूं, जो लोकतंत्र के लिए घातक साबित हो रहे हैं। अक्सर कहा जाता है कि हुक्मरां सिर्फ चुनाव सोचते हैं। राजस्थान और मध्य प्रदेश के सत्ता प्रतिष्ठानों में इसीलिए खलबली मची थी, क्योंकि उन्हें इस साल के अंत में चुनावी वैतरणी पार करनी है। ‘एंटी इनकम्बेंसी’ से निपटने के लिए इस तरह के विवाद रामबाण साबित होते हैं। हो सकता है, भोपाल और जयपुर के सियासतदां के दिमाग में ऐसा हो, पर हरियाणा और गुजरात के मुख्यमंत्रियों ने फिल्म देखे बिना, उस पर पाबंदी क्यों लगा दी? गुजरात सरकार दिसंबर में गठित हुई है और हरियाणा के चुनाव खासे दूर हैं, फिर यह जल्दबाजी किसलिए?

वे चाहते, तो आसानी से योगी आदित्यनाथ की भांति सर्वानुमति का रास्ता अख्तियार कर सकते थे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने आंदोलनकारियों को समझाया कि पहले फिल्म देखें, फिर फैसला करें। हमारे नेता सत्ता की शान-ओ-शौकत तो चाहते हैं, पर यह भूल जाते हैं कि हुकूमत कुछ जिम्मेदारियां भी लेकर आती है। जिस देश में जाति, धर्म, भाषा अथवा क्षेत्र के नाम पर लोगों की संवेदनाएं उबल पड़ती हों, वहां कुर्सी पर बैठे लोगों का दायित्व है कि वे असंतोष के उबाल पर बातचीत के जरिए काबू पाएं। लोकतंत्र में सहमति सर्वाधिक सुगम तरीका है, मगर योगी के अलावा अन्य मुख्यमंत्री इसकी अनदेखी कर गए। मतलब साफ है। हमारे सत्तानायक अपने विवेक और विशेषाधिकारों पर अमल करने की बजाय ‘शॉर्ट कट’ चुनने में यकीन करते हैं। भले ही इसके लिए उन्हें छल-छद्म का सहारा क्यों न लेना पड़े?

यह कड़वा सच है कि हमारे सत्तानायकों ने रह-रहकर सांविधानिक मूल्यों का मजाक उड़ाया है। कानूनों, नियमों और परंपराओं को उन्होंने अपने स्वार्थों के लिए इस तरह तोड़ा-मरोड़ा कि आजाद भारत की सियासी गलियों में मुहावरा प्रचलित हो गया कि मुख्यमंत्री अपने प्रदेश का राजा होता है। वह जो चाहे, सो कर सकता है। पद्मावत  का मामला भी ऐसा ही है। संविधान की भावनाओं के अनुरूप बने भारतीय सेंसर बोर्ड (केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड) की स्थापना को दरकिनार कर तमाम मुख्यमंत्रियों ने बिना फिल्म देखे ही उस पर रोक लगा दी। बहाना था विधि-व्यवस्था का। जानने वाले जानते हैं कि इस घातक बहाने की ईजाद अंग्रेजों ने हिन्दुस्तानियों के दमन के लिए की थी। आजादी के बाद इससे मुक्ति पाने की बजाय हमने उसे और ताकतवर बना दिया है। अंग्रेज इसका उपयोग प्रतिरोध की ध्वनियों को दबाने के लिए करते थे। हमारे नेता गौरांग महाप्रभुओं को कई मील पीछे छोड़ आगे बढ़ गए। उन्होंने इन धाराओं का इस्तेमाल भावनाओं को भड़काने के लिए भी करना शुरू कर दिया। ऐसा नहीं है कि सिर्फ सत्ता में बैठे लोग इस कुटेव के शिकार हैं। जो लोग हुकूमत हथियाने के लिए सत्तानायकों को चुनौती देते हैं, वे भी इस हथकंडे का प्रयोग करते पाए जाते हैं। जिग्नेश मेवाणी इसकी नवीनतम मिसाल हैं। पिछले दिनों देश की राजधानी में उन्हें प्रदर्शन की इजाजत नहीं मिली। फिर भी वह अपनी जिद पर अड़े रहे। मतलब साफ है। राजनेताओं की समूची बिरादरी इस संक्रमण की चपेट में है। क्या यह शर्मनाक नहीं? 
क्या इससे आम आदमी का भरोसा व्यवस्था पर से उठ जाने की राह प्रशस्त नहीं होती?

यहां यह सवाल भी उठता है, आखिर अदालतें कब तक हमारे हुक्मरानों की अकर्मण्यता का बोझ ढोएंगी? उन पर अति भार डालने का ही नतीजा है कि लोकतंत्र का सर्वाधिक जरूरी यह स्तंभ खुद सवालों के घेरे में आ गया है। ऐसा क्यों हो रहा है? इसे कैसे रोका जाए? मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सोशल मीडिया के इस युग में यदि विचारशील लोग अपनी आवाज उठाएंगे, तो यकीनन उसका असर होगा, पर वे खुद निरर्थक बहस में उलझ गए हैं। प्रबुद्ध जनों की इसी गफलत की वजह से हमारे लोकतंत्र ने गए 70 सालों में लोक-कल्याण की वह यात्रा नहीं तय की, जिसके हम हकदार थे। गैर-जिम्मेदार सत्तानायक और अकर्मण्य बुद्धिजीवियों की वजह से जनसाधारण का भरोसा जरूरी संस्थाओं से उठता जा रहा है। एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे में पाया गया कि भारत में लोगों की विश्वासहीनता ग्रंथि लगातार बढ़ोतरी पर है। यह स्थिति खतरनाक है।

अफसोस, पूरी धरती पर यह प्रवृत्ति तेजी से पैर पसार रही है। इससे अराजकता और आतंक के हमसायों की बन आई है। ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद अमेरिकी हुक्मरानों ने आश्वस्ति की सांस ली थी। उन्होंने विश्व के सबसे बडे़ और संगठित आतंकवादी संगठन के सरगना को मार गिराया था। उन्होंने दावा किया था कि अब किसी को इतना ताकतवर नहीं बनने दिया जाएगा, परंतु पांच साल भी नहीं बीते कि आईएस जैसा दानवी संगठन उठ खड़ा हुआ। 

ओसामा ने अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा गोपनीय निर्वासन में गुजारा था। इसके उलट दाएश के अबू बकर अल बगदादी ने तो एक बडे़ भूभाग पर कब्जा कर खुद को खलीफा ही घोषित कर दिया। उसका क्रेज इतना बढ़ा कि पूरी दुनिया से नौजवान युवक-युवतियां सीरिया पहुंचने लगे। अभी पिछले ही दिनों यह खबर आई कि केरल से गायब एक युवक वहां मारा गया। इसे किसी आतंकवादी का अंत मानकर चुप बैठना मूर्खता होगी। हमें भूलना नहीं चाहिए कि अब्दुल मनफ एक हिन्दुस्तानी नौजवान था। उसने आजाद भारत में जन्म लिया था और यहीं तालीम हासिल की थी। उससे उसके परिवार और मुल्क को ऐसी उम्मीद नहीं थी।

हम दो दिन बाद राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी का बलिदान दिवस मनाएंगे। मेरे ख्याल में इस मौके पर हमें यह जरूर सोचना चाहिए कि गांधी ने किस तरह पूरे देश को अहिंसक आंदोलन से जोड़ा। उनकी लड़ाई संसार की सबसे बड़ी शक्ति से थी। वह यह भी जानते थे कि अशिक्षा और जहालत की बेड़ियों से जकड़ा हिन्दुस्तानी समाज जरा सा भड़काने से टूट सकता है। ब्रिटिश हुक्मरां इसका लाभ उठा रहे थे। फिर भी वह जीते, देश को जिताया, कैसे? जवाब साफ है। उन्होंने संसार की भीषणतम जद्दोजहद सकारात्मकता की भावना से जीती। उन्होंने सिर्फ अपने लोगों का ही नहीं, बल्कि सामने खड़े शत्रु का विश्वास भी जीता। आज इसका उल्टा हो रहा है। हमारे राजनेता  अलगाव और अविश्वास के बीज बोकर सत्ता की फसल उगा रहे हैं।

जब भरोसे में कमी हो, तभी देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तरह के आंदोलन और भटकाव उपजते हैं। इस तथ्य को दरकिनार कर हमारे हुक्मरां कब तक अंगारे खाकर आग उगलते रहेंगे? क्या हम एक असंतुष्ट, अविवेकी और असंयमित राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं?

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