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भारतीय राजनीति का रीति काल

वह अगस्त 2011 की चिपचिपी दोपहर थी। मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी का फोन आता है- ‘सर, अगर आप खाली हों, तो मेरे कुछ सहपाठी आपसे मिलना चाहते हैं। इनमें से कुछ आईआईटी, तो कुछ आईआईएम में मेरे साथ थे। इन्हें...

भारतीय राजनीति का रीति काल
शशि शेखरSun, 27 May 2018 12:09 AM
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वह अगस्त 2011 की चिपचिपी दोपहर थी। मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी का फोन आता है- ‘सर, अगर आप खाली हों, तो मेरे कुछ सहपाठी आपसे मिलना चाहते हैं। इनमें से कुछ आईआईटी, तो कुछ आईआईएम में मेरे साथ थे। इन्हें आपसे कुछ मार्गदर्शन लेना है।’ 

कुछ पल में वे मेरे सामने थे। इनमें से दो हरियाणा में अपना निजी व्यापार चला रहे थे और बाकी तीन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बडे़ ओहदों पर कार्यरत थे। मैं समझ चुका था कि वे अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के बारे में बात करना चाहते हैं। उनके चेहरे पर पसरी बेकली इस बात की गवाह थी कि उन्हें भी देशव्यापी अकुलाहट ने परेशान कर रखा है। उन दिनों देश को अजीब सी बेचैनी ने घेर रखा था।

उन्हें सलाह चाहिए थी कि क्या वे अपना सब कुछ छोड़कर अरविंद (केजरीवाल) की भांति ‘राष्ट्र निर्माण’ के यज्ञ में कूद पड़ें? इस शब्दावली से मेरे चेहरे पर मुस्कराहट आ गई थी, जिसे उन्होंने व्यंग्य मान लिया। क्षमा-याचना करते हुए मैंने उनसे कहा कि आप इतना बड़ा फैसला करने से पहले भली-भांति सोच लें। राजनीति उतनी सहज नहीं है, जितनी लगती है। आप कुछ ही दिनों में जाति, धर्म और धन के कुचक्र में फंस जाएंगे। हो सकता है, बाद में खुद से शिकायत करें- हमें तो न खुदा मिला, न विसाल-ए-सनम। वे मायूस होने के बावजूद देर तक बहस में जुटे रहे। अगले हफ्ते मेरे सहयोगी ने बताया कि उनके सहपाठियों ने अपना फैसला हाल-फिलहाल के लिए मुल्तवी कर दिया है। 

मैंने राहत की सांस ली। क्यों? मैंने उन्हें इसलिए मना नहीं किया था कि राजनीति में पढ़े-लिखे लोगों को नहीं आना चाहिए, पर वे अतीत में झांके बिना आगत गढ़ने की फेर में थे। नक्सलवाद, जेपी आंदोलन, मंडल और कमंडल के नाम पर जब हर बार स्याह इरादे उजली सुबह के तौर पर पेश किए जाते रहे हों, तो भला जल्दबाजी कैसी? वे तब यह समझने में असमर्थ थे कि अन्ना हजारे के अनशन का क्या हश्र होगा? अरविंद केजरीवाल तथा उनके सहयोगी किस रास्ते पर चलेंगे? उम्मीद है, समय ने उन्हें माकूल जवाब दे दिए होंगे।

मैंने आपको यह किस्सा इसलिए सुनाया, क्योंकि कर्नाटक चुनाव की स्मृतियां सबके जेहन में ताजा हैं। वहां जीतने के लिए सभी दलों के नेताओं ने ‘विकास’ का मुखौटा पहनकर सिर्फ वर्ग और धर्म की राजनीति की। मठों और मंदिरों में शीश नवाते नेता राजनीतिज्ञों  के मुकाबले तीर्थयात्री लगते थे। अफसोस ये है कि यह सिलसिला रुकता नजर नहीं आ रहा। अब सामाजिक और राजनीतिक प्रयोगों का केंद्र रहे बिहार में नई बिसात सज रही है। वहां ‘बहुजन आजाद पार्टी’ (बाप) के नाम से एक नई पार्टी के गठन की चर्चा है। इसका आविर्भाव  भी आईआईटी के कुछ पूर्व   छात्रों द्वारा किया जा रहा है। अरविंद केजरीवाल ‘वैकल्पिक राजनीति’ की बात करते थे, पर ये लोग अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के लिए काम करना चाहते हैं। नई पार्टी के लिए चुनाव आयोग में आवेदन कर दिया गया है। इनका लक्ष्य 2020 में होने वाला बिहार विधानसभा का चुनाव है, तब तक वे जमीनी हकीकत के हिसाब से खुद को तैयार कर लेना चाहते हैं। 

इस समूह से जुड़े विक्रांत वत्सल का कहना है कि हम नौसिखिए नहीं हैं। हममें से कुछ आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य रह चुके हैं और पार्टी के आईटी तथा मीडिया सेल के संचालन में योगदान दे चुके हैं। कुछ ने तो उस दौरान जेल यात्रा भी की है। विक्रांत का दावा है कि उनके जैसे सौ और लोग नौकरी में रहते हुए पार्टी के लिए काम कर रहे हैं। इनमें से फिलहाल पांच या छह नामों का खुलासा रणनीति के तहत किया गया है। जैसे-जैसे जमीन पुख्ता होती जाएगी, वैसे-वैसे उनके नाम उजागर किए जाएंगे। इन लोगों को आम आदमी पार्टी से शिकायत है कि वह अपने लक्ष्य से भटक गई है। इस पार्टी ने अभी ठीक से आकार तक नहीं लिया है, पर उसकी फंडिंग और इरादों को लेकर तमाम तरह के विवाद उठ खड़े हुए हैं। उन्होंने जिस तरह नौकरियों में 85 प्रतिशत से अधिक आरक्षण की मांग के साथ स्थापित नेतृत्व की आलोचना की है, उससे उनका मंतव्य झलकता है।

यहां याद दिलाना जरूरी है कि कांशीराम ने इसकी उल्टी राह चुनी थी। राजनीति में कूदने से पहले उन्होंने डीएस-4 के जरिए इसी तरह रोजगारशुदा दलितों का संगठन खड़ा किया था। उन्हें राजनीतिक चेतना दी थी और उन्हीं के सहयोग से बहुजन समाज पार्टी की स्थापना हुई थी। आज बसपा मत-प्राप्ति के लिहाज से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। यह ठीक है कि बहुजन समाज पार्टी दलितों और पिछड़ों की बात करके आगे बढ़ी है, पर यह भी सच है कि सत्ता पाने के लिए उसे अपना दायरा बढ़ाना पड़ा। 2007 में मायावती ने पार्टी की रीति-नीति में बड़ा परिवर्तन करते हुए सबसे बडे़ विरोधी माने जाने वाले ब्राह्मणों से हाथ मिला लिया था। इसके नतीजे चौंकाने वाले थे। इस अकल्पनीय रसायन ने उन्हें बहुमत के साथ सत्ता के शीर्ष पर बैठा दिया था। 

यहां सवाल उठना भी लाजिमी है कि जब देश के सर्वोच्च संस्थानों से निकले लोग जाति अथवा धर्म की बात करेंगे, तो इससे क्या हमारी भारतीयता कमजोर नहीं होगी? वैसे भी हिन्दुस्तानियों के बारे में वक्रोक्ति मशहूर है कि ये लोग खुद को क्षेत्र, धर्म अथवा जाति से जोड़कर अपना परिचय देते हैं। स्वयं को भारतीय बताने वाला इस 125 करोड़ की आबादी में शायद ही कोई दिखता है। यह प्रश्न उछलना भी लाजिमी है कि अगर आजादी से पहले परदेस से शिक्षा पाए राम मोहन राय, महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस जैसे विभिन्न विचारधाराओं के लोग सिर्फ जाति और धर्म की बात करते, तो क्या भारत कभी आजाद हो पाता? अंग्रेज तो वैसे भी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के हिमायती थे। आज जब समूची दुनिया को संप्रदाय और वर्ग के नाम पर बांटने की कोशिश हो रही है, तब हर तालीमशुदा व्यक्ति से उम्मीद की जाती है कि वह इस काले खेल के खिलाफ खड़ा हो, पर कर्नाटक के चुनाव ने पुन: साबित कर दिया है कि फिलहाल यह मुमकिन नहीं।

हम आगे बढ़ रहे हैं, या पीछे जा रहे हैं? 

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