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मोसुल अब एक सबक है

सबसे पहले एक स्पष्टीकरण। ये पंक्तियां किसी नेता, व्यक्ति या संगठन के पक्ष-विपक्ष में नहीं हैं। एक साधारण हिन्दुस्तानी के तौर पर मेरे मन में टेलीविजन पर कुछ दृश्यों को देखकर जो उभरा, यह उसकी...

मोसुल अब एक सबक है
शशि शेखरWed, 28 Mar 2018 10:42 PM
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सबसे पहले एक स्पष्टीकरण। ये पंक्तियां किसी नेता, व्यक्ति या संगठन के पक्ष-विपक्ष में नहीं हैं। एक साधारण हिन्दुस्तानी के तौर पर मेरे मन में टेलीविजन पर कुछ दृश्यों को देखकर जो उभरा, यह उसकी अभिव्यक्ति मात्र है। मंगलवार की शाम को आंखें उस समय डबडबा आईं, जब मैंने टेलीविजन पर कुछ कंकालों, हड्डियों, कपड़ों आदि को पडे़ देखा। हिन्दुस्तानी सरजमीं से हजारों किलोमीटर दूर वे अवशेष उन हिन्दुस्तानियों के थे, जो रोजी-रोटी की तलाश में इस मरुभूमि में हाड़ खपा रहे थे। नियति का कुचक्र, उनका सिर्फ हाड़ ही वतन वापस लौटने को था।

देश की फिजां में तीन बरस से सुलगते सवाल तैर रहे थे कि मोसुल से लापता 39 भारतीय जिंदा हैं या आईएस के हत्यारों ने उन्हें अपनी रक्त पिपासा का शिकार बना लिया? वहां से लौटे हरजीत मसीह का दावा था कि उसे भी दहशतगर्दों ने इन लोगों के साथ बंधक बनाया था। उसी के सामने उन 39 लोगों को गोली मारी गई, पर वह यह कहकर बच निकला कि मैं मुसलमान हूं। उसका दावा संदिग्ध था। आईएस के खूंरेज क्या मुसलमान होने की बिना पर ही लोगों को बख्श देते हैं? लगता नहीं। दरअसल, उन्होंने अब तक ‘काफिरों’ से कहीं ज्यादा मुसलमानों का कत्ल किया है। धर्म उनकी उन्माद यात्रा का कभी रोड़ा नहीं बना, न बनेगा। क्योंकि वे अधर्म में लिप्त हैं।

मसीह के दावों के बाद संसद में तकरार हुई थी कि हमारी सरकार उसके दावे को सच मानकर उन हतभागियों को मृतक घोषित क्यों नहीं कर देती? मैं यहां सरकार का पक्ष नहीं ले रहा, पर एक बार विदेश मंत्री की जूती में पैर डाल देखिए, अगर बिना प्रमाण मसीह के दावों को मान लिया जाता और खुदा-न-ख्वास्ता लापता लोगों में से एक-दो लौट आए होते, तब सरकार की कैसी जगहंसाई होती? यह संसदीय परंपरा है कि वहां जो भी बोला जाए, जिम्मेदारी से बोला जाए। गए मंगलवार को सुषमा स्वराज ने इसी का पालन किया। 

इसके बाद जो हल्ला मचा, मैं उसके विवरण में नहीं जाना चाहता। विपक्ष की अपनी आदत और मजबूरियां हुआ करती हैं, पर यहां जनरल वी के सिंह के प्रयासों की चर्चा जरूरी है। गई जुलाई में मोसुल को आईएस के खूनी पंजे से मुक्त कराया गया था। उसी के तत्काल बाद वी के सिंह को जिम्मेदारी सौंपी गई थी कि वह लापता लोगों को खोजें। इसी सिलसिले में जब वह मोसुल पहुंचे, तो किसी ने बताया कि नजदीक ही बादोश नाम की जगह पर एक टीला है, जहां कभी कई लोग दफनाए गए थे। विदेश राज्य मंत्री वहां जा पहुंचे। पहाड़ी के किसी हिस्से को देखकर यह पता लगाना असंभव है कि उसके नीचे क्या दफन है? आवश्यक जानकारी जुटाने के लिए जनरल सिंह ने ‘डीप पेनिटे्रशन रडार’ (डीपीआर) का इंतजाम करने को कहा। यह रडार भूमिगत तत्वों की पड़ताल में इस्तेमाल होता है। डीपीआर के परीक्षण में पता चला कि उसके नीचे हड्डियां दफन हैं। इन मानव अवशेषों की असलियत जानने के लिए उनका डीएनए टेस्ट कराया गया, जिसने साबित कर दिया कि  यहीं हमारे लोग दफनाए गए थे।

मैं यहां अखबारों में छपे विवरण को दोहराना नहीं चाहता, पर सोचने का विषय है कि यह अभियान कितना कठिन और खर्चीला रहा होगा?  बताते हैं कि जनरल सिंह को बियाबान में एक शाम सैनिकों के साथ इसलिए जमीन पर सोना पड़ा, क्योंकि वहां कोई माकूल इंतजाम नहीं था। भारत का कोई विदेश राज्य मंत्री इससे पहले ऐसे जोखिम भरे अभियान से जुड़ा रहा हो, इसकी जानकारी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं है। वह इससे पहले यमन से 4,640 भारतीयों के साथ अन्य देशों के 960 नागरिकों को एक दुर्गम अभियान से निकाल चुके हैं। मुक्त कराए गए लोगों में अमेरिकी, ब्रिटिश, रूसी और फ्रेंच नागरिक शामिल थे। इन देशों का नाम लेकर अक्सर नई दिल्ली की विभिन्न हुकूमतों को कोसा जाता रहा है कि वे अपने नागरिकों की मुक्ति के लिए अमेरिका, ब्रिटेन अथवा इजरायल जैसा काम नहीं करतीं। इस बार तो हम उनके मुक्तिदाता बने। क्या अब वक्त-बेवक्त की इस शहनाई से मुक्ति मिल सकेगी? हमारे सियासती महारथियों के मिजाज से ऐसा लगता तो नहीं।

यह एक जाना-बूझा सच है कि इससे पहले भी तमाम हुकूमतें अशांत क्षेत्रों से भारतीयों को निकालती रही हैं, पर यह पहला मौका था, जब हतभागी हिन्दुस्तानियों के अवशेष ढूंढ़ने के लिए इतनी मशक्कत की गई। टेलीविजन पर इस अभियान के उपलब्ध दृश्य देखते वक्त हॉलीवुड की मशहूर फिल्म द वाटर डिवाइनर  सहसा याद आ गई। रसल क्रो ने इस फिल्म में युद्ध में खोए अपने तीन बेटों को ढूंढ़ने के लिए जमीन-आसमान एक कर दिया था। ऐसे अभियानों की भारत में पुरानी परंपरा है। 

अब जब वे 39 हिन्दुस्तानी अपने अंतिम संस्कार को प्राप्त हो चुके हैं, तो सवाल उठता है कि आईएसआईएस के प्रति भारत का प्रतिशोध क्या होगा? 

भारत सहित दुनिया की तमाम लोकतांत्रिक सरकारें इस दानवी संगठन से जूझ रही हैं, पर मैं सरकार की जगह अपने समाज से सवाल पूछना चाहूंगा कि क्यों न हम यह प्रण लें कि अपने देश में कहीं भी आईएस जैसी तंजीमों को पांव नहीं जमाने देंगे? कश्मीर या देश के किसी अन्य हिस्से में अगर अब आईएस के झंडे लहराए गए, तो मैं उसे सरकार नहीं, उस समाज की असफलता मानूंगा, जिसकी 39 संतानें इराक की रेतीली जमीन को अपने लहू से तरबतर कर अकाल काल के गाल में समाने को मजबूर हुईं।

चलते-चलते एक प्रश्न संसद सदस्यों से भी- माननीय, इस देश के आम-आदमी को रोटी-रोजगार के अवसर कब तक मुहैया करा दिए जाएंगे? मोसुल में मारे गए लोग ऐश-ओ-इशरत के लिए वहां नहीं गए थे। परिवार का पेट पालने की जिम्मेदारी उन्हें मौत के उस रेतीले समुंदर में खींच ले गई थी। जब तक हमारे देश में ऐसे लोगों के जीने-खाने का इंतजाम नहीं किया जाएगा, तब तक ऐसे दिल दहला देने वाले हादसे होते रहेंगे। इन्हें रोकने की जिम्मेदारी संसद के बहुमत से चलने वाली सरकारों की है। वे इससे मुकर नहीं सकते।

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