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नए क्षितिज की तलाश में संघ

मोहन भागवत के दिल्ली दौरे ने टेलीविजन बहस को चटपटा बनाने वाले तर्कशास्त्रियों को एक बार फिर मौका दे दिया है। लोग चाहे जो कहें, पर यह सच है कि संघ अब अंधेरे बंद कमरों के विमर्श को सार्वजनिक और...

नए क्षितिज की तलाश में संघ
शशि शेखरSat, 22 Sep 2018 09:56 PM
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मोहन भागवत के दिल्ली दौरे ने टेलीविजन बहस को चटपटा बनाने वाले तर्कशास्त्रियों को एक बार फिर मौका दे दिया है। लोग चाहे जो कहें, पर यह सच है कि संघ अब अंधेरे बंद कमरों के विमर्श को सार्वजनिक और सार्वजनीन कर देना चाहता है। इस आत्मविश्वास की खास वजह है। 

देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब संघ की राजनीतिक इकाई- भाजपा की अगुवाई वाला एनडीए देश के 18 राज्यों में काबिज है। इसे संघ और भाजपा की रणनीति की विजय माना जाए या फिर कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की कारगुजारियों का प्रतिफल? आप चाहे जो समझें, पर इसके आगे मई 2019 तक का समय इस देश के लिए खासा महत्वपूर्ण है। इस दौरान पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, जिनके नतीजे 17वीं लोकसभा के लिए होने वाले मतदान को प्रभावित करेंगे। हालांकि, मोहन भागवत का दिल्ली कार्यक्रम सिर्फ इन चुनावों को ध्यान में रखकर नहीं किया गया। उनकी अगुवाई वाला संघ इससे कहीं बड़ी आकांक्षा पर अपना हक समझता है। 
इसकी वजह जान लीजिए। 

27 सितंबर, 1925 को डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर की एक कोठरी में जो सपना देखा था, अब वह उस बिंदु पर पहुंच गया है, जहां से संघ को अपने लिए अगले क्षितिज तलाशने हैं। यहां तक की यात्रा में इस संगठन ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं। याद करें, 30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या के बाद आरोप लगे थे कि नाथूराम गोडसे संघ का सदस्य है। नतीजतन, सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया था और संघ पर कानूनी बंदिश लगा दी गई थी। सरकारी कार्रवाई एक तरफ थी, मगर पश्चिम भारत में घरों पर क्रुद्ध भीड़ ने जिस तरह हमले बोले थे, उससे तमाम तरह की आशंकाएं उठ खड़ी हुई थीं। 

हम भारतीय आपस में कितना भी लड़ें-झगड़ें, पर साथ चलने और रहने की आदत नहीं छोड़ते। दंगे कुछ दिनों में शांत हो गए। उधर, डेढ़ साल की जद्दोजहद के बाद गोलवलकर सरकार को यह समझाने में कामयाब हो गए थे कि संघ एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक संगठन है। बरसों बाद 25 जून, 1975 को जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, तो एक बार फिर संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया। पूरे देश में उनके कार्यकर्ताओं और नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया। संघ के कर्ताधर्ताओं में एक, नानाजी देशमुख भी फरार हो गए थे और इस फरारी के दौरान उनके बारे में तरह-तरह के किस्से प्रचलित होने लगे। किस्सागो उन्हें रॉबिनहुड की तरह पेश करते थे। 

इस संघर्ष में साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा के तमाम लोगों ने संघ से हाथ मिला लिए थे। सरकारी दमन के खिलाफ विपरीत विचारधाराओं की यह एका इंदिरा गांधी पर भारी पड़ी। वह 1977 का आम चुनाव हार गईं।

आगे का घटनाक्रम नाटकीय था। भीषण उठा-पटक के बाद मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। उनके मंत्रिमंडल में अगर अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी जैसे स्वयंसेवक शामिल हुए, तो मधु दंडवते और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे समाजवादी भी। वह सरकार भले ही लंबी न चली हो, पर साफ हो चला था कि गए तीन दशकों में संघ ने भारतीय समाज में इतनी गहरी जड़ें जमा ली हैं कि अब सियासत उसकी अनदेखी नहीं कर सकती। देश के हर खास-ओ-आम ने इसको 1980 के दशक के अंत में महसूस करना शुरू किया। 

बरसों से उसका एक आनुषंगिक संगठन- विश्व हिंदू परिषद -चुपचाप राम जन्मभूमि आंदोलन को गरमा रहा था। 1989 आते-आते इसके शोले तेजी से भड़क उठे। पूरे देश से कारसेवकों के जत्थे अयोध्या आते और उन्हें बाबरी मस्जिद तक पहुंचने से रोकना सुरक्षा बलों के लिए कठिन से कठिनतर होता जा रहा था। 6 दिसंबर, 1992 की घटना इसी की परिणति थी। उस दिन असंख्य कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को जमींदोज कर दिया। यह भारतीय इतिहास की एक ऐसी प्रतिक्रियावादी घटना थी, जिसकी अनुगूंज आज तक देश और दुनिया के कोने-कोने में गूंजती है। गुस्साए नरसिंह राव ने एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया, परंतु यह बंदिश सिर्फ छह महीने तक चली। 

अगर आप गौर से देखें, तो पाएंगे कि हर पाबंदी के बाद यह संगठन पहले के मुकाबले अधिक शक्ति अर्जित करने में सफल रहा। इसीलिए यह अनायास नहीं है कि अब मोहन भागवत देश के सामाजिक विमर्श को नया मोड़ देना चाहते हैं। दिल्ली के सबसे बडे़ सभागार में तीन दिवसीय वार्ता का आयोजन इसी रणनीति के तहत किया गया। पहले दो दिन उन्होंने अपनी बात विस्तार से रखी और तीसरे दिन लोगों के सवालों के बेहिचक जवाब दिए। इस विमर्श की शुरुआत से ही संघ प्रमुख बहुत स्पष्ट थे। वह जानते हैं कि इतने कम समय में लोगों की विचार-तरंगों को पूरी तरह अपने वश में नहीं कर सकते, पर उन्हें यह भी मालूम है कि नई समझ बनाने की शुरुआत ऐसे ही वैचारिक आदान-प्रदान से होती है। 

पहले दिन उन्होंने अपने सवा घंटे लंबे भाषण की शुरुआत में ही कहा कि संघ एक शक्तिशाली संगठन है। जो शक्तिशाली होता है, उससे भय लगना स्वाभाविक है। हम यहां अपनी बात रखना चाहते हैं। यह जरूरी नहीं कि आप इसको मान ही लें। इसके बाद दो दिन उन्होंने क्रमवार हर उस मुद्दे को छुआ, जिस पर संघ की लानत-मलामत होती रही है। महिलाओं की भागीदारी, हिंदुत्व, मुसलमान, तिरंगा, कांग्रेस, गांधीजी, रिमोट कंट्रोल से हुकूमत चलाने से लेकर जाति-प्रथा और राम मंदिर तक के मुद्दों का उन्होंने बारी-बारी जवाब दिया। 

यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि संघ कोई काम अचानक नहीं करता। पिछले पांच सालों से मोहन भागवत धीमे-धीमे अपनी खिड़कियां विपरीत विचारधाराओं के लिए खोल रहे हैं। इस दौरान उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी सहित तमाम भाषाओं के संपादकों एवं अल्पसंख्यक समुदाय के बुद्धिजीवियों से निजी मुलाकातें कीं। इसके अलावा वह छोटे-छोटे समूहों से भी मिलते रहे हैं।

ऐसा क्यों? इसका औपचारिक उत्तर भागवत दे ही चुके हैं, पर अगर कोई मुझसे पूछे, तो मेरा मुख्तसर-सा जवाब होगा- वह जानते हैं कि उनकी छेड़ी हुई हर बात दूर तक जाती है, इसीलिए इस बार उन्होंने देश के दिल दिल्ली को  चुना। देखते हैं, बात मुकाम तक पहुंचती है या सिर्फ बतंगड़ तक।

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