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पांचवें वर्ष में प्रधान सेवक

चार साल पहले का वह लम्हा आपको याद दिलाता हूं, जब नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री पहली बार संसद भवन पहुंचे थे। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की सर्वोच्च पंचायत की सीढ़ियां चढ़ने से पूर्व उन्होंने वहां मत्था टेका...

पांचवें वर्ष में प्रधान सेवक
शशि शेखरSun, 20 May 2018 12:47 AM
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चार साल पहले का वह लम्हा आपको याद दिलाता हूं, जब नरेंद्र मोदी बतौर प्रधानमंत्री पहली बार संसद भवन पहुंचे थे। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की सर्वोच्च पंचायत की सीढ़ियां चढ़ने से पूर्व उन्होंने वहां मत्था टेका था। मतलब साफ था, गुजराती राजनीति का अविचल पुरुष नया अवतार गढ़ रहा है। अब जब वह अपनी हुकूमत के पांचवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, तब सवाल उठना लाजिमी है कि वह कितने सफल रहे? 

लोकतंत्र में चुनावी हार-जीत से इसका अनुमान लगाया जाता है। मोदी की हुकूमत के दौरान अब तक 22 राज्यों में लगभग 45 करोड़ लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। दिल्ली, बिहार, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुडुचेरी, पंजाब और कर्नाटक को छोड़ दें, तो बाकी सभी जगहों पर भाजपा सरकार बनाने में कामयाब रही। पश्चिम बंगाल, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु में भाजपा शुरू से कमजोर रही है और पंजाब में वह अकाली दल की सहयोगी थी, इसलिए इन सूबों की हार को मोदी के खाते में डालना अनुचित होगा। यह भी गौरतलब है कि गोवा, मणिपुर, मेघालय और नगालैंड में बहुमत न मिलने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने सरकार बनाई। विपक्ष का खुला आरोप है कि किसी भी कीमत पर जीतने की लालसा रखने वाली यह पार्टी सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग से भी परहेज नहीं करती। इसी दौरान लोकतंत्र के लिए सर्वाधिक जरूरी न्यायपालिका और मीडिया पर हुकूमत के दबाव में आने के आरोप लगे। 

भारतीय राजनीति के नक्कारखाने में ऐसी तूतीं हमेशा बजती रही हैं, पर हर बार दो पुरानी कहावतें चरितार्थ होती हैं- ‘जो जीता वही सिकंदर’ और ‘हारे को हरिनाम’। कर्नाटक चुनावों को ही लें। कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल गांधी और उनके क्षेत्रीय सिपहसालार सिद्धरमैया ने ‘जस को तस’ की नीति अपनाई थी। पहली मई तक राजनीति के पर्यवेक्षकों को लग रहा था कि कांग्रेस का पलड़ा भारी है। यह वह समय था, जब जनता दल ‘सेकुलर’ को ‘वोट कटवा’ माना जा रहा था और राहुल गांधी उसे जनता दल ‘संघ’ बता रहे थे। 1 से 10 मई के बीच में प्रधानमंत्री मोदी ने 21 सभाएं कीं। परिणाम सामने है। 104 सीटों के साथ भाजपा पार्टी नंबर वन के तौर पर उभरी। सत्ता के लिए जरूरी 112 का जादुई आकड़ा दूर था, पर हड़बड़ी में उसने सरकार बना डाली। यदि इससे परहेज बरता गया होता तो वे नैतिक जीत की दावेदारी के साथ 2019 के समर में उतर सकते थे। 

एक तरफ बीते चार सालों में जहां नरेंद्र मोदी का सियासी अश्वमेध यज्ञ परवान चढ़ रहा था, वहीं आरोपों का गुबार भी साथ-साथ यात्रा तय कर रहा था। उनकी सियासत का यह स्थाई भाव है।

आजाद भारत की राजनीति में वह अपनी तरह के अकेले संवाद पुरुष हैं। उनके राजनीतिक वक्तव्यों की एक खास तबके में आलोचना होती आई है, पर पिछले चार साल की किसी जनसभा पर नजर डाल देखें, वह हर बार एक कदम आगे की यात्रा तय करते नजर आते हैं। मसलन, उत्तर प्रदेश चुनाव जीतने के बाद भाजपा मुख्यालय में उन्होंने कहा कि विपक्षियों को मुझसे शिकायत है कि मैं इतनी मेहनत क्यों करता हूं? त्रिपुरा विजय के बाद वह बोलना शुरू करने वाले थे कि अजान की आवाज आई। समादर दिखाते हुए उसके समापन तक मोदी मौन खडे़ रहे। क्या आपको नहीं लगता कि अपने कार्यकर्ताओं के बहाने वह देश-दुनिया के सामने अपनी मेहनत और विनम्रता जाहिर कर रहे थे? संसद की सीढ़ियों पर माथा टेकने से शुरू हुए उनके इस सफर में अभी तक कोई शिथिलता नहीं आई है। यही वजह है कि तमाम चुनावी वायदों के अधूरेपन के बावजूद आम आदमी का भरोसा उनमें कायम है। वह समाज के शोषितों और वंचितों को विश्वास दिलाने में कामयाब रहे हैं कि उनके हक-हुकूक के लिए वह ईमानदार कोशिश कर रहे हैं। यही वजह है कि विपक्ष अगर तथ्यों के साथ आरोप लगाता है कि नोटबंदी, जीएसटी और बैंकों का दीवालिया होना उनकी नाकामी है, तब भी उन पर खास असर नहीं पड़ता। कर्नाटक का चुनाव इसका नवीनतम उदाहरण है। 

अक्सर उनकी तुलना जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से होती है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि अपनी तमाम खूबियों के बावजूद उन दोनों के पास वंशानुगत आकर्षण था। इसके विपरीत मोदी अति साधारण पृष्ठभूमि से असाधारण शिखर तक पहुंचे हैं। वह जानते हैं कि इसे  कायम रखने के लिए सिर्फ सियासी बाजीगरी से काम नहीं चलेगा। इसीलिए उन्होंने स्वच्छता, शौचालय, नदियों की निर्मलता, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसे मुद्दों को चुना। ये सभी अभियान अभी आधा रास्ता तक तय नहीं कर सके हैं, मगर इनका लोगों की सोच और उनकी छवि पर सकारात्मक असर पड़ा। अब अक्सर दूरस्थ गांवों से खबरें आती हैं कि दमित परिवार की कन्या ने विवाह से इनकार कर दिया, क्योंकि वर पक्ष के यहां शौचालय नहीं था।

सफल लोकतंत्र के लिए मजबूत विपक्ष जरूरी है, पर भारत इस मामले में सौभाग्यशाली नहीं है। पिछले वर्षों में कुछ उम्मीदें जरूर बंधीं, पर वे बहुत जल्दी बिखर गईं। अरविंद केजरीवाल ने वैकल्पिक राजनीति के नाम पर दिल्ली का दुर्ग जीता था, लेकिन उनका प्रभामंडल लंबे समय तक कायम नहीं रह सका। प्रशासनिक कुशलता के धनी और अपनी ईमानदारी के लिए विख्यात नीतीश कुमार भी बिहार की तीसरी लड़ाई जीतने के बाद विकल्प पुरुष के रूप में उभर रहे थे, लेकिन उन्हें पाला बदलने पर मजबूर होना पड़ा। आज वह एनडीए के मुख्यमंत्रियों में एक हैं। ममता बनर्जी, मायावती और अखिलेश यादव ऐसे नाम हैं, जिनकी चर्चा तो होती है, पर वे राष्ट्रव्यापी उड़ान भरने के काबिल हैं क्या? उन्हें इस सवाल के दायरे से बाहर निकलने के लिए काफी जद्दोजहद करनी होगी। 

नई दिल्ली के सत्ता-सदन में चार साल पूरे कर रहे नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी चुनौती भी यही है। जनभावना और जनाकांक्षाएं उस हवा की तरह होती हैं, जो अचानक रुख बदल लेती हैं। क्या किसी ने सोचा था कि रायबरेली से राजनारायण इंदिरा गांधी को हरा सकते हैं? राजनीतिक सफलता स्थाई बनाने के लिए उसका सामाजिक सरोकारों से तालमेल आवश्यक है। इंदिरा गांधी उसमें असफल रही थीं। प्रधानमंत्री को भी हुकूमत के पांचवें वर्ष में उन वायदों, दावों और अभियानों को सिरे तक पहुंचाने पर जोर लगाना होगा, जो उन्होंने देश की जनता से किए हैं। 

राजनीतिक तौर पर सफल प्रधानमंत्री और सच्चे ‘प्रधान सेवक’ के बीच का फासला खत्म करने की अकेली शर्त भी यही है।

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