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उपचुनाव से उपजे संकेत

उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों का संदेश नई दिल्ली की सत्तानशीं पार्टी के लिए साफ है- 2019 की डगर 2014 के मुकाबले कठिन साबित होने वाली है। पार्टी के कर्णधारों को यह भी सोचना होगा कि हमारे चाल और...

उपचुनाव से उपजे संकेत
शशि शेखरSun, 18 Mar 2018 12:47 AM
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उत्तर प्रदेश और बिहार के उपचुनावों का संदेश नई दिल्ली की सत्तानशीं पार्टी के लिए साफ है- 2019 की डगर 2014 के मुकाबले कठिन साबित होने वाली है। पार्टी के कर्णधारों को यह भी सोचना होगा कि हमारे चाल और चरित्र में कुछ परिवर्तन की जरूरत तो नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि पार्टी कार्यकर्ताओं और नए बने हितचिंतकों में हताशा का भाव पसर रहा है?

क्या यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में मतदान उम्मीद से काफी कम हुआ? योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर में 2014 में 54.67 के मुकाबले महज 43 फीसदी वोट पड़े। उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने फूलपुर में 2014 में पहली बार भगवा पार्टी को जीत दिलाई थी। उस वक्त यहां 50.20 फीसदी मतदाता पोलिंग बूथ पर उमडे़, जो इस बार 37.39 प्रतिशत पर सिमट गए। गोरखपुर में जीत-हार का मामूली अंतर बताता है कि अगर भाजपा समर्थक उत्साह में होते, तो नतीजे पलट भी सकते थे। साफ है, पिछले साल विधानसभा और तीन महीने पहले नगर निकाय के चुनावों में धूम मचाने वाले लोग इस बार उदासीन थे। क्यों?

जवाब में अगर आप चाहें, तो हर चुनाव के बाद उपजने वाले कोरस में शामिल हो सकते हैं कि मंत्रियों में आपसी तालमेल नहीं है। मुख्यमंत्री ईमानदार हैं, मगर सरकारी मशीनरी और उनके मंत्री बेदाग नहीं हैं। नतीजतन, नौकरशाही बेलगाम है और कार्यकर्ता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। भाजपा के प्रभाव क्षेत्रों के बूथ उजाड़ पड़े रहे, क्योंकि संघ और साधारण कार्यकर्ताओं ने मतदाता को बूथ तक लाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह सब कहते-सुनते वक्त ध्यान रखें, अति उत्साह की इस आपाधापी में निरर्थक आरोप अथवा आंशिक सत्य भी सही मान लिए जाते हैं। 

चुनावी नतीजों की समीक्षा करते वक्त हमें भूलना नहीं चाहिए कि सपा-बसपा का मेल विशाल ‘वोट बैंक’ की सर्जना कर देता है। दोनों क्षेत्रों में सपा उम्मीदवार का ‘बेस वोट’ उसे जीत दिलाने के लिए पर्याप्त था। इससे सत्ता विरोधियों और असंतुष्टों को बल मिला।

इन चुनाव परिणामों ने साबित कर दिया है कि बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती आज भी अपने ‘वोट बैंक’ को कहीं भी ‘ट्रांसफर’ कराने की कुव्वत रखती हैं। उनके सहयोग से समाजवादी पार्टी की जीत के बाद प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या राज्यसभा चुनाव में अखिलेश समाजवादी पार्टी के शत-प्रतिशत मत बसपा प्रत्याशी को दिलवा पाएंगे? वैसे भी सपा की राह में रोड़े अटकाने के लिए कुछ घर के भेदी भी तैयार बैठे हैं। यदि अखिलेश बसपा प्रत्याशी को जिताने में कामयाब हो गए, तो तय है कि आपसी भरोसा मजबूत होगा और कैराना का उपचुनाव इस सियासी साहचर्य का पहला पड़ाव साबित हो सकता है। यहां यह भी गौरतलब है कि इन उपचुनावों में अखिलेश और तेजस्वी यादव भाजपा विरोध की धुरी के तौर पर उभरे हैं। 

उत्तर प्रदेश और बिहार की तीनों संसदीय सीटें गंवाने के बाद भाजपा को कई दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। सबसे पहले नरेंद्र मोदी और अमित शाह की टीम को संगठन और अन्य दलों के साथ गठबंधन की चूलें कसनी होंगी। बिहार में जीतनराम मांझी के छिटकने के बाद उपेंद्र कुशवाहा से अलगाव की आशंका बढ़ गई है। यही नहीं, फायरब्रांड सहयोगी संगठनों के तेवर भी तीखे हो सकते हैं। इसके साथ ही केंद्र सरकार को अपना एक जोरदार रिपोर्ट कार्ड पेश करना होगा। विपक्ष लगातार आरोप लगाता रहा है कि पिछले आम चुनाव के वायदे अभी तक पूरे नहीं किए गए। वक्त अगर अनुकूल न हो, तो ऐसे आरोप जंगल की आग सा असर डालते हैं।

इन परिणामों ने लोकसभा में भाजपा की सदस्य संख्या में भी कमी ला दी है। 2014 में पार्टी ने 282 सीटें जीतकर अपने दम पर सरकार बनाने का माद्दा दिखाया था। अब यह संख्या घटकर 273 रह गई है। यानी पार्टी का बहुमत अब सिर्फ एक सदस्य के बूते टिका है। एनडीए के अन्य सहयोगी इसका लाभ उठाना चाहेंगे। शिवसेना और तेलुगू देशम पहले से आंखें दिखा रहे हैं, अब अन्य दल भी इस जमात में शामिल हो सकते हैं। वाईएसआर कांग्रेस के अविश्वास प्रस्ताव पर हो रहा हो-हल्ला इसका उदाहरण है। यकीनन इसका असर सीटों के बंटवारे पर भी पड़ेगा, जो 2019 के परिणामों पर असर डाल सकता है। 

तय है, भाजपा को अब कर्नाटक विधानसभा और लोकसभा के तीन उपचुनावों को जीतने पर समूचा जोर लगाना होगा। इसके आसार दीख रहे हैं। उत्तर प्रदेश की हार के बाद योगी आदित्यनाथ सहित सभी वरिष्ठ नेताओं ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया कि हम ‘अति आत्मविश्वास’ के शिकार थे। अगर वे सबक ले लेते हैं, तो सुधार की गुंजाइश अभी बाकी है, क्योंकि भाजपा वह पार्टी है, जिसके पास सबसे अच्छी ‘चुनाव मशीनरी’ है। 

यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि भाजपा ने पिछले कुछ वर्षों में कई नए राज्य अवश्य फतह किए, पर उसकी लोकप्रियता उन राज्यों में घटी है, जहां वह हुकूमत करती आई है। 22 बरस से गुजरात पर राज कर रही भाजपा के पिछले विधानसभा चुनाव को जीतने में पसीने छूट गए थे। इसके साथ राजस्थान, मध्य प्रदेश अथवा जम्मू-कश्मीर के उपचुनावों में भगवा दल को लगातार हार का सामना करना पड़ा। राजस्थान में पिछले दिनों हुए नगर निकायों के उपचुनावों में भी 21 जिलों में कांग्रेस ने जीतकर यह साबित कर दिया कि हवा गरम हो चली है। 

उत्तर प्रदेश के उपचुनावों ने कांग्रेस के समक्ष भी चुनौतियां खड़ी की हैं। इन उपचुनावों में सपा-बसपा ने गठबंधन करते समय उसे विश्वास में नहीं लिया। पार्टी ने नाक बचाने के लिए उम्मीदवार खड़े किए, तो वे 20 हजार का आंकड़ा भी न छू सके। यह ठीक है कि सोनिया गांधी के रात्रिभोज में पिछली ही शाम 20 दलों के शीर्ष नेता या नुमाइंदे जुटे थे, पर 2019 क्षेत्रीय दलों को मोल-तोल का नया अवसर प्रदान करेगा। कभी उसके सहयोगी रहे क्षेत्रीय दल अब उससे सहयोगी भूमिका निभाने की मांग कर सकते हैं। तय है, यह उपचुनाव सूबाई सियासत करने वाली पार्टियों के उभार का सबब साबित होगा।  

नए उपजे हालात ने लोकसभा के तीन उपचुनावों, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के आने वाले विधानसभा चुनावों को और दिलचस्प बना दिया है। देखते हैं, जम्हूरियत किसको नायक और कितनों को जमूरा साबित करती है?

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