दिल्ली ही नहीं देश बेदिल हो गया है
ये पंक्तियां मैं गम, गुस्से और शर्म के साथ लिख रहा हूं। ऐसा लगता है, जैसे भारतीय समाज अपने सद्गुणों को खूंटी पर टांगकर आर्थिक विकास की ऐसी अंधी दौड़ में शामिल हो गया है, जिसका सामाजिक सुरक्षा के बिना...
ये पंक्तियां मैं गम, गुस्से और शर्म के साथ लिख रहा हूं। ऐसा लगता है, जैसे भारतीय समाज अपने सद्गुणों को खूंटी पर टांगकर आर्थिक विकास की ऐसी अंधी दौड़ में शामिल हो गया है, जिसका सामाजिक सुरक्षा के बिना कोई अर्थ नहीं।
यकीन न हो, तो कृपया पिछले दिनों दिल्ली में घटी इस शर्मनाक घटना पर गौर फरमाइए। दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा डीटीसी बस में सफर कर रही थी। उसके बगल में बैठे खिचड़ी बालों वाले दुबले-पतले शख्स ने उसकी ओर देखते हुए हस्त मैथुन शुरू कर दिया। मुझे यह शब्द लिखने में भी शर्म आ रही है, पर उस पापी की कैसी जेहनियत होगी, जो सार्वजनिक स्थल पर ऐसी गलीज हरकत कर रहा था! छात्रा ने उसे मना किया, पर वह क्यों मानता? लड़की ने शोर मचाकर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की, कोई नतीजा नहीं निकला। और तो और, ड्राइवर तथा कंडक्टर भी लापरवाह बने रहे। क्या इसीलिए दिल्ली को बेदिल कहते हैं?
अपने सहयात्रियों और डीटीसी कर्मियों की आत्मघाती उपेक्षा के बावजूद उस नौजवान छात्रा ने हिम्मत नहीं हारी। उसने निडरतापूर्वक इस गलीज हरकत को अपने मोबाइल में रिकॉर्ड कर उसे ट्विटर पर डाल दिया। इसके बाद ऐसा हो-हल्ला मचा कि दिल्ली पुलिस को कुंभकर्णी निद्रा त्यागकर उस घिनौने शख्स को गिरफ्तार करना पड़ा। रेडियो पर निर्भया और अंकित के नाम पर लोगों से जागने की अपील करने वाली दिल्ली सरकार ने ये पंक्तियां लिखे जाने तक उस बस के चालक और परिचालक के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की है। क्या ऐसे असंवेदनशील और बेपरवाह कर्मचारियों को बर्खास्त कर जेल में नहीं डाल देना चाहिए?
आप उस छात्रा के हौसले और जज्बे को सलाम करना चाहेंगे, पर उसके सहयात्रियों के बारे में क्या कहेंगे? वे उस व्यक्ति से भी ज्यादा भत्र्सना के पात्र हैं, जिसने ऐसी नीचतापूर्ण हरकत की। समाज सहयोग और सद्भाव से बनता है। हमारा सद्भाव तो कब का सांप्रदायिकता और जातिवाद की बहस के हवाले हो चुका है, अब अगर सहयोग भी लड़खड़ा गया, तो अपने बनाए जंगलराज में हम कितने सुरक्षित रह पाएंगे? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश कीजिए, आपका मन कांप जाएगा।
गौरतलब है कि दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन की यह बस किसी बियावान जंगल से नहीं गुजर रही थी और न अश्लील हरकत करने वाला व्यक्ति कोई हथियारबंद आतंकवादी था। लोग चाहते, तो उसे रोक सकते थे या 100 नंबर पर फोन करके पुलिस को इत्तला कर सकते थे। उनमें से एक भी यात्री आवाज उठाता, तो उस व्यक्ति को शर्मिंदगी झेलनी पड़ती, पर सब चुप रहे। ऐसे ही लोग ‘निर्भया’ जैसे कांड होने के बाद सोशल मीडिया पर गला फाड़ते हुए सरकारों को कर्तव्यनिष्ठ होने की सलाह देते हैं। उपदेश देने की बजाय अगर वे अपने नागरिक कर्तव्य का पालन करें, तो ऐसे तमाम कांड कभी आकार ही न लें। उनकी चुप्पी खुद उनके लिए कितनी खतरनाक है, इसके लिए इन आंकड़ों पर गौर फरमाएं। दिल्ली में 2016-17 के दौरान 669 पीछा करने, 41 बदनीयती से घूरने और 2,155 दुष्कर्म के मामले दर्ज किए गए। राजधानी में अपराधों की उच्चतम दर में 2015-16 के मुकाबले 2016-17 में 160.4 प्रतिशत की भयावह वृद्धि पाई गई। यह राष्ट्रीय दर 55.2 फीसदी से लगभग तिगुनी है।
कोई आश्चर्य नहीं है कि लंदन स्थित थॉमसन राइटर्स फाउंडेशन ने पिछले साल जून-जुलाई के दौरान जब दुनिया के महानगरों का सर्वेक्षण कराया, तो पता चला कि भारत की राजधानी दिल्ली सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं की असुरक्षा के मामले में संसार में चौथे स्थान पर है। पहले तीन पायदान पर बगोटा, मैक्सिको सीटी और लीमा थे।
सिर्फ छेड़खानी ही क्यों? अगर आप दिल्ली में किसी दुर्घटना के शिकार हो जाएं, तो राहगीर आपकी मदद की बजाय उसका वीडियो बनाने में अधिक दिलचस्पी लेते दिखाई पडेंगे। अभी मैंने अंकित का जिक्र किया था। अंकित का जब गला रेता गया, तब उसकी मां तेजी से बहते खून को रोकने के लिए उस पर दुपट्टा रखकर मदद के लिए चीखती रही। आसपास के लोग वीडियो बनाते रहे, पर कोई सहायता के लिए आगे नहीं आया। मैं पूछना चाहता हूं कि इस घटना को सांप्रदायिक रंग देने वाले उन लोगों का विरोध क्यों नहीं करते, जो अंकित के पड़ोसी थे और उसी तबके से ताल्लुक रखते हैं, जिससे अंकित का परिवार आता है?
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के एक आकलन का यह निष्कर्ष चौंकाता है कि राजधानी में 85 फीसदी लोग सड़क दुर्घटना में घायलों की मदद के लिए आगे नहीं आते। नतीजतन, सड़क हादसों के शिकारों में 52 फीसदी लोग समय रहते मेडिकल सहायता नहीं मिलने की वजह से मारे जाते हैं। तय है, हमने साधन-संपन्न अस्पताल तो बना लिए, पर सहकार की सनातन परंपरा को बिसरा दिया।
दिल्ली विश्वविद्यालय की वह छात्रा तो उस सर्वाधिक उपेक्षित तबके से आती थी, जिसे हम आम आदमी कहते हैं, पर इस देशव्यापी महामारी से नामचीन सिने तारिकाएं तक अछूती नहीं हैं। इसी महीने की शुरुआत में दक्षिण भारत की दो अभिनेत्रियों से सरेआम छेड़छाड़ की गई। मलयालम अभिनेत्री सनुषा संतोष मेंगलुरु सेंट्रल से तिरूवनंतपुरम की टे्रन में सो रही थीं। रात के एक बजे उनकी नींद सहयात्री की छेड़छाड़ से खुली। उन्होंने मदद के लिए गुहार लगाई, पर यात्रियों से भरी हुई ट्रेन में से सिर्फ दो लोग मदद के लिए आगे आए। दूसरी दक्षिण भारतीय अभिनेत्री अमाला पॉल नृत्य का अभ्यास कर रही थीं। एक व्यक्ति ने उन्हें सबके सामने अभद्र बातें कहनी शुरू कर दीं। साथ के लोगों ने उनकी अपेक्षित मदद नहीं की और उनको पुलिस की शरण लेनी पड़ी।
इसी तरह दंगल फिल्म की किशोर अभिनेत्री जायरा वसीम से तो उड़ती फ्लाइट में छेड़छाड़ की गई। उन्होंने छेड़छाड़ के बाद इंस्टाग्राम पर वीडियो डालकर आरोप लगाया था कि क्रू मेंबर से शिकायत के बावजूद आवश्यक मदद नहीं मिली। इस पर एयरलाइन्स का जवाब था कि हमारे किसी कर्मचारी से इस तरह की कोई शिकायत नहीं की गई। सचाई कुछ भी हो, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि महिलाओं के सम्मान की सुरक्षा और आपदा के शिकार लोगों के मामले में हमारा समाज निरंतर संवेदनहीन होता जा रहा है।
आप चाहें, तो सरकार को दोष देकर एक बार फिर हाथ झाड़ सकते हैं, परंतु यह समय दूसरों को दोष देने की बजाय अपने गिरेबां में झांकने का है।
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