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नए साल में पुरानी राजनीति का आगाज

पिछले दिनों मैसूर की भीड़ भरी जनसभा में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कर्नाटक को ‘हनुमानजी’ की जन्मभूमि बताया, तो लोग देर तक तालियां बजाते रहे। उसी दिन भाजपा अध्यक्ष...

नए साल में पुरानी राजनीति का आगाज
शशि शेखरMon, 15 Jan 2018 04:50 PM
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पिछले दिनों मैसूर की भीड़ भरी जनसभा में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कर्नाटक को ‘हनुमानजी’ की जन्मभूमि बताया, तो लोग देर तक तालियां बजाते रहे। उसी दिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अगरतला में कहा- मौजूदा राज्य सरकार के तमाम मंत्री भ्रष्ट हैं। हम सत्ता में आते ही उन्हें जेल भेज देंगे। राहुल गांधी ने दो दिन बाद इसका जवाब बहरीन में दिया। उन्होंने प्रवासियों से कहा कि भारत संकट में है, आप मदद कर सकते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि वहां बड़ी संख्या में कन्नडिगा रहते हैं, जिनका कर्नाटक के जन-जीवन पर खासा प्रभाव है। राहुल शीघ्र कर्नाटक की यात्रा भी करेंगे। 

मतलब साफ है। भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने अंदाज में चुनावी ताल ठोक दी है। योगी आदित्यनाथ को आगे कर भाजपा ने जगजाहिर कर दिया है कि वह मतदाताओं पर एक बार फिर हिंदुत्व, प्रशासन और विकास के कॉकटेल का छिड़काव करने जा रही है। इसके विपरीत कांग्रेस वादा-खिलाफी, सहिष्णुता और सामाजिक एकता को केंद्र में रखेगी। जो लोग ठोस मुद्दों के आधार पर चुनाव चाहते हैं, उन्हें एक बार फिर निराश होना पड़ सकता है। 

इस दौरान अगर दोनों पार्टियां एक-दूसरे की लीक पर चलती दिखें, तो आश्चर्यचकित होने की जरूरत नहीं। भारतीय राजनीति का यह नया चलन है। कल तक जो लोग किसी खास मुद्दे के विरोध में खड़े दिखते थे, सत्ता में आते ही वे अपना रुख पूरे तौर पर बदल लेते हैं। मसलन, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, रक्षा खरीद, रोजगार सृजन जैसे मुद्दों पर भाजपा ने उस भाषा का वरण कर लिया है, जो कल तक कांग्रेसी बोला करते थे। कांगे्रसियों के मुंह से अब हम वैसे ही वचन सुनते हैं, जिन पर कल तक विपक्ष में बैठी भाजपा का एकाधिकार हुआ करता था। यह वाणी की गुणवत्ता और वक़त में कमी का दौर है।

इसीलिए हर कुछ दिनों के अंतराल में होने वाले चुनाव डराने और उबाने लगे हैं। इस दौरान हम राजनीतिक विमर्श के नाम पर ऐसी चर्चा सुन रहे होते हैं, जो कभी वर्जित हुआ करती थी। धर्म उनमें से एक है। पिछले दशक तक राजनेता इस मुद्दे पर बचते-बचाते कुछ बोला करते थे, पर अब यह जिन्न बोतल से बाहर आ चुका है। न केवल कभी वर्जित रहे इस विषय पर जमकर वाद-विवाद होता है, बल्कि कौन कितना और कौन कैसा धार्मिक, इस पर बहस होती है। इसीलिए मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप से बचने के लिए ‘सेक्युलर’ ममता बनर्जी की पार्टी संस्कृत शिक्षकों का सम्मेलन करती है और उन्हें ‘इमामों की भांति भत्ता’ देने का एलान करती है। इस पर चुटकी लेने वाली भाजपा भी उस वक्त लोगों को अचरज से भर देती है, जब उसके मुस्लिम कार्यकर्ता सम्मेलन में हजारों लोग आ जुटते हैं। धर्म दबे पांव हमेशा राजनीति में दखल देता था, मगर यह पहली बार हो रहा है, जब इस नितांत निजी आस्था को डंके की चोट पर भुनाने की कोशिश की जा रही है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए कितनी हितकारी है, इस पर फिर कभी चर्चा। फिलहाल देश के आठ राज्यों में होने वाले चुनावों पर लौटते हैं।

पिछले चार वर्ष के दौरान नरेंद्र मोदी और अमित शाह के रूप में बेहद कारगर चुनाव मशीन भारतीय राजनीति के फलक पर उभरी है। इस जुगलबंदी ने लोकसभा के बाद एक-एक कर 14 राज्यों में सरकार बनाई। दिल्ली, बिहार और पंजाब में अगर उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा, तो पटना में बदलाव के साथ नई दिल्ली के नगर निगमों पर कब्जा कर उन्होंने इस शिकस्त की काफी कुछ भरपाई भी कर डाली। वे चुनावी जंग में उतरते ही सिर्फ जीतने के लिए हैं। इसीलिए गोवा और मणिपुर में पराजय के बावजूद वे सरकार बनाने में कामयाब हो गए। क्या कांग्रेस इस जोड़ी का कारगर सामना कर पाएगी?

बरसों तक सत्ता में रहने और कमान का अधिकांश हिस्सा बुजुर्गों के कब्जे में होने के कारण कांग्रेस की निर्णय क्षमता पर असर पड़ा है। गोवा और मणिपुर में बहुमत के करीब होने के बावजूद वहां का सत्ता सिंहासन पंजे की पकड़ से निकल गया। कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष राहुल गांधी की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह इस जंग खाई व्यवस्था को चाक-चौबंद कैसे करें? इसके उलट सत्तारूढ़ मोदी और संगठन पर काबिज शाह न केवल संगठित हैं, बल्कि उनकी सियासी गतिविधियों में हैरतअंगेज तेजी पाई जाती है।

हालांकि, कांग्रेस इस समय उम्मीदों से लबरेज है। उसके सदस्यों को लगता है कि वे आने वाले दिनों में गुजरात को दोहरा सकेंगे। पिछले चुनावों के दौरान गुजरात में उग्र जातीय असंतोष का ट्रेंड देखने को मिला था। हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी इसी की उपज हैं। अल्पेश और जिग्नेश की जातियों की नाराजगी उतनी नहीं चौंकाती, जितना कि पाटीदारों का आंदोलन। भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार हो रहा है कि समाज के जो वर्ग सत्ता में लंबे समय तक हिस्सेदार रहे हैं, उन्हीं के नौजवान अपने घरों से बैनर-पट्िटयां लेकर बाहर निकल पडे़ हैं। अगर कुछ अन्य राज्यों में इस तरह के आंदोलन पनपते हैं, तो यकीनन राजनीति के तमाम समीकरण गड्ड-मड्ड हो जाएंगे। यहां यह सवाल भी उठता है, महाराष्ट्र में मराठों और दलितों के बीच छिड़ी लड़ाई किसी बड़ी जंग का आगाज तो नहीं? 

मानता हूं, मेघालय, त्रिपुरा, नगालैंड अथवा मिजोरम इस जहर से बचे रहे। पूर्वोत्तर लंबे समय तक अपने ही खून से नहाता रहा है। वहां लोकतांत्रिक मूल्यों से छेड़छाड़ बड़े उत्पात की जननी बन सकती है। 

यहां यह भी गौरतलब है कि गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी एक परिपक्व नेता के तौर पर उभरे हैं। मणिशंकर अय्यर उनकी पार्टी और उनके परिवार से दशकों से जुड़े हैं। उनके मुंह से एक अपशब्द निकला और वह निलंबित कर दिए गए। हिमाचल में छठी बार निर्वाचित आशा कुमारी की एक कांस्टेबल से हाथापाई हुई, तो नवनियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष ने उन्हें सार्वजनिक तौर पर क्षमा मांगने के लिए मजबूर किया। यकीनन वह एक शिष्ट, शालीन और तार्किक नेता की छवि गढ़ने में लगे हैं। वर्ष 2018 यह भी तय करेगा कि बेहद आक्रामक मोदी और शाह की जोड़ी के मुकाबले उनकी यह छवि कितनी कारगर होती है? 

ये चुनाव मतदाताओं के लिए भी बड़ा अवसर हैं। गुजरात में उकताए मतदाताओं ने प्रतिरोध प्रकट करने के लिए अनोखी युक्ति अपनाई। वहां पांच लाख से अधिक लोगों ने ‘नोटा’ का बटन दबाकर चौंकाने वाला संदेश दिया। अगर ये मत कांग्रेस को मिल जाते, तो शायद वह सत्ता पा जाती। भाजपा को हासिल होते, तो उसकी जीत यकीनन अधिक सम्मानजनक होती। अगर हमारे नेताओं को भविष्य में इस तरह के कुछ और झटके हासिल हुए, तो उन्हें अपनी दशा-दिशा बदलने पर मजबूर होना पड़ेगा। मैं यहां ‘नोटा’ की वकालत नहीं कर रहा, पर गुजरात की जनता ने जो संदेश दिया है, उसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती।   

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