त्वरित टिप्पणी : मोदी का मिशन कश्मीर और कुछ अनसुलझे सवाल
जम्मू-कश्मीर की अवधारणा पर पुराने कवच की भांति चस्पा अनुच्छेद 370 को समाप्त कर केन्द्र की हुकूमत ने उस परंपरा को अलविदा कह दिया है, जो पुराने नासूर की महज मरहम पट्टी कर राहत की सांस ले लेती थी।...
जम्मू-कश्मीर की अवधारणा पर पुराने कवच की भांति चस्पा अनुच्छेद 370 को समाप्त कर केन्द्र की हुकूमत ने उस परंपरा को अलविदा कह दिया है, जो पुराने नासूर की महज मरहम पट्टी कर राहत की सांस ले लेती थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने इस बार मुकम्मल सर्जरी की वह विधि अपनाई है, जिसे अब तक जोखिमभरा माना जाता था। क्या इसे भगवा दल के आदि पुरुष श्यामा प्रसाद मुखर्जी के ‘एक देश, एक निशान, एक विधान’ के नारे का आकार ग्रहण करना माना जाए या इस भूभाग के लोगों के लिए अकेला जरूरी फैसला यही था? इन सवालों पर आगे चर्चा करेंगे। पहले, सोमवार के फलितार्थ की बात। इन फैसलों के अमल में आने के बाद जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा छिन जाएगा।
अब जम्मू-कश्मीर दिल्ली अथवा पुडुचेरी की तरह विधानसभा संपन्न केन्द्र शासित प्रदेश होगा। लद्दाख को अलग कर दिया गया है। उसे विधानसभा रहित केन्द्र शासित सूबे का दर्जा प्राप्त होगा। इन कठोर फैसलों के आसार जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ दिनों से दिखाई पड़ने लगे थे। पहली बार अमरनाथ यात्रा बीच में रोक तीर्थयात्रियों और सैलानियों को घर वापसी के निर्देश दे दिए गए थे। साथ ही संवेदनशील इलाक़ों में 35 हजार और जवान भेजे गए थे। रविवार, आधी रात के बाद प्रदेश के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों फारूख अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला को नजरबंद कर दिया गया था। हुर्रियत वालों का भी यही हाल था। घाटी में टेलीफोन और इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई थीं। पूरे सूबे में धारा 144 के तहत चार या चार से अधिक लोगों के इकट्ठा होने पर पाबंदी लगा दी गई थी।
कयासों का बाजार गर्म था कि कुछ बड़ा होने वाला है पर क्या? जवाब नदारद था। हलचल सिर्फ हिन्दुस्तानी धरती पर नहीं थी। इस्लामाबाद में पाक प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ रावलपिंडी जनरल साहेबान बेचैन हो रहे थे। एक दिन पहले ही भारतीय फौजों ने पाकिस्तानी सेना की ‘बॉर्डर एक्शन टीम’ यानी बैट के घुसपैठ करने वाले पांच जवान मार गिराए थे। तरह-तरह के शिगूफे सोशल मीडिया पर उछल रहे थे पर सच यह है कि किसी ने भी ऐसी शल्य-क्रिया की उम्मीद नहीं की थी।
मौजूदा सत्तानायकों ने हुकूमत पर पड़े वर्जनाओं के वे तमाम नकाब नोचकर फेंक दिए हैं, जिन्हें पहले खुद उनकी पार्टी छूने से कतराती थी। अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी की तुलना करें, तो साफ हो जाएगा कि दोनों की रीति-नीति में कितना फर्क है! काले धन पर प्रहार करने की बात हर हुकूमत करती थी पर नोटबंदी जैसा जोखिमभरा कदम सिर्फ इस सरकार ने उठाया। तीन तलाक की विदाई और आतंकवाद से जुड़े कानूनों को विवादास्पद मजबूती इसका दूसरा उदाहरण है। कश्मीर पर यह फैसला सरकार ने पांच अगस्त को यह जानते हुए लिया कि छह अगस्त से सुप्रीम कोर्ट राम मंदिर की रोजाना सुनवाई करने जा रहा है।
अब तक कश्मीर भारत और पाक का द्विपक्षीय मसला माना जाता था। पाकिस्तानी हुक्मरां अपनी ‘होम टर्फ़’ पर कश्मीर ग्रंथि से लाभ उठाते आए हैं। यही नहीं इस भूभाग की तथाकथित आजादी के नाम पर पाकिस्तान ने आतंकियों के ट्रेनिंग कैंप खोल रखे थे और अब तक दोनों देशों के दरमियान लड़े गए चार युद्ध काफी कुछ इसी समस्या का नतीजा थे। इसीलिए पाकिस्तान की ओर से तल्ख प्रतिक्रिया आई है। इन निर्णयों को अस्वीकार करते हुए उसने हर संभव उपायों पर विचार की धमकी दी है। तय है, इस्लामाबाद अपनी कारगुजारियों से बाज नहीं आने वाला।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पिछले कुछ दिनों में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने दो बार इस मसले पर मध्यस्थता की पेशकश की है। यह ठीक है कि ट्रम्प औचक बयानी करते रहे हैं पर इमरान खान से मुलाकात के तत्काल बाद इस तरह की घोषणाएं चौंकाती हैं। अफगानिस्तान में बरसों से हो रही जन-धन हानि से पिंड छुड़ाने के लिए वाशिंगटन उतावला हुआ जा रहा है। पहले वहां के रणनीतिकारों ने तालिबान से नाता साधा और अब कहीं वे पाकिस्तान की कुछ शर्तें तो नहीं मंजूर कर रहे हैं? वादी-ए-कश्मीर कहीं इस सौदेबाजी का हिस्सा तो नहीं? इन सवालों को सान इसलिए भी चढ़ रही है क्योंकि चीन तो पहले से ही पाकिस्तान का समर्थन करता आया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि परदे के पीछे कुछ ऐसी कूटनीतिक हलचल हो रही हो जिसकी वजह से नई दिल्ली ने इस मामले में तत्परता बरती हो?
यह भी संभव है कि पाकिस्तान इस मामले को संयुक्त राष्ट्र तक ले जाए। क्या भारत ने इन तमाम सवालों से निबटने के लिए पर्याप्त कूटनीतिक तैयारी कर रखी है? हो सकता है, इस मामले में कुछ नए तथ्य सामने आएं, पर मोदी और शाह को जानने वाले जानते हैं कि वे कोई फैसला लेने से पहले उसका समय और अनुपालन अपनी सुविधा से तय करते हैं। हो सकता है जम्मू-कश्मीर इसका नया उदाहरण हो।
सोमवार को गृहमंत्री अमित शाह ने जब इस विषय को राज्यसभा के सामने रखा, तो उसके बाद कुछ दिल दुखाने वाले दृश्य सामने आए। पीडीपी के दो सदस्यों ने संविधान की प्रति को क्षतिग्रस्त करने की कोशिश की। यह निंदनीय है। वे भूल कैसे गए कि इसी संविधान की शपथ लेकर उनके नेता मुख्यमंत्री और मंत्री बनते रहे हैं। वे खुद इसी परिपाटी के जरिए इस गरिमापूर्ण सदन तक पहुंचे हैं। इस हरकत के लिए उन्हें निलंबित कर दिया गया है।
उम्मीद के मुताबिक महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला सहित घाटी के तमाम नेताओं ने इस मामले पर संघर्ष की घोषणा की है। कई विपक्षी दलों ने नई दिल्ली में भी ऐसी ही बातें दोहराई हैं। यहां घाटी और दिल्ली को अलग दृष्टि से देखना होगा। राज्यसभा में सत्तारूढ़ गठबंधन ने बीएसपी, बीजेडी सहित तमाम दलों का समर्थन हासिल कर साबित कर दिया कि इस सिलसिले में पहले से ही तैयारी की गई थी। अब सरकार को ऐसा ही इम्तिहान घाटी और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक क्षेत्रों में देना होगा।
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