फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन आजकलएक इंसाफ से उपजी उम्मीद

एक इंसाफ से उपजी उम्मीद

वह 14 अक्तूबर, 2010 की अलसाई सुबह थी, पर मैं सुलग रहा था। हिंदी पट्टी की यह कहावत- ‘गरीब की हर जगह मौत है’, मेरे सिर पर हथौडे़ की तरह बज रही थी। मन में सवाल कौंध रहा था कि अन्याय को पहले...

एक इंसाफ से उपजी उम्मीद
शशि शेखरSat, 08 Dec 2018 10:04 PM
ऐप पर पढ़ें

वह 14 अक्तूबर, 2010 की अलसाई सुबह थी, पर मैं सुलग रहा था। हिंदी पट्टी की यह कहावत- ‘गरीब की हर जगह मौत है’, मेरे सिर पर हथौडे़ की तरह बज रही थी। मन में सवाल कौंध रहा था कि अन्याय को पहले कहावत, और फिर परंपरा बना देने का यह दुस्साहसी खेल कब तक चलेगा? कानपुर, लखनऊ और दिल्ली के हमारे सहयोगी भी ऐसा ही सोच रहे थे। दोपहर होते-होते हमने कमर कस ली कि हर बार न सही, पर कम से कम इस बार तो इस कहावत को झूठा साबित होना ही होगा। आप सोच रहे होंगे, इस उद्वेलन की वजह क्या थी?

हुआ यह था कि कानपुर के एक स्कूल में कक्षा छह की छात्रा दिव्या (परिवर्तित नाम) को बुरी तरह घायल स्थिति में स्कूल प्रबंधन के लोगों ने घर के बाहर छोड़ दिया था। उसके माता-पिता मेहनत-मजदूरी करके घर चलाते थे। बच्ची के अंगों से खून रिस रहा था। वह यह तक बताने की स्थिति में नहीं थी कि उसके साथ क्या हुआ, उसकी ऐसी दुर्दशा किसने बनाई? साधनहीन मां-बाप ने किसी तरह पड़ोसियों को इकट्ठा किया और उसे अस्पताल ले गए। उसी रात डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। एक से दूसरे अस्पताल भटकते समय रास्ते में ही बच्ची के प्राण-पखेरु उड़ चुके थे। 

एक अबोध जीवन का इससे त्रासद अंत और क्या हो सकता था? अब रो-रोकर गुहार लगाते मां-बाप के पास इंसाफ का एक ही जरिया बचा था- पुलिस। वे थाने गए। किसी तरह रिपोर्ट लिखी गई और वह तमाशा शुरू हुआ, जिसे ‘पुलिसिया कार्रवाई’ कहते हैं। उत्तर प्रदेश में उन दिनों मायावती की हुकूमत हुआ करती थी। उनके बारे में मशहूर था कि वह अपराध और अपराधियों को किसी भी स्थिति में बर्दाश्त नहीं करतीं। उस समय स्थानीय पुलिस की कमान एक ऐसे अधिकारी के पास थी, जो उनका कृपापात्र बताया जाता था। मायावती का उसूल था कि कोई कितना भी मुंहलगा हो, पर हुकूमत के उनके बनाए नियम-कायदे टूटने नहीं चाहिए। मामला बच्ची के साथ हुए घिनौने अपराध का था और मीडिया उसे अपने अंदाज में पेश कर रहा था। लिहाजा, पुलिस के लिए जल्दी ‘गुड वर्क’ दिखाना लाजिमी था। इसके लिए आसान रास्ता निकाला गया। जो पड़ोसी रिक्शेवाला बच्ची को कभी-कदा स्कूल लाता, ले जाता था, उसी को बलात्कार और हत्या के आरोप में नाप दिया गया। यही नहीं, इस मामले में अभागी बच्ची की मां पर भी सुनियोजित तौर से कीचड़ उछाला गया।

है न कमाल! एक गरीब की बच्ची मरी और दूसरा गरीब नाप दिया गया। एक बालिका हवस का शिकार बनी, तो एक औरत को बदनाम करने की कोशिश की गई। हादसे और हुक्मरानों के जुल्म कभी निर्धन का दामन नहीं छोड़ते। इस पुलिसिया कहानी में काफी कुछ ऐसा था, जो खटकता था। लिहाजा, हमारे एक संवाददाता ने जेल में रिक्शेवाले से मुलाकात की। उसकी आपबीती रोंगटे खड़ी करने वाली थी। पुलिस के ‘गुड वर्क’ ने उसकी और उसके परिजनों की जिंदगी नारकीय बना दी थी। हिन्दुस्तान ने उसे उजागर करने का फैसला किया। इससे पुलिस की करतूत पर पानी फिर गया। षड्यंत्रकारी अफसर बौखला उठे, पर उनका दिमाग इतना चढ़ा हुआ था कि उन्होंने हिन्दुस्तान  के दो संवाददाताओं को झूठे मुकदमों में फंसा दिया। यही नहीं, हमारे कानपुर कार्यालय पर बड़ी संख्या में लोगों को भेजकर दहशत फैलाने की कोशिश भी हुई। 

इसके बावजूद हिन्दुस्तान  के साथी डगमगाए नहीं। हमने दिव्या के बहाने महिलाओं के हक-हुकूक की आवाज बुलंद की। कानपुर शहर के प्रबुद्धजनों के दरवाजों पर दस्तक दी, कॉलेजों में गए, स्कूलों में बच्चियों को जागृत करने की कोशिश की और देखते-देखते जन-आंदोलन खड़ा हो गया। हिन्दुस्तान  की अपील पर लोगों ने पीड़ित परिवार की आर्थिक मदद की। दिव्या की मां का कोई बैंक खाता न था। हमने उसकी मदद की और उसे आगे की लड़ाई के लिए पर्याप्त राशि हासिल हो गई। यही नहीं, लोग मोमबत्तियां और बैनर लेकर सड़कों पर उतरने लगे। ऐसे एक प्रदर्शन की अगुवाई मशहूर फिल्म निर्माता महेश भट्ट ने की। कुछ लोगों को गलतफहमी है कि आम आदमी के मुंह में जुबान नहीं होती। दरअसल, हमारे समाज में सत्-असत् की अंतर्धारा बहती रहती है। आप एक बार उसे साकार होने का अवसर तो दे देखिए! दिव्या की पीड़ा जनाक्रोश में तब्दील हो चुकी थी। उसे अब दबाया नहीं जा सकता था। 

मामला लखनऊ के सत्ता-सदन तक पहुंचा। सचिवालय ‘एनेक्सी के पंचम तल’ से न केवल तथाकथित खासमखास अधिकारी को हटाने का हुक्म जारी हुआ, बल्कि तमाम अधिकारी और पुलिसकर्मी निलंबित कर दिए गए। इसके साथ ही जांच सीबीसीआईडी को सौंप दी गई। नवनियुक्त जांच अधिकारियों ने काम को नए सिरे से शुरू किया। मालूम पड़ा कि जिस स्कूल में दिव्या पढ़ती थी, उसी के संचालक के बेटे ने इस जघन्य घटना को अंजाम दिया था। वह धर लिया गया, पर मामला खत्म नहीं हुआ। न्याययुद्ध का अभी पहला चरण ही पूरा हुआ था। जांच आगे सही तरीके से चले, पुलिस समूचे साक्ष्य के साथ अदालत में हाजिर हो और दुष्कर्मी अपने अंजाम तक पहुंचे, इसके लिए लड़ाई बाकी थी और साथ ही शेष थे हमारे हौसले। 

आखिरकार, गुजरी पांच दिसंबर को कानपुर की एक अदालत ने दोषी को उम्र कैद की सजा सुना दी। इस समूची कहानी को आप तक पहुंचाने का मेरा मकसद हिन्दुस्तान  या अपने साथियों का गुणगान करना नहीं था। इन पंक्तियों को लिखते समय भी मेरे मन में यही सवाल चल रहा है कि इस दिव्या को तो इंसाफ मिल गया, पर जिस देश में हर दिन बलात्कार की 106 घटनाएं होती हों, वहां आतताइयों को सजा की खबरें यदा-
कदा ही सुनने को क्यों मिलती हैं? 

तय है, दिव्या को न्याय  से एक उम्मीद जगी है, मगर महिलाओं-बच्चियों के हक-हुकूक की हिफाजत की लंबी लड़ाई अभी बाकी है।

Twitter Handle: @shekharkahin 
शशि शेखर के फेसबुक पेज से जुड़ें
shashi.shekhar@livehindustan.com

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें